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Last Modified: गुरुवार, 15 मार्च 2018 (14:14 IST)

कांशीराम का मास्टर स्ट्रोक था मुलायम सिंह के साथ गठबंधन

कांशीराम का मास्टर स्ट्रोक था मुलायम सिंह के साथ गठबंधन - Kashiram Mulayamsingh
-रेहान फ़ज़ल
 
1977 की एक सर्द रात 11 बजे जैसे ही मायावती ने खाना खाने के बाद पढ़ना शुरू किया, उनके दरवाज़े की कुंडी बजी। जब मायावती के पिता प्रभुदयाल दरवाज़ा खोलने आए तो उन्होंने देखा कि बाहर मुड़े-तुड़े कपड़ों में, गले में मफलर डाले, लगभग गंजा हो चला एक अधेड़ शख़्स खड़ा था। उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि 'वो कांशीराम हैं और बामसेफ के अध्यक्ष हैं। वो मायावती को एक भाषण देने के लिए आमंत्रित करने आए हैं।'
 
उस समय मायावती दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में रहा करती थीं। उनके घर में बिजली नहीं होती थी। वो लालटेन की रोशनी में पढ़ रही थीं। कांशीराम की जीवनी कांशीराम 'द लीडर ऑफ दलित्स' लिखने वाले बद्रीनारायण बताते हैं, 'कांशीराम ने मायावती से पहला सवाल पूछा कि वो क्या करना चाहती हैं?' मायावती ने कहा कि 'वो आईएएस बनना चाहती हैं ताकि अपने समुदाय के लोगों की सेवा कर सकें।'
 
'कांशीराम ने कहा कि तुम आईएएस बनकर क्या करोगी? मैं तुम्हें एक ऐसा नेता बना सकता हूं जिसके पीछे एक नहीं, दसियों कलेक्टरों की लाइन लगी रहेगी। तुम सही मायने में तब अपने लोगों के ज़्यादा काम आ सकती हो।' उन्होंने मायावती के पिता से कहा कि 'वो अपनी बेटी को संगठन में काम करने के लिए उन्हें दे दें।' प्रभुदयाल ने बात को टालने की कोशिश की। लेकिन मायावती की समझ में आ गया कि उनका आगे का भविष्य कहां है, हालांकि उनके पिता इसके सख़्त ख़िलाफ थे।
 
मायावती का शुरुआती संघर्ष : मायावती ने अपने पिता की बात नहीं मानी। यहां तक कि उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और पार्टी ऑफिस में आकर रहने लगीं। मायावती की जीवनी लिखने वाले अजय बोस अपनी किताब 'बहनजी' में लिखते हैं, 'मायावती ने स्कूल अध्यापिका के तौर पर मिलने वाले वेतन के पैसों को उठाया जिन्हें उन्होंने जोड़ रखा था, एक सूटकेस में कुछ कपड़े भरे और उस घर से बाहर आ गईं, जहां वो बड़ी हुई थीं।'
 
बद्रीनारायण बताते हैं कि मायावती ने वर्णन किया है कि उस समय उनके क्या संघर्ष थे। लोग उनके बारे में क्या सोचते थे। एक लड़की का घर छोड़कर अकेले रहना उस समय बहुत बड़ी बात होती थी। वो असल में किराए का एक कमरा लेकर रहना चाहती थीं लेकिन इसके लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे इसलिए पार्टी ऑफिस में रहना उनकी मजबूरी थी। बहुत ही अच्छी केमिस्ट्री थी दोनों के बीच। कांशीराम को शुरू से अंदाज़ा था कि मायावती कहां तक जा सकती हैं?
 
कांशीराम दलितों के साथ हुई किसी ज़्यादती को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। कांशीराम पर किताब लिखने वाले एसएस गौतम बताते हैं, 'एक बार कांशीराम रोपड़ के एक ढाबे में गए। वहां उन्होंने खाना खा रहे कुछ ज़मींदारों को शेख़ी बघारते हुए सुना कि किस तरह उन्होंने खेतों में काम कर रहे दलितों को सबक सिखाने के लिए उनकी पिटाई की है। ये सुनना था कि कांशीराम का ख़ून खौल उठा और वो इतने आग-बबूला हो गए कि उन्होंने एक कुर्सी उठाई और उससे ज़मीदारों को पीटने लगे। इस चक्कर में कई मेज़ें पलट गईं और उन पर रखी सभी प्लेटें चकनाचूर हो गईं।'
 
