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Last Modified: सोमवार, 24 सितम्बर 2018 (16:04 IST)

हैदराबाद को भारत में मिलाने के लिए कितना ख़ून बहा?

हैदराबाद को भारत में मिलाने के लिए कितना ख़ून बहा? - hyderabad
जनरल अल-इदरोस (दायें) जनरल चौधरी के आगे हथियार डालते हुए

- जफ़र सैय्यद (बीबीसी उर्दू सेवा) 
 
*समय: 18 सितंबर 1948, दोपहर के 12 बजे
*स्थान: हैदराबाद दक्कन से पाँच मील दूर
*अवसर: हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी और घनी जनसंख्या वाली रियासत हैदराबाद की ओर से भारतीय फ़ौज के सामने हथियार डालने की रस्म।
*शामिल किरदार: हैदराबाद के कमांडर-इन-चीफ़ जनरल सैय्यद अहमद अल-इदरोस और भारतीय सेना के मेजर जनरल जयंतो नाथ चौधरी।
 
जनरल चौधरी जो बाद में भारत के थलसेना अध्यक्ष भी बने, उन्होंने इस ऐतिहासिक घटना का विवरण कुछ इस प्रकार किया था:
 
"मुझे बताया गया था कि इस अवसर पर महामहिम शाहिद आज़म यहाँ भी उपस्थित रहेंगे, लेकिन जब मैं अपनी जीप से यहाँ पहुँचा तो केवल जनरल इदरोस को देखा। इनकी वर्दी ढीली-ढाली थी और आँखों पर काला चश्मा था। वो पश्चाताप की मूर्ती बने हुए थे। मैं इनके क़रीब पहुँचा। हमने एक दूसरे को सैल्यूट किया। फिर मैंने कहा- मैं आपकी फ़ौज से हथियार डलवाने आया हूँ। इसके जवाब में जनरल अल-इदरोस ने धीमी आवाज़ में कहा: हम तैयार हैं।"
 
इसके बाद जनरल चौधरी ने पूछा कि क्या आपको मालूम है कि हथियार बिना किसी शर्त पर डलवाए जाएंगे? तो जनरल इदरोस ने कहा, 'जी हाँ, मालूम है।'
 
बस यही सवाल-जवाब हुए और रस्म पूरी हो गई...
जनरल चौधरी ने लिखा, "मैंने अपना सिगरेट केस निकालकर जनरल इदरोस को सिगरेट पेश की। हम दोनों ने अपनी-अपनी सिगरेट सुलगाई और दोनों चुपचाप अलग हो गए।" और इस प्रकार आज से ठीक 70 साल पहले की उस गर्म दोपहरी की धूप में हैदराबाद पर मुसलमानों का 650 साल पुराना शासन भी धुएं में विलीन होकर रह गया।
 
इस दौरान जो कुछ घटा, उसने इस धुएं की सियाही में ख़ून की लाली भी मिला दी। इन कुछ दिनों में दसियों हज़ार आम नागरिक अपनी जान से हाथ धो बैठे। बहुत से हिंदू, मुसलमान बलवाइयों और तमाम मुसलमान, हिंदू बलवाइयों के हाथों मारे गए। कुछ को भारतीय फ़ौज ने कथित तौर पर लाइन में खड़ा करके गोली मार दी।
 
दूसरी ओर निज़ाम की शाही सरकार समाप्त होने के बाद बहुसंख्यक हिंदू आबादी भी सक्रिय हो गई और इन लोगों ने बड़े पैमाने पर क़त्लेआम, बलात्कार, आगज़नी और लूटमार की। जब ये ख़बरें उस समय भारत के प्रधानमंत्री रहे जवाहर लाल नेहरू तक पहुँचीं तो उन्होंने संसद सदस्य पंडित सुंदर लाल की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग का गठन कर दिया।
 
मगर इस आयोग की रिपोर्ट को कभी भी जनता के सामने नहीं लाया गया। हालांकि साल 2013 में इस रिपोर्ट के कुछ अंश सामने आए, जिनसे ये पता चला कि इन दंगों में 27-40 हज़ार लोगों की मौत हुई थी।
 
