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Last Modified: गुरुवार, 25 मई 2017 (14:00 IST)

मोदी के तीन सालः दौरे बढ़े, पर नीति वही

मोदी के तीन सालः दौरे बढ़े, पर नीति वही - Narendra Modi
- ज़ुबैर अहमद (दिल्ली)
बीबीसी ने अपने पाठकों से पूछा था कि मोदी सरकार के तीन साल पर किन पहलुओं पर वो ज्यादा कवरेज चाहेंगे। कई लोगों ने इसमें विदेश नीति का ज़िक्र किया था। ये रिपोर्ट उन्हीं सवालों के जवाब तलाशते हुए तैयार की गई है।
 
अगर विश्व के बड़े नेताओं के बीच विदेश यात्राओं का कोई मुक़ाबला हो तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे बड़ी आसानी से जीत लेंगे। उन्हें सत्ता में आए तीन साल हो रहे हैं। इस दौरान उन्होंने 45 देशों का 57 बार दौरा किया है। इसमें शक नहीं कि वे जो जोशीले हैं और पूरी रफ़्तार से आगे बढ़ते हैं।
 
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में भारत-चीन रिश्तों के विशेषज्ञ स्वर्ण सिंह कहते हैं, "जो रफ़्तार है काम करने का प्रधानमंत्री मोदी का वो पहले के सभी प्रधानमंत्रियों से अलग है। उनकी विदेश यात्राओं का जो सिलसिला है, उनकी जो फ्रीक्वेंसी है, लोगों से मिलने की कोशिश है और उनसे सीधे बात करने का जो तरीक़ा है वो रफ़्तार को बढ़ाता है।"
 
लेकिन क्या ये सोच को भी बदलता है? क्या रफ़्तार बढ़ने से भारत की विदेश नीति बदली है, शक्तिशाली हुई है? क्या इसने भारत के प्रोफाइल को दुनिया भर में बढ़ाया है? क्या देश की छवि बेहतर हुई है? क्या विदेशी निवेश बढ़ा है?
तीन साल बाद इन सवालों को मोदी सरकार के सामने रखना वाजिब है लेकिन अफ़सोस कि विदेश मंत्रालय ने हमें इन सवालों को, कई बार गुज़ारिश के बाद भी, पूछने का मौक़ा नहीं दिया।
 
कांग्रेस पार्टी के नेता मणिशंकर अय्यर के अनुसार नरेंद्र मोदी की यात्राओं से कुछ हासिल नहीं हुआ है। "ये सब बस ड्रामेबाज़ी है। वो खुद को दिखाना चाहते हैं हर जगह। दुनिया भर में घूमते हैं, और क्या होता है? उन्हीं के समर्थक पहुँच जाते हैं और मोदी, मोदी कहते रहते हैं"। वो आगे पूछते हैं, "ये मोदी, मोदी कहलवाना ये कोई विदेश नीति है?"
 
प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह के विचार में प्रधानमंत्री की इन विदेश यात्राओं का ठोस नतीजा ढूंढना मुनासिब नहीं। वे कहते हैं, "इन दौरों के नतीजे मूर्त और अमूर्त दोनों हैं। कुछ फायदे आगे चल कर भी नज़र आ सकते हैं। अभी जो नज़र आता है वो ये कि विदेश में भारत का क़द ऊंचा हुआ है।"
 
प्रधानमंत्री के लगातार विदेशी दौरों पर एक नज़र डालें तो एक पैटर्न, एक सोच उभर कर आती है। नेपाल, भूटान, श्रीलंका और यहाँ तक कि पाकिस्तान के कुछ घंटों के दौरों के पीछे साफ़ मक़सद था पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध मज़बूत करना। इन तमाम देशों के साथ चीन क़रीब होता जा रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री ने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि चीन के इन देशों के सम्बन्ध केवल व्यापारिक हैं जबकि भारत के साथ सदियों से चला आ रहा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्ता है जो अधिक महत्वपूर्ण है।
 
पड़ोसी देशों के अलावा प्रधानमंत्री ने अमरीका पर विशेष ध्यान दिया जहाँ वो अब तक चार बार जा चुके हैं और पांचवीं यात्रा तय है। स्वर्ण सिंह कहते हैं कि भारत पिछले 15 सालों में अमरीका के बहुत क़रीब आया है। इसे और आगे बढ़ाने और मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट्स में निवेश के लिए प्रधानमंत्री ने अमरीका से रिश्ते और भी मज़बूत किए हैं
 
