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Last Modified: बुधवार, 14 जून 2017 (12:33 IST)

ब्लॉग: मोदी भाजपा के महानायक, अतीत के नायक कहां से आएं?

ब्लॉग: मोदी भाजपा के महानायक, अतीत के नायक कहां से आएं? - Narendra Modi
- राजेश प्रियदर्शी (डिजिटल एडिटर)
फ़िलहाल संघ के अतीत के नायक दीन दयाल उपाध्याय हैं। फ़िलहाल इसलिए कि उनसे पहले कई और पुरखों पर ये ज़िम्मेदारी डालने की कोशिश हुई है। अभी भाजपा के पास नायक नहीं, बल्कि महानायक मोदी हैं। मगर संघ के लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है कि कैसे अपने अतीत को 'गौरवशाली' साबित किया जाए।

ऐसी अमर विभूतियों की लंबी सूची है जिन्हें भाजपा ने इसके लिए आज़माया, मगर हर बार यही साबित हुआ कि इनमें से कोई भी हिंदू राष्ट्रवाद का नायक नहीं हो सकता।
 
और जो हिदू राष्ट्र के गौरवशाली अतीत के नायक हो सकते हैं, जनता उन्हें मानती नहीं, इसकी सिर्फ़ एक ही वजह है कि स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान उन्होंने बताने लायक कुछ नहीं किया। कई चीज़ें छिपाने लायक ज़रूर रहीं, जैसे सावरकर के माफ़ीनामे, हालांकि अपने जीवन के पहले हिस्से में सावरकर ने कई क्रांतिकारी काम किए थे।
 
गांधी हत्याकांड
एक दशक से अधिक समय जेल में गुज़ारने वाले सावरकर ने ब्रिटेन में भारतीय देशभक्तों को संगठित करने में बड़ी भूमिका निभाई थी, काला-पानी में बेहद कठिन समय गुज़ारने के कारण उनका अतिरिक्त सम्मान है। लेकिन हिंदुत्व के अलावा दो बातें हैं जो उन्हें सर्वमान्य नायक नहीं रहने देतीं। पहला, वे माफ़ीनामा देकर 1923-24 में जेल से छूटे और उसके बाद से आज़ादी तक उन्होंने अंगरेज़ी शासन के विरुद्ध कुछ नहीं किया।
दूसरा, वे गांधी हत्याकांड की साज़िश के मुख्य अभियुक्त थे, हत्या से ठीक पहले गोडसे ने उनसे मिलकर 'आशीर्वाद' लिया था, हालांकि ठोस सबूत के अभाव में उन्हें अदालत ने बरी कर दिया था। संघ के लिए वीर सावरकर और गांधी के बीच एक को चुनने की कश्मकश बहुत पुरानी है, जहां दिल सावरकर के साथ है, लेकिन दिमाग़ बताता है कि गांधी के ख़िलाफ़ नहीं जाया सकता, 'चतुर बनिया' प्रकरण ने एक बार फिर यही साबित किया है।
 
नेहरू से बड़े नेता : नेहरू को लेकर संघ का आधिकारिक रवैया ऐसा है जैसे वे कभी थे ही नहीं और भाजपा जताती है कि गांधी का सबसे बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने सफ़ाई पर ज़ोर दिया था, लेकिन उनका मिशन अधूरा रह गया था जिसे स्वच्छता अभियान के तहत अब पूरा किया जा रहा है। हरियाणा सरकार के वरिष्ठ मंत्री अनिल विज कह ही चुके हैं कि खादी के मामले में मोदी जी गांधी से कहीं बड़े ब्रांड हैं।
 
सरदार पटेल से भी ये काम निकालने की कोशिश की गई, माना गया कि पटेल को नेहरू के मुक़ाबले खड़ा और बड़ा किया जा सकता है। किस्सागोई की गुंजाइश थी कि उन्हें पीएम न बनाना अन्याय था, देश का एकीकरण करने की वजह से वे नेहरू से बड़े नेता थे, नेहरू नरम थे, पटेल कड़क थे वग़ैरह। तभी लोगों ने याद दिलाया कि पटेल ने ही तो गृह मंत्री के तौर पर गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया था, पटेल की लिखी चिट्ठियां और दस्तावेज़ मौजूद हैं जिनमें संघ की भूमिका को लेकर उनके विचार दर्ज हैं। पटेल ने लिखा कि था संघ ने देश में जैसा माहौल बनाया उसी की वजह से गांधी की हत्या हुई, उन्होंने ये भी दर्ज किया कि संघ के लोगों ने गांधी का हत्या के बाद ख़ुशियां मनाईं और मिठाइयां बांटीं।
 
