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Last Modified: शनिवार, 4 जून 2016 (11:26 IST)

सेब सबसे पहले धरती पर कहां उगे?

सेब सबसे पहले धरती पर कहां उगे? - kazakhstan treasure apples
- क्रिस बारानियूक (बीबीसी फ्यूचर)
क्या आपको पता है कि सेब सबसे पहले धरती पर कहां उगे? नहीं मालूम? हम आपको बताते हैं और बताते हैं सेब की कहानी। वैज्ञानिक मानते हैं कि सेब सबसे पहले मध्य एशियाई देश कज़ाख़िस्तान में पैदा हुए थे। यहीं से ये बाकी दुनिया तक पहुंचे। कज़ाख़िस्तान की पहाड़ियों में जन्मा था सेब का पहला पेड़। इसी जंगली सेब से आज दुनिया भर में सेब की सैकड़ों नस्लें फल-फूल रही हैं।
साल 2013 में पूरी दुनिया मे आठ करोड़ टन सेब पैदा हुआ था। इसमें से भी आधा तो केवल चीन में पैदा किया गया। अकेले अमेरिका में सेब का कारोबार क़रीब चार अरब डॉलर का माना जाता है। दुनिया भर में सेब की सैकड़ों नस्लें हैं। सबकी अपनी अपनी पसंद हैं। किसी को खट्टी-मीठी ग्रैनी स्मिथ नाम की वैराइटी अच्छी लगती है। तो, किसी को बेहद मीठे सेब रेड डेलिशस।
 
यूं तो आज दुनिया के तमाम देशों में सेब उगाए जाते हैं। जैसे भारत में ही कश्मीर और हिमाचल में सेब की कई नस्लें पैदा की जाती हैं। मगर वैज्ञानिक मानते हैं कि कज़ाख़िस्तान के पहाड़ी इलाकों में अभी भी सेब की कई नस्लें ऐसी हैं जो बाक़ी दुनिया को नहीं मालूम। इनकी खूबियां तलाशने के लिए अमेरिकी वैज्ञानिक फिल फोर्सलाइन 1993 में कज़ाख़िस्तान गए थे। फिल अपने तजुर्बे से बताते हैं कि कज़ाख़िस्तान के जंगली सेबों में कई ऐसी खूबियां हैं जिनकी मदद से सेबों की नई नस्लें विकसित की जा सकती हैं।
 
सेब की पहली नस्ल 'मालस सिएवर्सी' मानी जाती है। ये प्रजाति आज भी कज़ाख़िस्तान के जंगलों में उगती है। जंगलों में इन सेबों के किसान होते हैं जंगली भालू। जो सेब कुतरकर इसके बीज यहां-वहां बिखेर देते हैं।
 
अमेरिकी बागवानी एक्सपर्ट फिल फोर्सलाइन ने 1993 से 1996 के बीच कई बार कज़ाख़िस्तान का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने स्थानीय वैज्ञानिक ऐमसक ज़ांगालिएव की मदद से जंगली सेबों की कई नस्लों के बीज इकट्ठे कर लिए। वो हर बार जंगल में जाते थे। सेब तोड़कर उसे चखते थे। उसका रंग, उसका स्वाद और दूसरी ख़ूबी नोट करते थे। साथ ही वो जहां मिला, उस ठिकाने का सही-सही पता दर्ज करते थे। फोर्सलाइन उन दिनों को याद करते हैं। वो कहते हैं कि जैसे वो आदम के बाग़ीचे में जा पहुंचे थे। जहां बेरी के आकार से लेकर बड़े-बड़े सेबों तक कई वेराइटी देखने को मिलीं।
 
कुछ खट्टे और कुछ मीठे सेब मिले। कई ऐसे भी मिले, जिनकी बाक़ी दुनिया में भारी डिमांड हो सकती है। किसी का स्वाद बादाम जैसा था तो किसी का शहद जैसा। कुछ कड़वे, कसैले सेब भी मिले। तो कई सेब बेर जैसे स्वाद वाले भी मिले।
 
असल में कज़ाख़िस्तान के जंगलों में मधुमक्खियां, एक पेड़ के बीज दूसरे से मिला देती हैं। इस क़ुदरती मेल-जोल से जंगलों में सेब की सैकड़ों नई नस्लों के पेड़ पैदा हो गए। अब किसी सेब की ख़ूबी, बाग़ों में पैदा किए जा रहे सेबों से मिलानी हो, तो उनके बीच क्रॉस ब्रीडिंग करानी होगी।
फिल फोर्सलाइन और उनकी टीम ने तीन बार के कज़ाख़िस्तान दौरे में सेब के क़रीब एक लाख तीस हज़ार बीज जमा किए। इन्हें आज जेनेवा और न्यूयॉर्क के जीन बैंक में रखा गया है।
 
वैसे सेब की नई नस्लों की तलाश में कज़ाख़िस्तान जाने वाले अमरीकी वैज्ञानिक फिल फोर्सलाइन अकेले नहीं। ब्रिटेन में सेबों की खेती करने वाले जॉन सेलबर्न भी कई बार वहां जा चुके हैं। सेलबर्न कहते हैं कि वहां का नज़ारा अद्भुत है। सेब की हज़ारों नस्लें वहां हैं। एक दूसरे में इस क़दर घुली-मिली की उन्हें अलग करना मुश्किल है। सेलबर्न ने जिन सेबों को चखा, उनमें से कुछ का स्वाद तो बहुत ही ख़राब था। लेकिन, कुछ बेहद लज़ीज़ भी थे।
 