पंडित सुंदर लाल आयोग की रिपोर्ट
रिपोर्ट में लिखा है कि 'हमारे पास ऐसी घटनाओं के पुख़्ता सबूत हैं कि भारतीय फ़ौज और स्थानीय पुलिस ने भी लूटमार में हिस्सा लिया। हमने अपनी जाँच में ये पाया कि बहुत सी जगहों पर भारतीय फ़ौज ने न केवल लोगों को उकसाया, बल्कि कुछ जगहों पर हिंदू जत्थों को मजबूर किया कि वे मुसलमानों की दुकानों और घरों को लूटें।'
 
इस रिपोर्ट में लिखा है कि भारतीय फ़ौज ने देहात के इलाक़ों में बहुत से मुसलमानों के हथियार ज़ब्त कर लिए जबकि हिंदुओं के पास उन्होंने हथियार रहने दिए। इस कारण से मुसलमानों की भारी क्षति हुई और बहुत से लोग मारे गए।
 
रिपोर्ट के अनुसार, विभिन्न जगहों पर भारतीय फ़ौज ने व्यवस्था अपने हाथों में ले ली थी। कुछ देहाती इलाक़ों में और क़स्बों में सेना ने व्यस्क मुसलमानों को घरों से बाहर निकालकर, उन्हें किसी झड़प का हिस्सा बनाकर गोली मार दी थी।
 
हालांकि रिपोर्ट में कुछ जगहों पर ये भी कहा गया है कि सेना ने कई जगहों पर मुसलमानों के जान और माल की रक्षा में अहम किरदार अदा किया। मगर मुसलमानों की ओर से हैदराबाद के पतन में दो लाख से अधिक लोगों के हताहत होने का दावा किया था। लेकिन इस संबंध में कोई प्रमाण कभी प्रस्तुत नहीं किया गया। ये रिपोर्ट क्यों प्रकाशित नहीं की गई? इसका कारण ये बताया जाता है कि इससे भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच नफ़रत बढ़ेगी।
 
ब्रिटेन से बड़ी थी ये रियासत
हैदराबाद दक्कन कोई छोटी मोटी रियासत नहीं थी। साल 1941 की जनगणना के अनुसार, यहाँ की जनसंख्या एक करोड़ 60 लाख से अधिक थी। इसका क्षेत्रफल दो लाख 14 हज़ार वर्ग किलोमीटर था। यानी जनसंख्या और क्षेत्रफल, दोनों की दृष्टि से ये ब्रिटेन, इटली और तुर्की से बड़ी जगह थी।
 
रियासत की आय उस समय के हिसाब से नौ करोड़ रुपये थी जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के कई देशों से भी अधिक थी। हैदराबाद की अपनी मुद्रा थी। टेलीग्राफ़, डाक सेवा, रेलवे लाइनें, शिक्षा संस्थान और अस्पताल थे। यहाँ पर स्थित उसमानिया विश्वविद्यालय पूरे हिन्दुस्तान में एक मात्र विश्वविद्यालय था जहाँ देशी भाषा में शिक्षा दी जाती थी।
 
साल 1947 में बँटवारे के समय ब्रिटिश राज में स्थित छोटी बड़ी रियासतों को ये आज़ादी दी गई थी कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ अपना विलय कर लें। रियासत के शासक मीर उसमान अली खाँ ने भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की बजाए ब्रिटिश राष्ट्र के अंदर एक स्वायत्त रियासत के रूप में रहने का निर्णय लिया।
 
लेकिन इसमें एक समस्या थी। हैदराबाद में मुसलमानों की जनसंख्या केवल 11 प्रतिशत थी, जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या 85 प्रतिशत थी। ज़ाहिर तौर पर रियासत में हिन्दुओं की अधिकांश जनसंख्या भारत के साथ विलय के समर्थन में थी।
 
पुलिस एक्शन
जब भारत में हैदराबाद के विलय की बातें होने लगीं तो रियासत के अधिकतर मुसलमानों में बेचैनी फैल गई। कई धार्मिक संगठन सामने आए और उन्होंने लोगों को उकसाना शुरू कर दिया। रेज़ाकार के नाम से एक सशस्त्र संगठन उठ खड़ा हुआ जिसका लक्ष्य हर क़ीमत पर हैदराबाद को भारत में विलय से रोकना था।
 
कुछ सूचनाओं के अनुसार, उन्होंने रियासत के अंदर बसने वाले हिन्दुओं पर भी आक्रमण शुरू कर दिये। इस परिप्रेक्ष्य में 'इत्तेहादुल मुसलेमीन' नामी संगठन के नेता क़ासिम रिज़वी के भाषण भड़काऊ होते हुए अपनी चरमसीमा पर पहुँच गये थे। क़ासिम रिज़वी अपने भाषणों में ख़ुल्लम खुल्ला लाल क़िले पर परचम लहराने की बातें करते थे।
 