हिंदू राष्ट्र के गौरवशाली नायक
पटेल की मूर्ति बनाने के लिए उसी तरह घर-घर से लोहा जमा किया जाना था जैसे राम जन्मभूमि मंदिर के लिए ईंटे जुटाई गई थीं, बाद में पता चला कि ये काम एक चीनी कंपनी को सौंप दिया गया है, गुजरात में पटेलों के आंदोलन के बाद से सरदार पटेल का नाम सुनाई देना बंद-सा हो गया है। बिहार में चुनाव से पहले कवि रामाधारी सिंह दिनकर याद आए थे, बंगाल के चुनाव से पहले श्यामा प्रसाद मुखर्जी याद आने लगे हैं, रायपुर जाकर गुरू घासीदास याद आ जाते हैं, लेकिन ये फ़ौरी सियासी ज़रूरत को पूरा करने के काम आते हैं, हिंदू राष्ट्र के गौरवशाली नायक की तलाश अधूरी रह जाती है।
 
2016 में आंबेडकर की 125वीं जयंती पूरे हिंदू धार्मिक हर्षोल्लास के साथ मनाई गई जिसका दोहरा उद्देश्य था, कांग्रेस के पॉलिटिकल फ़िक्स्ड डिपॉज़िट गांधी-नेहरू के ख़िलाफ़ खड़े होने वाले नायक को अपनाना और मायावती-पासवान-आठवले जैसे नेताओं को धकियाकर उनकी सियासी ज़मीन हासिल करना। यहां भी लोगों ने याद दिलाया कि आंबेडकर तो हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध हो गए थे, वेद, पुराण और मनु स्मृति उनकी नज़र में गंभीर समस्याएं थीं, हिंदू ग्रंथों के हवाले से आंबेडकर बता रहे थे कि हिंदू गोमांस खाया करते थे किसी ज़माने में।
नेताजी फ़ाइल्स
और फिर दलित भी भाजपा के इस नव-आंबेडकरवादी रवैए पर पूरा विश्वास नहीं कर पा रहे थे, दलितों के बीच आंबेडकर के नाम पर हवन-पूजन करने की कुछ कोशिशों के अलावा उन्हें अपने 'गौरवशाली अतीत' का नायक बनाने की कोशिश अब ठंड़ी हो चुकी है। इसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस से बहुत उम्मीदें थीं, बोस के ड्राइवर के पैर छूकर मोदी पीएम बनने से पहले बनारस में उनका आशीर्वाद ले चुके थे, मगर लोग बताने लगे कि नेताजी की आज़ाद हिंद फ़ौज कितनी सेकुलर थी, और तो और उसमें गांधी और नेहरू के नाम की ब्रिगेड थी।
 
ये भी आशा थी कि नेताजी फ़ाइल्स में कुछ निकल आएगा जो बोस को बीजेपी और संघ का नायक भले न बनाए, नेहरू को खलनायक ज़रूर बना देगा, मगर ऐसा भी नहीं हुआ, यही पता चला कि बोस के लापता होने के बाद से उनकी बेटी लगातार नेहरू की मेहमान बनती रहीं और उन्हें मदद मिलती रही। ये संघ और बीजेपी की मासूमियत थी या जनता के भोलेपन का पक्का भरोसा, कहना मुश्किल है। भगत सिंह को भी ज़ोर-शोर से आज़माया गया, उन्हें हैट की जगह केसरिया पगड़ी पहनाई गई, लेकिन लोग कहने लगे वो तो कम्युनिस्ट थे, उन्होंने तो यही लिख दिया था कि 'मैं नास्तिक क्यों हूं' फिर वो हिंदू राष्ट्र के नायक कैसे होंगे?
 