प्रधानमंत्री की तीसरी अहम विदेश यात्रा सऊदी अरब और खाड़ी देशों की रही जिनसे भारत के व्यपारिक रिश्ते चीन और अमरीका की तरह बहुत मज़बूत हैं। इन देशों के पास निवेश के लिए अरबों डॉलर हैं। इनके पास कच्चा तेल भी है। प्रधानमंत्री की कोशिश है ये देश पैसे भारत में निवेश करें। इस तरफ कई समझौते भी हुए हैं।
 
इसी तरह से यूरोप और अफ्रीका के देशों की यात्राएं भी व्यापारिक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही हैं। पूर्व राजनयिक राजीव डोगरा कहते हैं कि प्रधानमंत्री की विदेश पॉलिसी में एक नया जोश और एक नया डायरेक्शन आया है। स्वर्ण सिंह कहते हैं प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं से भारत की विजिबिलिटी बढ़ी है। कुछ लोग कहते हैं कि मोदी सरकार ने देश की साख को बेहतर किया है।
 
भारत-चीन व्यापार और रक्षा क्षेत्र में संबंधों के विशेषज्ञ अतुल भारद्वाज नरेंद्र मोदी की विदेश नीति में स्थिरता लाने को एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं। हालांकि इसके बिलकुल विपरीत कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि पाकिस्तान और चीन के साथ नरेंद्र मोदी ने अब तक होश से अधिक जोश से काम लिया है जिससे उनकी नीति में अस्थिरता आयी है मगर अतुल भारद्वाज के अनुसार नरेंद्र मोदी की विदेश यात्रायें रंग लाई हैं। कई देशों के साथ रिश्ते मज़बूत और स्थिर हुए हैं।
 
राजीव डोगरा कहते हैं कि भारत का संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट का सपना पूरा होगा। "एक वक़्त आता है, एक ज़रुरत होती है तब बदलाव आता है और तब ऑटोमेटिकली भारत सुरक्षा परिषद् का मेंबर बनेगा, इसके लिए हमें चिंता करने की ज़रुरत नहीं है।"
 
भारत संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में सब से बड़ा योगदान देने वाले देशों में से एक है लेकिन सीरिया, लीबिया और इराक जैसे गंभीर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भारत न तो स्पष्ट रूप से अपनी राय देता है और न कोई इसकी राय जानना चाहता है। तो भारत एक वर्ल्ड पावर कैसे बने?
 
कुछ विशेषज्ञ अब इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत को रक्षा के मैदान में विश्व शक्ति बनने के बजाये सॉफ्ट पावर के क्षेत्र में वर्ल्ड लीडर बनने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। राजीव डोगरा कहते हैं, ये संभव है। "भारत पारम्परिक रूप से योग और बॉलीवुड इत्यादि जैसे सॉफ्ट पावर के लिए जाना जाता है।" ये एक नई सोच है। मोदी सरकार ने पिछले साल से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस शुरू किया है।
 
अफ्रीका में चीन ने भारत से कहीं अधिक निवेश कर रखा है लेकिन भारत के प्रति गुडविल और अच्छी भावना चीन से कहीं अधिक है। विश्व भर में भारत की साख चीन से बहुत बेहतर है। उधर भारत के पास बॉलीवुड है, वर्ल्ड क्लास वैज्ञानिक हैं और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी क्षेत्र में विशेषज्ञता है।
 
स्वर्ण सिंह कहते हैं इस क्षेत्र में भारत एक बड़ी शक्ति बन सकता है। कई विशेषज्ञ ये सोचते हैं कि सॉफ्ट पावर के हिसाब से भारत महानता के मुहाने पर खड़ा है। मोदी सरकार इस तरफ कुछ क़दम भी उठा रही है लेकिन इसे अच्छी तरह से कोरियोग्राफ करने की ज़रुरत है और यही भारत की एक बड़ी कमज़ोरी है।
 
मणिशंकर अय्यर कहते हैं कि भारत एक महान देश है इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए, उनके अनुसार मोदी सरकार आत्मविश्वास दिखाने से हिचकिचाती है जिसके कारण उसकी साख पर फ़र्क़ पड़ता है। विदेश नीतियां आम तौर से सत्ता में पार्टियों और सरकारों के बदलने से प्रभावित नहीं होती हैं। स्वर्ण सिंह कहते हैं कि मोदी सरकार की विदेश नीति पिछली सरकारों से बहुत अलग नहीं है। हाँ नरेंद्र मोदी ने इसमें रफ़्तार और जोश डाल दिया है।