उन्होंने निज़ाम को यक़ीन दिला रखा था कि वो दिन दूर नहीं जब बंगाल की खाड़ी की लहरें आला हज़रत के चरण चूमेंगी। भारत की हुक़ूमत के लिये ये बहाना पर्याप्त था। उन्होंने हैदराबाद पर सैन्य कार्रवाई की अपनी योजना तैयार कर ली जिसके अंतर्गत 12 और 13 सितंबर की रात को भारतीय फ़ौज ने पाँच मोर्चों से एक ही समय पर आक्रमण कर दिया।
 
निज़ाम के पास कोई नियमित और संगठित सेना नहीं थी। मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलेमीन के रज़ाकारों ने अपनी सी कोशिश ज़रूर की लेकिन बंदूक़ों से टैंकों का मुक़ाबला कब तक किया जाता?
 
18 सितंबर को हैदराबाद हुकूमत ने हथियार डाल दिए क्योंकि इसके अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। इस जंगी कार्रवाई को 'पुलिस एक्शन' का नाम दिया जाता रहा है। लेकिन मुंबई के पत्रकार डी एफ़ कारका ने साल 1955 में लिखा था कि 'ये कैसी पुलिस कार्रवाई थी जिसमें एक लेफ़्टिनेंट जनरल, तीन मेजर जनरल और एक पूरा आर्म्ड डिविज़न लिप्त थे।'
 
शुरुआत
हैदराबाद दक्कन पर मुसलमानों की हुक़ूमत की शुरुआत दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल (1308 ई) में हुई थी। कुछ समय तक तो यहाँ के स्थानीय सूबेदार दिल्ली के अधीन रहे लेकिन साल 1347 में उन्होंने बग़ावत करके बहमनी सल्तनत की नीव रखी। दक्कन के अंतिम शासक मीर उसमान का संबंध आसिफ़ जाही घराने से था।
 
जिसकी बुनियाद दक्कन के सूबेदार आसिफ़ जहाँ ने साल 1724 में उस समय डाली थी जब साल 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल बादशाहों की पकड़ देश के विभिन्न सूबों में ढीली पड़ गई थी। आसिफ़ जहाँ को पहला निज़ाम कहा जाता है। उन्होंने साल 1739 में नादिर शाह के हमले के समय दिल्ली के मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह का साथ दिया था। उन्होंने ही नादिर शाह के क़दमों में अपनी पगड़ी डालकर दिल्ली में चल रहे जनसंहार को रुकवाया था।
 
दक्कन में साहित्य और अदब के क़द्रदान
उर्दू साहित्य में विविधता का प्रारंभ दक्कन से ही हुआ था। उर्दू के पहले साहेबे दीवान शायर क़ुली क़ुतुब शाह और पहले गद्य लेखक मुल्ला वजही यहीं दक्कन में जनमे थे और सबसे पहले यहीं के बादशाह आदिल शाह ने दक्कनी (क़दीम उर्दू) को सरकारी भाषा घोषित किया था।
 
दक्कन के सर्वाधिक विख्यात उर्दू शायर वली दक्कनी हैं जो न केवल उर्दू के बड़े शायर हैं बल्कि जब 1720 में इनका दीवान दिल्ली पहुँचा तो वहाँ के साहित्य जगत में उनके नाम की धूम मच गई और यह कहा जाने लगा कि शायरी इस तरह भी हो सकती है।
 
उनके बाद वहाँ शायरों की एक खेप तैयार हुई जिसमें मीर तक़ी मीर, मिर्ज़ा सौदा, मीर दर्द, मीर हसन, मसहफ़ी, शाह हातिम, मिरज़ा मज़हर और क़ायेम चांदपूरी जैसे दर्जनों शायर हुए जिनका जवाब आज तक उर्दू अदब नहीं दे पाया है।
 
दक्कन के एक और शायर सिराज़ औरंगाबादी हैं, जिनकी ग़ज़ल:
 
ख़बर-ए तहैयुर-ए इश्क़ सुन, न जुनों रहा न परी रही,
न तो मैं रहा न तो तू रहा, जो रही सो बेख़बरी रही।
 
