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Written By अनिल जैन
Last Modified: रविवार, 8 नवंबर 2015 (18:47 IST)

क्या मोदी और शाह इसे अपनी हार मानेंगे?

क्या मोदी और शाह इसे अपनी हार मानेंगे? - Bihar election analysis
बिहार में चुनाव पूर्व और चुनाव बाद हुए तमाम मीडिया सर्वेक्षणों और राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुमानों को धता बताते हुए राज्य की जनता ने जो फैसला सुनाया है उसकी गूंज लंबे समय तक भाजपा और उसके सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी के कानों में गूंजती रहेगी।
 
मई 2014 में हुए लोकसभा चुनाव और उसके कुछ समय बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड के विधानसभा चुनाव में अपनी अनसोची और अभूतपूर्व जीत के बाद भाजपा यह मानने लगी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में अब देश के किसी भी कोने में उसे कोई नहीं रोक पाएगा। मीडिया में भी यह जुमला चल पड़ा था कि नरेंद्र मोदी के 'अश्वमेध का घोड़ा’ चल पड़ा है और वे जीत का नया व्याकरण रचने जा रहे हैं। लेकिन इस कथित अश्वमेध के घोड़े को पिछले नौ महीने में दूसरी बार रोक दिया गया। पहले दिल्ली में और अब बिहार में।
 
इसी साल फरवरी में दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा को धूल चटाई थी, जहां उसे 70 में से महज तीन सीटें नसीब हुई थीं। अब बिहार में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के साथ मिलकर भाजपा को न सिर्फ सत्ता में मे आने से रोक दिया बल्कि उसे बेहद कड़वी पराजय का स्वाद भी चखाया। जाहिर है कि अश्वमेध के घोड़े वाला जुमला अब नहीं उछाला जा सकेगा। कम से कम पश्चिम बंगाल, पंजाब और उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में तो हरगिज नहीं। 
 
दरअसल, बिहार में भाजपा की हार एक तरह से उसके गुजरात मूल के 'महाराजाधिराज’ नरेंद्र मोदी और उनके सेनापति अमित शाह की हार है। क्योंकि इस चुनाव में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह अपने आपको करो या मरो शैली में झोंक दिया था वह अभूतपूर्व था। उन्होंने एक तरह से बिहार में अपनी प्रतिष्ठा को ही दांव पर लगा दिया था। वे सरकार का सारा काम-धाम छोडकर जमीन-आसमान एक करते हुए एक दिन में तीन-तीन, चार-चार रैलियां कर रहे थे। 
 
अमित शाह पटना में डेरा डाले पूरे चुनावी अभियान के सूत्रधार बने हुए थे और कोई 20 कैबिनेट मंत्रियों और अपने मुख्यमंत्रियों के साथ भाजपा ने लगभग 900 रैलियां की थीं। लेकिन लगता नहीं कि मोदी और शाह इस शर्मनाक हार की जिम्मेदारी स्वीकार करेंगे। क्योंकि ऐसा भारतीय राजनीति में कम ही होता है। अलबत्ता ताजा उदाहरण नीतीश कुमार का जरूर है जब लोकसभा की हार के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री का पद छोड दिया था।
 
भाजपा के तमाम नेता चुनाव नतीजे आने के पहले तक अपनी पार्टी की जीत के दावे जरूर कर रहे थे, लेकिन उसके शीर्ष नेताओं ने चुनाव के दौरान ही जमीनी हकीकत समझने के बाद सफाई देना शुरू कर दिया था कि इस चुनाव के नतीजे को केन्द्र सरकार के कामकाज पर जनमत संग्रह के रूप में न देखा जाए। यह वही वाक्य है जिसे लोग कांग्रेस की ओर से सुनते आए हैं।
 
कांग्रेसी नेता जब भी ऐसा कहा करते थे, तो जवाब में भाजपा कहती थी कि यह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की हार है। अगर बिहार में भाजपा जीत जाती तो निश्चित उसे मोदी के करिश्मे और अमित शाह के तथाकथित माइक्रो मैनेजमेंट की जीत बताया जाता।
 
अब विश्लेषण होगा कि भाजपा की हार की वजह आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण वाला बयान है, बीफ को लेकर दादरी में की गई हत्या और इस पर भाजपा की प्रतिक्रिया मुद्दा है, असहिष्णुता के मसले पर बुद्धिजीवियों का प्रतिरोध है या फिर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों की नाकामी?
 