सेलबर्न ने ये भी पाया कि वहां सेब के कुछ पेड़, आम तौर पर होने वाली बीमारियों से आज़ाद थे। कुछ नस्लें बेहद सूखे माहौल में फल-फूल रही थीं। जबकि सेब को काफ़ी पानी चाहिए होता है। अब इन जंगली सेबों की ख़ूबियों को अगर बाक़ी सेबों में मिला दिया जाए। तो, बीमारियों से मुक्त और कम पानी में पैदा होने वाले सेब के पेड़ तैयार किए जा सकते हैं।
 
अमेरिका की मिनेसोटा यूनिवर्सिटी के जिम लूबी ने हनीक्रिस्प नाम की सेब की नस्ल विकसित की है। ये आम सेब के मुक़ाबले दोगुना महंगा है। ये काफ़ी बड़ा और बहुत रसीला होता है। हनीक्रिस्प, 2014 में अमरीका के तीन सबसे ज़्यादा बिकने वाले सेबों में से एक था।
 
लूबी कहते हैं कि कज़ाख़िस्तान के जंगली सेबों की कई ख़ूबियों को बाक़ी दुनिया के वैज्ञानिक, सेब की अलग-अलग प्रजातियों में शामिल करने की कोशिश कर रहे हैं। हर बसंत के मौसम में वो कज़ाख़िस्तान से लाए बीजों से अपने सेबों के फूलों का मेल कराते हैं। सेब की ब्रीडिंग में जंगलों में जो काम मधुमक्खियां करती हैं। वही काम अपने बाग़ों में जिम लूबी या जॉन सेलबर्न करते हैं।
 
ऐसा करने के बाद फूलों को बंद कर दिया जाता है। ताकि मधुमक्खियां उनमें नए परागकण न डाल दें। वरना सारे किए कराए पर पानी फिर जाएगा। इन फूलों से पैदा हुए फलों से बीज कुछ महीनों बाद जमा किए जा सकते हैं। फिर इन बीजों से नए पेड़ तैयार किए जाते हैं। इसमें कई साल लग जाते हैं। फिर उन पेड़ों पर आए फलों को चखकर पता लगाया जाता है कि जिन ख़ूबियों की तलाश है, वो इनमें आई कि नहीं। जो लोग ये काम कारोबार के लिए करते हैं, उन्हें इसमें काफ़ी पैसा लगाना पड़ता है। एक एकड़ में नई फसल तैयार करने में तीस हज़ार डॉलर तक खर्च हो जाते हैं।
 
वैज्ञानिकों ने अब तक सेब की तमाम ख़ूबियों पर सही तरीक़े से रिसर्च नहीं की है। हालांकि अब इसकी पड़ताल की जा रही है। जैसे कि फिल फोर्सलाइन ही इस काम में लगे हैं। उनकी मेहनत और कोशिशों के नतीजे कुछ सालों में सामने आएंगे। तब तक कज़ाख़िस्तान के सेब अलग तरीक़े से दुनिया पर छाप छोड़ सकते हैं।
 
सेब की कुछ नस्लों से बहुत बढ़िया शराब बनाई जा सकती है। वैसे कुछ स्थानीय लोग भी कज़ाख़िस्तान के सेबों की अहमियत समझने लगे हैं। जैसे कि एपोर्ट नाम के सेब को ही लीजिए। इसका स्वाद तो बहुत अच्छा होता ही है। ये ख़ूब बड़े-बड़े भी होते हैं। कई सेब तो एक-एक किलो तक के हो जाते हैं। दो स्थानीय युवा इस सेब की खेती कर रहे हैं और ज़ोर-शोर से इसका प्रचार भी कर रहे हैं।
 
इनमें से एक एंड्रे किम कहते हैं कि उन्होंने अपने बाग़ के सभी एपर्ट एपल बेच डाले। उनके साथ तैमूर बताते हैं कि ये सेब तभी अच्छा लगता है जब इसे कुछ देर से तोड़ा जाए। इसके पौधे को आठ सौ से बारह सौ मीटर की ऊंचाई पर रोपा जाना ही ठीक होता है। बिना इस ऊंचाई के सेबों का स्वाद बहुत ख़राब होता है।
 
पहले सोवियत संघ में एपोर्ट नस्ल के सेबों के कई बाग़ान थे। मगर सोवियत संघ के विघटन के बाद इसके बाग़ काटकर पहाड़ों पर विला बना दिए गए। वैसे कज़ाख़िस्तान के जंगलों में बड़े पैमाने पर चल रही कटाई से सेब की कई नस्लों के हमेशा के लिए ख़त्म हो जाने का डर है। फिल फोर्सलाइन कहते हैं कि उन्होंने सही समय पर वहां जाकर बीज इकट्ठे कर लिए। अब कम से कम उन प्रजातियों के ख़ात्मे का तो डर नहीं।
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