'जो बहुजन की बात करेगा, वो दिल्ली पर राज करेगा' : कांशीराम का मानना था कि दलित और दूसरी पिछड़ी जातियों की संख्या भारत की जनसंख्या की 85 फीसदी है, लेकिन 15 फीसदी सवर्ण जातियां उन पर शासन कर रही हैं। उन्होंने बहुजन समाज पार्टी तो बना डाली, लेकिन विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज कर पाना इतना आसान नहीं था।
 
अलीगढ़ में रहने वाले कांशीराम के एक पूर्व सहयोगी अमृतराव अकेला बताते हैं, '1985 में जब बहुजन समाज पार्टी चुनाव लड़ रही थी तो कांशीराम ने कहा था कि पहला चुनाव हम हारेंगे, दूसरे चुनाव में हराएंगे और तीसरे चुनाव में जीतेंगे। उनका कहना था कि हम इस देश में बहुजन समाज को हुक्मरान बनाना चाहते हैं। लोकतंत्र में जिनकी संख्या ज़्यादा होती है उनको हुक्मरान होना चाहिए। इसीलिए उन्होंने एक नारा लगाया था 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी।' उनका एक और नारा था 'जो बहुजन की बात करेगा, वो दिल्ली पर राज करेगा।'
 
कांशीराम का मास्टरस्ट्रोक : कांशीराम ने 1988 में इलाहाबाद से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा। वो जीते तो नहीं, लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे मज़बूत प्रतिद्वंदी के ख़िलाफ 68,000 से अधिक वोट लेने में सफल रहे। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ द डेवलपिंग सोसायटीज़ में प्रोफेसर अभय कुमार दुबे कहते हैं, 'कांशीराम को सबसे बड़ा राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक था 1993 में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन। इस गठजोड़ के ज़रिए वो भारतीय जनता पार्टी को उत्तरप्रदेश में उस वक्त चुनाव में हरा पाए, जबकि कोई कल्पना भी नहीं करता था कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव में हारेगी, ख़ासतौर से बाबरी मस्जिद टूटने के बाद।'
 
'उसी उपलब्धि को धीरे-धीरे उन्होंने कुशलता से आगे बढ़ाया। वही उपलब्धि बाद में विभिन्न घटनाक्रमों से गुज़रती और विकसित होती हुई 2007 में मायावती के पूर्ण बहुमत में परिणत हुई। मायावती का पूर्ण बहुमत नहीं बन सकता था अगर बहुजन थीसिस उसके पीछे नहीं होती। अगर मायावती को अतिपिछड़ों और ग़रीब मुसलमानों ने वोट नहीं दिया होता, अगर मायावती को 100 दलितों में से कम से कम 80 ने वोट नहीं दिया होता। जब बहुजन समाज का इतना बड़ा वोटबैंक बन चुका था, तो उसके दबाव में ऊंची जाति के भी कुछ लोगों ने उन्हें वोट दिया, क्योंकि वो भी सत्ता में हिस्सेदारी चाहते थे। इससे ये सुनिश्चित हुआ कि वो अगर दलित वोटों पर अपनी पकड़ बनाए रखें और उन्हें ऊंची जातियों को थोड़ा-सा वोट भी मिल जाए तो वो सरकार बना सकती हैं।'
 
लेकिन बाद में इन्हीं कांशीराम ने बिना पलक झपकाए समाजवादी पार्टी की धुर विरोधी भारतीय जनता पार्टी के साथ दो बार साझा सरकार बनाई और कांग्रेस के साथ भी चुनावी गठबंधन किया। नतीजा ये रहा कि उनके ऊपर अवसरवाद के आरोप लगे। लेकिन अभय कुमार दुबे कहते हैं, 'जिसको हम नीची निगाह से कहते हैं अवसरवाद, कांशीराम की निगाह में वो एक ख़ूबी थी। कांशीराम गर्व से कहते थे कि हम अवसरवादी हैं।'
 