लेकिन इसी समय यह विश्लेषण भी जरूरी है कि नरेंद्र मोदी की रणनीति क्यों विफल हुई? पहला यह कि उन्होंने नीतीश कुमार के कामकाज और उनके कार्यकाल मे हुए विकास के आकलन में गलती की। इससे हुआ यह कि उन्होंने एक वास्तविक विकास की तुलना अपने विकास के नारों और जुमलों से कर ली। 
नीतीश का विकास तो लोगों ने देख लिया है लेकिन मोदी का विकास अभी धरातल पर किसी ने नहीं देखा है। अपनी लगभग हर सभा में प्रधानमंत्री ने बिजली का सवाल उठाया और नीतीश को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की, जबकि नीतीश कुमार के धुर विरोधी भी मानते हैं कि बिजली और सड़क के मामले में बिहार काफी आगे बढ़ चुका है। 
 
दूसरा यह कि मोदी भूल गए कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में जनता से क्या वादे किए थे। बिहार के चुनाव में मोदी ने उनमे से किसी का जिक्र नही किया। जातिगत ध्रुवीकरण में महागठबंधन के नेताओं को मात देने के लिए उन्होंने कहीं अपने को पिछड़ा बताया तो कहीं अति पिछड़ा और कहीं वे अपने को दलित मां का बेटा बताने से भी नहीं चूके। आरक्षण, बीफ समेत तमाम मसलों पर उनका हर बयान सबको बांटने वाला दिखा। और यह महज संयोग नही कि भाजपा की ओर से आ रहे विज्ञापनों में भी यही दिख रहा था।
 
तीसरा यह कि मोदी और उनके सभी सिपहसालार भूल कर बैठे कि वे बिहार में गुजरात या उत्तर प्रदेश की तरह मतों का ध्रुवीकरण नहीं कर सकते हैं। मुसलमानों को आरक्षण के सवाल पर तो प्रधानमंत्री ने हद ही कर दी। उन्होंने वह किया, जिसकी अपेक्षा किसी प्रधानमंत्री से नहीं की जा सकती। बक्सर की रैली में उनके भाषण से ऐसा लगा जैसे वे मुसलमानों के खिलाफ हिदुओं का आह्वान कर रहे हों। वे शायद समझ नहीं पाए कि जाति बिहार की सच्चाई है और वहां यह धर्म से ज्यादा बड़ा 'फैक्टर' है। बिहार के परिणामों ने दिखा दिया कि मुसलमानों का नाम लेकर हिदुओं का ध्रुवीकरण करने कोशिशें वहां सफल नहीं हो सकती।
 
चौथा यह कि जिस समय देश में लेखक, कलाकार, फिल्मकार और दूसरे बुद्धिजीवी देश में राजनीतिक असहिष्णुता की बात कर रहे थे उस समय नरेंद्र मोदी के बयानबहादुरों को यह समझ में नहीं आया कि इस पर कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। साफ दिखता है कि उनके बयानों ने उल्टा असर डाला है। बहुत से राजनीतिक समीक्षक अब मान रहे हैं कि भाजपा की राजनीति अब बदलेगी, उसके नेताओं का अहंकार टूटेगा, उनकी बदजुबानी पर लगाम लगेगी और प्रधानमंत्री अब चुनावी मोड़ से बाहर आकर वाकई कुछ काम करेंगे, लेकिन समय ही बताएगा कि ऐसा हो पाएगा या नहीं।