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Written By समय ताम्रकर
Last Updated : मंगलवार, 2 दिसंबर 2014 (10:41 IST)

देवेन वर्मा के खट्टे मीठे अंगूर

देवेन वर्मा के खट्टे मीठे अंगूर - Deven Varma
रंगमंच तथा सिनेमा का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कॉमेडी दो धाराओं में समांतर रूप से प्रवाहित होती रही है। कॉमेडी की पहली धारा में चुटीले संवाद और उनके बहुअर्थी होने पर दर्शक अपने अंदाज में मंद-मंद मुस्कुराता है। दूसरी धारा में कलाकार अपनी बॉडी लैंग्वेज के जरिये दर्शकों को हंसाने की कोशिश करता है। यह कलाकार की योग्यता पर निर्भर है कि वह फूहड़ हरकतें करता है या फिर चेहरे की अभिव्यक्ति से संवाद का तालमेल कर हास्य उत्पन्न करता है। हिन्दी सिनेमा हास्य कलाकारों की लम्बी परम्परा तीस के दशक से चली आ रही है- गौरी-दीक्षित, गोप-याकूब, नूर मोहम्मद चार्ली, सुन्दर, मुकरी, जॉनी वाकर, ओमप्रकाश, किशोर कुमार, मेहमूद, असरानी और देवेन वर्मा। देवेन वर्मा ने अपने पूर्ववर्ती कॉमेडियन में से किसी की नकल करने की कोशिश नहीं की। वह अपनी मौलिकता लेकर इस ब्रिगेड में शामिल हुए थे।
 
धर्मपुत्र से एंट्री 
देवेन वर्मा की फिल्म में एंट्री 1961 में बीआर चोपड़ा बैनर की फिल्म धर्मपुत्र से हुई। इसका निर्देशन यश चोपड़ा ने किया था। इस फिल्म में उनका छोटा-सा रोल था, जो अन-नोटिस चला गया। 1964 में आई फिल्म सुहागन में उनके अभिनय पर निर्माताओं की नजरें इनायत हुईं। देवर फिल्म में उनका निगेटिव रोल था, तो दूसरी फिल्म 'मोहब्बत जिंदगी है' में उन्होंने कॉमिक रोल निभाया। दोनों फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाई। यह समय उनके लिए निर्णायक था। कॉमेडी या खलनायकी? उन्होंने कॉमेडी की ओर अपनी दिलचस्पी दिखाई। देवेन वर्मा के अभिनय की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि वे बड़ी आसानी से किरदार को अपने अंदर उतार लेते हैं। वह फिल्म लाइन में सिर्फ अभिनय करने ही नहीं आए थे। उन्हें निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी अतिरिक्ति ऊर्जा को भी दर्शाना था। 
 
फिल्म निर्माण में उलझे 
देवेन वर्मा द्वारा निर्मित-निर्देशित पहली फिल्म नादान 1971 में रिलीज हुई। यह फिल्म फ्लॉप रही। इसकी वजह कथानक का कमजोर होना था, जबकि अभिनय उत्तम था। उन्होंने नवीन निश्चल को फिल्म नादान का नायक बनाया था और खुद एक केमियो रोल में थे। यही नादानी फिल्म पिटने का कारण बनी। देवेन की अगली फिल्म  थी बड़ा कबूतर (१९७३) है। इसमें मामा रामपुरी (अशोक कुमार) और भानजा भोला (देवेन वर्मा) अण्डरवर्ल्ड के डॉन धरमदास के बेटे का अपहरण करने की कोशिश करते हैं। मामा-भानजे का अनुमान था कि डॉन अपने पैसों को ज्यादा महत्व देगा और बेटे की ज्यादा चिंता नहीं करेगा। अपहरण की साजिश नाकामयाब रहती है। अगली फिल्म बेशरम (1978) में अमिताभ बच्चन-शर्मिला स्टार जोड़ी थी। परम्परागत मेलोड्रामा होने से यह फिल्म मार खा गई थी। चटपटी (1983) में स्मिता पाटिल को फोकस कर बनाई गई थी। इस तरह देवेन अपने को निर्माता-निर्देशक बनाने के फेर में उलझ गए। उन्हें बाद में समझ में आया कि अभिनय के सीधे-सपाट रास्ते पर चलो और नाम तथा दाम कमाओ। इसके बाद चरित्र रोल करने की की ओर देवेन बढ़े और बीच-बीच में कॉमेडी भी करते रहे। हालांकि 1989 में उन्होंने मिथुन चक्रवर्ती और पद्मिनी कोल्हापुरे की हिट जोड़ी को लेकर 'दाना पानी' बनाई, लेकिन ये फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाने से दूर रही। 
 
