भारतीय क्रिकेट के चमकते सितारे महेन्द्र सिंह धोनी की उम्र इस समय 35 वर्ष है और अभी भी वे क्रिकेट खेल रहे हैं। उन पर फिल्म बनाना जल्दबाजी कही जा सकती है। हालांकि धोनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं और इस समय उनके जीवन पर फिल्म बनाना सफलता के अवसर बढ़ा देती है और यही बात निर्माता-निर्देशक नीरज पांडे ने सूंघ ली और 'एमएस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी' बनाकर पेश कर दी।
इस फिल्म को बायोपिक कहना गलत होगा क्योंकि धोनी की जिंदगी को यह उस सूक्ष्मता के साथ पेश नहीं करती जो कि बायोपिक की अनिवार्य शर्त होती है। फिल्म में धोनी की जिंदगी में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं का समावेश है और संभव है कि धोनी तथा नीरज पांडे ने मिल कर तय किया होगा कि क्या दिखाना है और क्या छिपाना है।
फिल्म के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें अनकही कहानी दिखाई गई है। क्रिकेट के मैदान में धोनी ने क्या कारनामे किए हैं इससे तमाम क्रिकेट प्रेमी परिचित हैं, लेकिन धोनी के 'धोनी' बनने के सफर की जानकारी कम ही जानते हैं। इसी को आधार बनाकर नीरज पांडे ने फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है।
फिल्म की शुरुआत बेहतरीन है। विश्वकप 2011 का फाइनल खेला जा रहा है। दृश्य ड्रेसिंग रूम का है। अचानक धोनी फैसला लेते हैं कि युवराजसिंह की बजाय वे बल्लेबाजी के लिए जाएंगे। यह सीन दर्शकों में जोश भर देता है और फिल्म का मूड सेट कर देता है। इसके बाद फिल्म सीधे 30 वर्ष पीछे, 7 जुलाई 1981 को चली जाती है जब रांची के एक अस्पताल में पान सिंह धोनी के यहां महेंद्र सिंह धोनी का जन्म होता है। इसके बाद धोनी किस तरह क्रिकेट की दुनिया में धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाते हैं, उनके इस सफर को दिखाया गया है।
यह सफर बहुत अच्छे तरीके से दिखाया गया है और कुछ नई बातें पता चलती हैं। जैसे एमएस की क्रिकेट में रूचि नहीं थी। स्कूल टीम के विकेटकीपर ने अपना नाम वापस ले लिया और गोलकीपर धोनी को विकेटकीपर बना दिया गया। जब वे मैदान में बाउंड्री लगाते थे तो दुकानदार, टीचर और विद्यार्थी मैदान पर धोनी का खेल देखने पहुंच जाते थे। पहला पोस्टर उन्होंने सचिन तेंडुलकर का खरीदा था। एक मैच में उनका युवराज सिंह से दिलचस्प तरीके से सामना होता है। हेलिकॉप्टर शॉट उन्होंने अपने संतोष नामक दोस्त से समोसे खिलाने के बदले सीखा था। संतोष इसे थप्पड़ शॉट कहता था। एक महत्वपूर्ण मैच धोनी के हाथ से इसलिए निकल गया था क्योंकि उन्हें सूचना देर से मिली थी। कोलकाता से फ्लाइट पकड़ने के लिए वे रांची से पूरी रात सफर करते हैं, लेकिन फ्लाइट मिस हो जाती है।
धोनी के परिवार की आर्थिक हालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी। एक ऐसे परिवार का मुखिया यही सोचता है कि उसका बेटा पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी हासिल कर ले। पान सिंह धोनी भी यही चाहते थे और महेंद्र खेल में कुछ करना चाहता था। पिता खिलाफ नहीं थे, लेकिन एक आम भारतीय पिता का डर उनके मन में मौजूद था। अपने पिता की खातिर महेंद्र रेलवे में टीसी की नौकरी करता है।
टीसी की नौकरी में धोनी की कुंठा को अच्छे से दिखाया है जब वह पूरा दिन रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ता है और शाम को मैदान में पसीना बहाता है। उसका टीम में चयन नहीं होता तो वह रात में टेनिस बॉल से खेले जाने वाले टूर्नामेंट में खेल कर अपने गुस्से को बाहर निकालता है। एक दिन दिल की बात सुन कर वह नौकरी छोड़ देता है।
यहां तक फिल्म बेहद प्रभावी है और निर्देशक नीरज पांडे ने थोड़ा नमक-मिर्च लगा कर धोनी की कहानी को दिलचस्प बनाया है। धोनी की जद्दोजहद को बखूबी उभारा है। कई छोटे-छोटे दृश्य प्रभावी हैं। धोनी के अच्छे इंसान होने के गुण भी इन दृश्यों से सामने आते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म लड़खड़ाने लगती है। धोनी की प्रेम कहानियों से भी नई बातें पता चलती हैं, लेकिन इन्हें जरूरत से ज्यादा फुटेज दिए गए हैं।
दर्शकों की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि ड्रेसिंग रूम के अंदर क्या होता था? धोनी किस तरह से बतौर कप्तान अपनी रणनीति बनाते थे? करोड़ों उम्मीद का तनाव 'कैप्टन कूल' किस तरह झेलते थे? अपने खिलाड़ियों के साथ किस तरह व्यवहार करते थे? उन्हें क्या टिप्स देते थे? सीनियर खिलाड़ियों को कैसे नियंत्रित करते थे? 90 टेस्ट मैचेस खेलने के बाद उन्होंने अचानक ऑस्ट्रेलियाई दौरे के बीच में टेस्ट क्रिकेट को क्यों अलविदा कह दिया? क्या उन पर किसी किस्म का दबाव था?