के बारे में नाक़ेदीन दावा करते हैं कि आज तक उर्दू में इससे बड़ी ग़ज़ल नहीं लिखी गयी। दिल्ली के पतन के बाद हैदराबाद भरतीय उप-महाद्वीप में मुस्लिम संस्कृति एवं साहित्य का सबसे बड़ा गढ बन गया। बहुत सारे बुद्धिजीवी, फ़नकार, शायर और साहित्यकार वहाँ आने लगे। दक्कन में उर्दू अदब की क़द्रदानी का अंदाज़ा उस्ताद ज़ोक़ के शेर से होता है, जिन्होंने निमंत्रण तो ठुकरा दिया लेकिन उर्दू को ये शेर दे गये:
 
इन दिनों गरचे दक्कन में है बड़ी क़दर-ए सुख़न,
कौन जाये ज़ोक़ पर दिल्ली की गलियां छोड़कर।
 
दाग़ देहलवी अगरचे दिल्ली की गलियों की परवाह न करते हुये दक्कन जा बसे और फ़सीहुल मुल्क का ख़िताब और मलिकुश्शुआरा (राजकवि) की उपाधि पाई। उस समय के एक और शायर अमीर मीनाई भी दक्कन गये थे लेकिन शायद वहाँ का वातावरण उनको नहीं भाया और बहुत जल्द इस दुनिया से चले गये।
 
इल्म और फ़न की क़दर
शायरों पर ही बात समाप्त नहीं होती है, बल्कि पंडित रतन नाथ सरशार और अबदुल हलीम शरर जैसे गद्य लिखने वाले और शिबली नुमानी जैसे विख्यात ज्ञानी वहाँ के शिक्षा व्यवस्था के प्रबंधक रहे। उर्दू के महत्वपूर्ण शब्दकोश में से एक 'फ़रहंग-ए-आसफ़िया' हैदराबाद के ही संरक्षण में लिखी गई।
 
रियासत ने जिन विद्वानों की सरपरस्ती दी इनमें सैय्यद अबुल अला मौदूदी, क़ुरान के प्रख्यात अनुवादक मारमाडयूक पिक्थाल और मोहम्मद हमीदुल्ला जैसे विद्वान शामिल हैं। जोश मलीहाबादी ने 'यादों की बारात' में अपने दक्कन के क़ेयाम का जो विवरण दिया है इससे अच्छी तरह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वहाँ इल्म और फ़न की कितनी क़दर की जाती थी।
 
और तो और, कुछ प्रमाणों से पता चलता है कि ख़ुद अल्लामा इक़बाल दक्कन में कोई पद पाने के इच्छुक थे, मगर जब अतया फ़ैज़ी को इस की भनक लगी तो उन्होंने अल्लामा को बहुत डांट लगाई।
 
उन्होंने लिखा, "मालूम हुआ कि तुम हैदराबाद में नौकरी करना चाहते हो। जबकि हिन्दुस्तान की किसी भी रियासत के राजा के यहाँ तुम्हारा नौकरी करना तुम्हारी सलाहियतों को बर्बाद कर देगा।"... तब जाकर अल्लामा इक़बाल अपने इरादे से पीछे हटे।
 
विश्व का सबसे धनी व्यक्ति
सातवें निज़ाम मीर उसमान अली ख़ाँ अपने समय के विश्व के सबसे धनी व्यक्ति थे। साल 1937 में टाइम मैग्ज़ीन ने उनकी तस्वीर मुख्य पृष्ठ पर छापी और उन्हें विश्व का सबसे धनी व्यक्ति कहा। उस समय उनके धन का आंकलन दो अरब डॉलर लगाया गया था जो इस समय 35 अरब डॉलर के क़रीब होता है।
 
निज़ाम को शिक्षा से बहुत लगाव था। वो अपने बजट का सबसे अधिक हिस्सा शिक्षा पर ख़र्च करते थे। इस रियासत ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्थापना में सबसे अधिक बढ़-चढकर हिस्सा लिया था। इसके अलावा नदवतुल उलमा और पेशावर के इसलामिया कॉलेज और दूसरे शिक्षा संस्थानों की तामीर में हिस्सा लिया।
 
उसमानी ख़िलाफ़त की समाप्ति
बात केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं थी। निज़ाम उसमान अली ख़ां दुनिया भर के मुस्लमानों के संरक्षक थे। अरब में हेजाज रेलवे इन्ही के धन सहयोग से बनाई गई थी। वह तुर्की में उसमानी ख़िलाफ़त की समाप्ति के बाद आख़िरी ख़लीफ़ा अब्दुल हमीद को जीवन भर वज़ीफ़ा देते रहे।
 