भगत सिंह के नाम पर
दिल में भगत सिंह का कितना सम्मान रहा होगा, पता नहीं, एयरपोर्ट का नाम रखने के विवाद में हरियाणा के उप-मुख्यमंत्री रहे, संघ के समर्पित कार्यकर्ता मंगल सैण जो अब तक गुमनाम रहे थे, भगत सिंह के बराबर खड़े हो गए। चंडीगढ़ में बड़ा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाने की बात आई तो पंजाब सराकर ने इसका नाम भगत सिंह के नाम पर रखने का प्रस्ताव पारित किया, लेकिन मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व वाली सरकार ने इसके लिए मंगल सैण का नाम केंद्र को भेजा।
 
स्वामी विवेकानंद भी ख़ास काम नहीं आए, लोग बताने लगे कि वो तो कहते हैं कि 'गीता पढ़ने से अच्छा फुटबॉल खेलना है' और उन्होंने गोमांस खाने को ग़लत नहीं माना और बताया कि प्राचीन भारत में इसकी परम्परा थी। बंगाल की राजनीति गर्मा रही है तो इस बार नेताजी से ज़्यादा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बात हो रही है जिन्हें नेहरू ने मतभेदों के बावजूद अपनी कैबिनेट में जगह दी थी।
 
कश्मीर समस्या
मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय जैसी शख़्सियतों की तरफ़ लौटना ये दिखाता है कि भाजपा समझ चुकी है कि दूसरे बड़े नेता जो हिंदुत्ववादी नहीं हैं उन्हें अपनाना संभव नहीं हो सकेगा क्योंकि वे संघ के हिंदू राष्ट्रवादी मॉडल के ख़िलाफ़ ही रहे हैं। भाजपा और संघ के एक बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी थे, मगर उन्होंने राजधर्म के निर्वाह की सीख देकर, कश्मीर समस्या को मानवता के दायरे में हल करने की बात करके और मध्यमार्ग की राजनीति करके नायक का दर्जा खो दिया। वाजपेयी ने मार्गदर्शक मंडल में अपनी सीट पक्की कर ली थी लेकिन सेहत की वजह से उन्हें वहां नहीं रखा गया।
अब बात गौरवशाली अतीत के मौजूदा नायक, दीनदयाल उपाध्याय की। वे जनसंघ के प्रणेता थे जो आगे चलकर बीजेपी बनी, वे उसके अध्यक्ष रहे, उन्हें कर्मठ, ईमानदार और कुशल संगठनकर्ता माना जाता है। उन्होंने एकात्म मानववाद का दर्शन दिया था जिसका मूल उद्देश्य राजनीतिक जीवन में सनातन संस्कृति की महत्ता स्थापित करना है। गूगल करें, संघ और उससे जुड़ी संस्थाओं की साइटों पर 'देदीप्यमान व्यक्तित्व', 'राष्ट्रचेतना के पुरोधा', 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रवर्तक', 'सनानत धर्म को आधुनिक राजनीति के केंद्र में लाने वाले महान दार्शनिक' जैसे कई चमकदार वाक्य मिल जाएंगे।
 
कौन सा आंदोलन?
लेकिन कोई भी पूछ सकता है, समझ में नहीं आया, ये तो बताइए कि इन्होंने किया क्या था? कौन सा आंदोलन चलाया, कैसा नेतृत्व दिया कि राष्ट्रनायक माना जाए? 1916 में जन्मे दीनदयाल जी के आज़ादी के आंदोलन में शामिल होने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यही सवाल पूछने की ग़लती छत्तीसगढ़ के एक आईएएस अधिकारी ने की थी जिन्हें जवाब की जगह, कारण बताओ नोटिस झेलना पड़ा।
 
उसी छत्तीसगढ़ में दीनदयाल उपाध्याय को गौरवशाली अतीत का महान नायक बनाने के लिए उनकी जीवनी और उनके लेखन के ग्रंथ सरकार ख़रीदकर बांट रही है, इस तरह पहले न तो गीता बांटी गई, न गांधी के 'सत्य के प्रयोग।' 
 
अब अंत में दो सवाल- क्या दीनदयाल उपाध्याय गौरवशाली हिंदू राष्ट्र के अतीत के नायक बन जाएंगे? इसका जवाब तो आगे चलकर मिलेगा। लेकिन उससे भी ज़रूरी सवाल- इस तरह की कोशिशें जब-जब होती हैं तब संघ के दोनों शीर्ष नेताओं गुरू गोलवलकर और हेडगेवार जी का नाम कभी क्यों नहीं आता? इसका उत्तर आप खोजिए, क्या वे हिंदू राष्ट्र के गौरवशाली अतीत के नायक होने के लायक नहीं हैं?
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