यादगार भूमिकाएं 
फिल्म चोरी मेरा काम (1975) में परवीन भाई पब्लिशर के रूप में वह परदे पर आते हैं। एक किताब के प्रकाशित होते ही सबका ध्यान उनकी ओर आकर्षित होता है। इसी रोल को कुछ साल बाद चोर के घर चोर (1978) फिल्म में और आगे ले जाया गया, जैसा इन दिनों सीक्वेल फिल्मों में किया जा रहा है। उनके करियर की यादगार फिल्में हैं- गोलमाल (1979), अंगूर (1982) तथा रंग बिरंगी (1983)। बासु चटर्जी, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार जैसे संवेदनशील निर्देशकों की फिल्मों में काम करने से देवेन को पुरस्कार भी मिले और प्रतिष्ठा भी। शेक्सपीयर के मशहूर नाटक कॉमेडी ऑफ एरर्स पर भारत में कई फिल्में बनी हैं, जिनमें गुलजार निर्देशित अंगूर सर्वोत्तम मानी जाती है। इन फिल्मों के अलावा भी देवेन वर्मा ने कई फिल्मों में यादगार भूमिकाएं निभाईं और दर्शकों को तनाव मुक्त किया। उन्होंने कॉमेडी करने के लिए अश्लीलता का कभी सहारा नहीं लिया और हमेशा अपने संवाद बोलने के अंदाज और बॉडी लैंग्वेज के जरिये दर्शकों को हंसाया। उनके परदे पर आते ही दर्शक हंसने के लिए तैयार हो जाते थे। 
 
पुणे में जन्म
23 अक्टूबर 1937 को पुणे में जन्मे देवेन वर्मा की शिक्षा वहां के नवरोजजी वाडिया कॉलेज से स्नातक स्तर तक पूरी हुई। 1959 में पढ़ाई समाप्त कर बम्बई आए। फिल्म करियर आरंभ करने में उन्हें ज्यादा परेशान नहीं हुई। दादा मुनि अशोक कुमार की बिटिया रूपा गांगुली से उनका विवाह हुआ था। बीआर फिल्म्स और यशराज फिल्म्स में लगातार उन्हें काम मिला क्योंकि इस बैनर से दादामुनि के अंतरंग सम्बन्ध थे। नब्बे के दशक में उन्होंने अभिनय जारी रखा था। मगर नए कॉमेडियन के आ जाने और हीरो द्वारा ही कॉमेडी करने से उनके जैसे कलाकारों के लिए रोल कम लिखे जाते थे। सन 2003 में वह फिल्म कलकत्ता मेल में आए थे। उन्हें तीन बार फिल्मफेयर अवॉर्ड बेस्ट कॉमेडियन मिल चुके हैं। फिल्में हैं- चोरी मेरा काम, चोर के घर चोर और अंगूर। उन्होंने अपने अंतिम दिन पढ़ने-लिखने और संगीत सुनने में गुजारे क्योंकि उनका मानना था कि वर्तमान की फिल्मों में अंगूर खट्टे हो गए हैं।2  दिसम्बर 2014 में पुणे में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।  
 
प्रमुख फिल्में 
अनुपमा (1966), खामोशी (1970), गुड्डी (1971), बुड्ढा मिल गया (1971), मेरे अपने (1971), अन्नदाता (1972), धुंध (1973), कोरा कागज (1974), चोरी मेरा काम (1975), कभी कभी (1976), चोर के घर चोर (1978), गोलमाल (1979), लोक परलोक (1979), सौ दिन सास के (1980), जुदाई (1980), कुदरत (1981), ले‍डिस टेलर (1981), सिलसिला (1981), अंगूर (1982), रंग बिरंग (1983), झूठी (1986), चमत्कार (1992), क्या कहना (2000)