मगर शिक्षा और साहित्य के इस माहौल में निज़ाम ने सैन्य शक्ति की और कोई ध्यान नहीं दिया। इनके कमांडर इन चीफ़ अल-इदरोस का ज़िक्र उपर हो चुका है। वो मेरिट पर इस पद पर नहीं पहुँचे थे बल्कि ये पद उनको विरासत में मिला था। क्योंकि दक्कन में ये परंपरा चली आ रही थी कि फ़ौज का सिपहसालार चुनने में अरबों को तरजीह दी जाती थी।
 
रेत की दीवार
अल-इदरोस की सैन्य क्षमता के बारे में हैदराबाद रियासत के वज़ीर-ए-आज़म मीर लायेक़ अली अपनी क़िताब 'ट्रैजडी आफ़ हैदराबाद' में लिखते हैं कि भारतीय फ़ौज के आक्रमण के दौरान जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, वैसे-वैसे इस बात का एहसास हो रहा था कि रियासत के फ़ौजी कमांडर अल-इदरोस के पास कोई योजना नहीं थी।
 
रियासत का कोई विभाग ऐसा नहीं था जिसमें अव्यवस्था न हो। मीर लायेक़ अली ने लिखा कि ये बात जब निज़ाम को बताई गई तो वह हैरान रह गए। मीर लायेक़ के अनुसार, अल-इदरोस की जंगी तैयारियों का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि लड़ाई के दौरान इनके फ़ौजी अफ़सर एक दूसरे को वायरलेस पर जो पैग़ाम दे रहे थे वो इतने पुराने कोड पर आधारित थे कि भारतीय फ़ौज बड़ी आसानी से उनको सुन लेती थी और उनको पल-पल की ख़बर मिलती रहती थी।
 
अबुल अला मोदूदी ने हैदराबाद के पतन से नौ महीना पहले क़ासिम रिज़वी को एक पत्र में साफ़-साफ़ लिखा था कि 'निज़ाम की हुकूमत रेत की एक दीवार है, जिसका ढह जाना निश्चित है। अमीर लोग अपनी जान और अपना धन बचा ले जाएंगे और आम अदमी पिस जाएंगे। इसलिए हर क़ीमत पर भारत से शांति का समझौता कर लिया जाए।' मोदूदी साहब की ये भविष्यवाणी सच साबित हुई और इंग्लैंड से बड़ा एक देश केवल पाँच दिन में परास्त हो गया।
 
निज़ाम की हार
जब भारत की जीत हो गई तो भारतीय हुकूमत के एजेंट के एम मुंशी निज़ाम के पास गए और उनसे कहा कि वे शाम 4 बजे रेडियो पर अपनी तक़रीर ब्रॉडकास्ट करें। तो निज़ाम ने कहा, कैसी ब्रॉडकास्ट? मैंने तो कभी ब्रॉडकास्ट ही नहीं किया?
 
मुंशी ने कहा कि हुज़ूर निज़ाम, आपको कुछ नहीं करना, केवल कुछ शब्द पढ़कर सुनाने हैं। निज़ाम ने माइक के सामने खड़े होकर मुंशी का लिखा हुआ काग़ज़ थामकर, उन्होंने भाषणा दिया जिसमें उन्होंने 'पुलिस एक्शन' का स्वागत किया और संयुक्त राष्ट्र में भारतीय हुकूमत के विरुद्ध दर्ज की गई शिकायत को वापस लेने की घोषणा की।
 
निज़ाम अपने जीवन में पहली बार हैदराबाद के रेडियो स्टेशन गए थे। न कोई प्रोटोकॉल और न ही कोई लाल क़ालीन। और न ही इनके आदर में हाथ बांधे, आँखें बिछाए लोग खड़े थे। न ही इनके सम्मान में कोई राष्ट्रीय गान गाया गया। भारतीय हुकूमत ने निज़ाम को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। साल 1967 में उनकी मौत हो गई। जहाँ तक प्रश्न है इनके धन और दौलत का तो इनके 149 बेटों के बीच विरासत की जो लड़ाई आधी शताब्दी पहले आरंभ हुई थी, वो आज भी चल रही है।
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