इन प्रश्नों के जवाब नहीं मिलते हैं। हालांकि ये प्रश्न उन क्रिकेट प्रेमियों के दिमाग में उठते हैं जो क्रिकेट को घोल कर पी गए हैं। आम दर्शक को शायद इनमें ज्यादा रूचि न हो, लेकिन धोनी पर यदि फिल्म बन रही है तो इन बातों का फिल्म में समावेश किया जाना जरूरी लगता है। ये लेखक की कमजोरी को दर्शाता है। शायद नीरज और धोनी फिल्म को लेकर कोई विवाद नहीं चाहते हों। इसी तरह धोनी के भाई नरेंद्र सिंह धोनी के बारे में भी फिल्म में कुछ नहीं बताया गया है।
निर्देशक के रूप में नीरज पांडे का काम उम्दा है। उन्होंने धोनी के स्टार बनने से पहले की कहानी को मनोरंजक तरीके से दिखाया है। नीरज के कहानी कहने का तरीका ऐसा है कि उन लोगों को भी फिल्म अच्छी लगती है जिन्हें खेल में ज्यादा रूचि नहीं है। फिल्म तीन घंटे से भी ज्यादा लंबी है और ज्यादातर समय वे दर्शकों फिल्म से जोड़ने में सफल रहे हैं। बीच-बीच में उन्होंने ऐसे कई दृश्य रखे हैं जो धोनी के फैंस को सीटी और ताली बजाने पर मजबूर कर देते हैं। धोनी के जीवन में परिवार, दोस्त, प्रशिक्षक और रेलवे में काम करने वाले उनके साथियों का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस बात को उन्होंने अच्छे से रेखांकित किया है। रियल लोकेशन पर जाकर उन्होंने शूटिंग की है जिससे फिल्म की प्रामाणिकता बढ़ती है। उन्होंने फिल्म को बायोपिक बनाने के बजाय दर्शकों के मनोरंजन का ज्यादा ध्यान रखा है।
आमतौर पर फिल्मों में खेल वाले दृश्य कमजोर पड़ जाते हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म बेहतरीन है। सुशांत सिंह राजपूत से काफी मेहनत करवाई है और सुशांत एक क्रिकेटर लगते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से कुछ खामियां भी हैं जैसे धोनी को कम उम्र में रिवर्स स्वीप मारते दिखाया गया है। उस समय शायद ही कोई यह शॉट खेलता हो और खुद धोनी भी यह शॉट खेलना पसंद नहीं करते हैं।
अभिनय के मामले में फिल्म लाजवाब है। सुशांत सिंह राजपूत में पहली ही फ्रेम से धोनी दिखाई देने लगते हैं। यदि सुशांत की जगह कोई नामी सितारा होता तो उसे धोनी के रूप में देखना कठिन होता। सुशांत ने अपने चयन को सही ठहराया है और अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। बॉडी लैंग्वेज में उन्होंने धोनी को हूबहू कॉपी किया है। क्रिकेट खेलते वक्त वे एक क्रिकेटर नजर आएं। इमोशनल और ड्रामेटिक सीन में भी उनका अभिनय देखने लायक है।
अनुपम खेर, भूमिका चावला, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, दिशा पटानी, किआरा आडवाणी ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।
महेंद्र सिंह धोनी ने हमें गर्व करने लायक कई अवसर दिए हैं और फिल्म में उन्हें दोबारा जीना बहुत अच्छा लगता है। फिल्म में धोनी के खिलाड़ी जीवन की कुछ बातों का उल्लेख भले ही न हो, लेकिन आधुनिक क्रिकेट के इस 'हीरो' की फिल्म देखी जा सकती है।
निर्माता : अरूण पांडे
निर्देशक : नीरज पांडे
संगीत : रोचक कोहली, अमाल मलिक
कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, किआरा आडवाणी, दिशा पटानी, अनुपम खेर, कुमुद मिश्रा, भूमिका चावला, राजेश शर्मा