'ये ध्यान रहे कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ कभी मिलकर चुनाव नहीं लड़ा। भारतीय जनता पार्टी हमेशा कांशीराम से गठजोड़ करने के लिए मजबूर हुई और उन्होंने अपने गठजोड़ के ज़रिए भारतीय जनता पार्टी को पराजित किया। भाजपा के हमेशा ज़्यादा विधायक होते थे, लेकिन उसके बावजूद भाजपा को मानना पड़ता था कि बसपा का मुख्यमंत्री होगा। इससे आप अंदाज़ा लगाइए कि उस राजनीति में कांशीराम का हमेशा अपरहैंड होता था और 170 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी बैकफुट पर रहती थी।'
 
कांशीराम का आखिरी समय : 'जब उन्होंने कांग्रेस से दलित वोट छीन लिए तो कांशीराम का एक प्रसिद्ध वाक्य था, 'अभी तक मैं कांग्रेस की तरफ ध्यान दे रहा था। अब वो नष्ट हो गई है। अब मैं भारतीय जनता पार्टी की तरफ ध्यान दूंगा।' ये जो कांशीराम पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया। दरअसल, उन्होंने जितनी बार भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया, उतनी बार वो कमज़ोर हुई।'
 
'दिलचस्प बात ये है कि एक बार उन्हें भारत का राष्ट्रपति बनाने की भी पेशकश की गई, लेकिन उन्होंने उसे ये कहते हुए इंकार कर दिया कि वो भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, राष्ट्रपति नहीं। बद्रीनारायण बताते हैं, 'वाजपेयीजी ने उनसे एक बार राष्ट्पति बनने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने कहा कि वो प्रधानमंत्री बनना पसंद करेंगे। राष्ट्रपति बनाकर आप उन्हें चुपचाप अलग बैठा दीजिए, वो ये मानने के लिए तैयार नहीं थे। वो सत्ता का डिस्ट्रीब्यूशन चाहते थे। वो पंजाबी के 'गुरुकिल्ली' शब्द का इस्तेमाल करते थे जिसका अर्थ था- 'सत्ता की कुंजी'। उनका मानना था कि ताकत पाने के लिए स्टेट पर कब्ज़ा ज़रूरी है। कांग्रेस के साथ जुड़े दलित नेताओं को वो 'चमचा नेता' कहते थे जिनको अगर 5 सीट भी दे दी जाए तो वो ख़ुश हो जाते थे।'
 
बहुजन समाज आंदोलन को उस समय बहुत बड़ा झटका लगा, जब 2003 आते-आते कांशीराम गंभीर रूप से बीमार हो गए। उस समय उनकी शिष्या मायावती ने उनका बहुत ख़्याल रखा। हालांकि इस पर बहुत विवाद भी हुआ, जब उन्होंने कांशीराम के परिवार वालों को उनसे मिलने नहीं दिया।
 
बद्रीनारायण बताते हैं, 'उनका अंत अच्छा नहीं हुआ। एक बार जब वो ट्रेन से जा रहे थे तभी उनको ब्रेन हैमरेज हो गया। जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तो उन्हें स्मृतिलोप हो चुका था। वो लोगों को पहचानते नहीं थे। फिर मायावती उन्हें अपने घर ले गईं। कांशीराम के भाइयों ने इसका विरोध किया और वो एक बड़ी लड़ाई में फंस गए। मायावती उन्हें अपने यहां रखना चाहती थीं और उनके परिवार वाले उन्हें अपने यहां ले जाना चाहते थे।'
 
'मायावती उनका बहुत ध्यान रखती थीं, उनकी दाढ़ी बनाने से लेकर उन्हें नहलाने और उनके बाल झाड़ने तक काम मायावती खुद करती थीं, उसी तरह जैसे कोई अपने पिता की सेवा करता है। उस समय तक कांशीराम के पास उन्हें कुछ भी देने के लिए नहीं था। उन्होंने जो कुछ भी उनके साथ किया, निजी आत्मीयता के तहत किया। लोग उसमें मिर्च-मसाले देखते हैं लेकिन ये सभी मानेंगे कि इस संबंध का भावपक्ष बहुत सबल था।'
 
सामाजिक क्षेत्र में कांशीराम दलितों के लिए भले ही कुछ न कर पाए हों, लेकिन ये उनकी राजनीतिक इंजीनियरिंग का ही फल था कि दलितों ने पहली बार अकेले ही सत्ता का स्वाद चखा, लेकिन कांशीराम ने जीवनपर्यंत कोई राजनीतिक पद नहीं स्वीकार किया।
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