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Last Modified: मंगलवार, 1 दिसंबर 2015 (11:12 IST)

पुरुष जो बन गए हाउस हसबैंड

पुरुष जो बन गए हाउस हसबैंड - House Husband
- वंदना
28 साल के विश्वास बालन केरल में रहते हैं। खाना पकाने, राशन-पानी खरीदने से लेकर बर्तन साफ करने तक का जिम्मा इनका है। विश्वास ‘हाउस हसबैंड’ हैं, यानी ‘घरेलू पति’- वो पुरुष जो घर पर रहकर घरेलू काम संभालते हैं और पत्नी कामकाजी है। धीमे-धीमे ही सही पर भारत में ये चलन देखने को मिल रहा है।
विश्वास पोस्ट ग्रेजुएट हैं और अच्छी खासी नौकरी करते थे। फिर उन्होंने ‘घरेलू पति’ बनने का फैसला क्यों किया?

विश्वास बताते हैं, 'सारिका से मेरी दोस्ती कॉलेज से ही थी। उनसे शादी करने का मकसद यही था कि हम साथ समय बिता सकें। लेकिन मैं सुबह काम पर चला जाता और रात को आता था। मेरी पत्नी शाम को दफ्तर जाती थी और अगले दिन तड़के लौटती थी। हम मिल नहीं पाते थे। फिर शादी का क्या मतलब?'
 
वे कहते हैं, 'अगर आप मेरा करियर देखेंगे तो समझ जाओगे कि मैं तो कहीं भी कैसे भी काम कर रहा था। पर मुझे लगा कि मेरी पत्नी को करियर में आगे बढ़ने की जरूरत है। उसमें मुझसे कहीं ज्यादा प्रतिभा है।'
 
विश्वास के लिए 'घरेलू पति' बनना आसान फैसला था, लेकिन दूसरों के लिए इल फैसले को पचा पाना मुश्किल था। विश्वास बताते हैं, 'मेरे कई दोस्त और रिश्तेदार सोचते हैं कि जो आदमी कमा नहीं सकता उसमें जरूर कुछ कमजोरी होगी। अभी थोड़ी देर पहले ही पिता से मेरी बहस हो रही थी।'
 
तो एक हाउस हसबैंड होने के नाते उनका रूटीन क्या रहता है?
 
एक ‘कुशल गृहणी’ की तरह विश्वास गिनाते हैं, 'मेरी पत्नी तड़के दो-तीन बजे काम से लौटती हैं। वह दस-ग्यारह बजे उठती हैं। मैं एक-डेढ़ घंटे पहले उठ जाता हूं, खाना तैयार करता हूं। जब तक सारिका अखबार पढ़ती है तब तक मैं घर का काम निपटाता हूं। उन्हें दफ्तर छोड़ कर मैं घर का सामान खरीदता हूं और शाम को डिनर वगैरह बनाता हूं। हमने नौकर नहीं रखा है।'
हाउस हसबैंड बनने के बाद जिंदगी में आए बदलाव के बारे में विश्वास कहते हैं कि वो गृहणियों की दिक्कतें और उनका नजरिया बखूबी समझने लगे हैं। सारिका ने दफ्तर से समय निकालकर हमसे बात की और बताया, 'सबसे अच्छी बात है कि जब मैं रात को काम से लौटती हूं तो घर पर किसी को मेरा इंतजार होता है। मैं दिन भर की परेशानियां विश्वास के सामने उड़ेल देती हूं। हम बात करते हैं, बजाए इसके कि पति-पत्नी दोनों दफ्तर से उकता कर घर पहुंचे।'
 
रोहतक के रहने वाले धीरेश सैनी की शादी जब असम राइफल्स की डॉक्टर से हुई तो उन्होंने महसूस किया कि उनकी ड्यूटी कड़ी है और अगर वे घर पर रहेंगे तो पत्नी को मदद मिलेगी। उनकी अपनी सेहत भी थोड़ी खराब थी। उन्होंने घर की जिम्मेदारी संभालने का फैसला किया।
 
पुणे के रहने वाले अतुल अग्निहोत्री 17 साल से हाउस हसबैंड हैं। 90 के दशक में इंजीनियरिंग करने के बाद उन्हें नौकरी तो मिली पर बुरी तरह शराब की लत लग गई। शादी के बाद पत्नी की कोशिशों से आदत छूटी। लेकिन नौकरी पर लौटते ही उन्हें लगा कि वो शराब से दूर नहीं रह पा रहे।
तब कामकाजी पत्नी अरुंधति ने प्रस्ताव रखा कि वो छह महीने घर पर रहें। इस दौरान अतुल ने अपनी नन्ही बेटी को संभालना और घर का काम करना शुरू किया। इस प्रक्रिया का पूरे घर पर बहुत अच्छा असर पड़ा। अतुल ने फैसला किया वो हाउस हसबैंड बन कर रहेंगे।
 
अतुल याद करते हुए बताते हैं, 'मैं सुबह बेटी को प्यार से उठाता, टिफिन बनाता। स्कूल भी जाता। कई बार तो पेरेंट-टीचर मिटिंग में सारी मम्मियां होती थीं और मैं अकेला पापा होता था। उसके विकास में मैं जिस तरह से जुड़ सका वो मुझे बहुत आनंद देता है।'
 
जमाल शेख 'मैन्स वर्ल्ड' मैगज़ीन के एडिटोरियल डाइरेक्टर हैं। वे कहते हैं, 'अगर पत्नी बाहरी कामकाज में ज्यादा काबिल है और पुरुष घर के काम में बेहतर है, तो इसमें क्या बुराई है। आज कई हाउस हसबैंड औरतों से बेहतर घर संभालते हैं। मुझे अगर एक अच्छी लड़की मिले जो करियर में अच्छा कर रही हो तो मैं घर पर रहकर बहुत खुश रहूंगा।
 
जब कमाने वाली पत्नी हो और पति को पैसे मांगने पड़े तो क्या इससे अहम का टकराव नहीं होता?
 
अतुल कहते हैं, 'अगर पत्नी कह देती हैं कि इस महीने आपकी फलां मांग पूरी नहीं हो सकती तो इसमें दिक्कत कैसी? मैं जानता हूं कि मैं कमाता नहीं हूं। मैंने अपने खर्चे भी उस हिसाब से कम रखे हैं।'
अतुल के मुताबिक 'हाउस हसबैंड' होने का असर उनकी पत्नी पर पड़ा। वे बताते हैं, 'वो करियर पर ध्यान देने लगीं, सेमीनार में जाने लगीं, महिला दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाने लगीं, उनकी पर्सनेलिटी में कई गुना निखार आया।'
 
वहीं धीरेश कहते हैं कि उनका ढाई साल का बेटा अक्सर कहता है कि सब्जी पापा ही बनाएंगे और शायद जेंडर की उसकी समझ बेहतर होगी। हालांकि उन्हें जोरू का गुलाम जैसी बातें सुननी पड़ती हैं।
 
तो हाउस हसबैंड होने का सबसे बड़ा फायदा क्या है?
 
विश्वास हंसते हुए कहते हैं, 'रोज जेब खर्च मिलता है- सैलरी ऑन डिमांड, महीने के आखिर तक रुकना नहीं पड़ता।'
 
वहीं अतुल को एक मलाल है। वो कहते हैं, 'मैंने 17 सालों में सब सीख लिया। बस गोल रोटी नहीं बनती मुझसे। वो आज भी मेरी बीवी ही बनाती हैं।' और यही हाल धीरेश का है।