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Last Modified: गुरुवार, 28 जून 2018 (11:29 IST)

अगर पता चल जाए कि आप कब और कैसे मरने वाले हैं तो...

अगर पता चल जाए कि आप कब और कैसे मरने वाले हैं तो...| death day
- रेचेल न्यूवा (बीबीसी फ़्यूचर)
 
'ज़िंदगी तो बेवफ़ा है, एक दिन ठुकराएगी। मौत महबूबा है अपनी, साथ ले के जाएगी'। आप मुक़द्दर के कितने ही बड़े सिकंदर क्यों न हों, आप और आप के जानने वाले सारे लोगों की एक न एक दिन मौत होगी ही।
 
 
कुछ मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक़, ये हक़ीक़त अक्सर लोगों के ज़हन में कौंधती और परेशान करती रहती है। इस सच्चाई से ही इंसान चलता है। हमारी रोज़मर्रा की बहुत-सी बातें, जैसे पूजा-पाठ करना, सब्ज़ियां और दूसरी सेहतमंद चीज़ें खाना, वर्ज़िश करना, किताबें पढ़ना और लिखना, नई कंपनियां बनाना और परिवार बढ़ाना, इसी हक़ीक़त को झुठलाने की कोशिश होती हैं।
 
 
जो लोग सेहतमंद होते हैं, उनके अवचेतन मन में मौत का ख़याल तो रहता है, मगर वो ज़हन से उतरा रहता है। अमेरिका की पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के डॉक्टर क्रिस फ्यूडटनर कहते हैं कि, "हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इतने मशगूल होते हैं कि मौत की सच्चाई को भूल जाते हैं। जो चुनौतियां सामने होती हैं, उनसे निपटने में ही हमारी ज़्यादातर ऊर्जा ख़र्च होती है।"
 
 
अगर मौत का दिन पता चल जाए?
क्या हो कि ये अनिश्चितता ख़त्म हो जाए? हमारी मौत का दिन, वक़्त और तरीक़ा हमें पता चल जाए, तो क्या होगा? हालांकि, ये नामुमकिन है। फिर भी, अगर हम तय मौत के तय दिन और वक़्त को जान जाएं, तो शायद हम इंसान बेहतर काम करने या अपनी ज़िंदगी को नए मायने देने के लिए ज़्यादा प्रेरित हों।
 
 
पहले तो हमें मौत के मनोविज्ञान को समझना होगा।

 
1980 के दशक में दुनिया के कई देशों में इस बात की रिसर्च की गई कि मौत का एहसास किस तरह लोगों के बर्ताव पर असर डालता है। इसकी चिंता और परेशानी से हमारे व्यक्तित्व पर कैसा असर पड़ता है? न्यूयॉर्क की स्किडमोर कॉलेज की मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर शेल्डन सोलोमन कहती हैं, "हम बाक़ी जीवों की तरह ही सांस लेने वाले, खाने और मलत्याग करने वाले और ख़ुद के बारे में महसूस करने वाले मांस के लोथड़े ही तो हैं, जो किसी भी वक़्त ख़त्म हो सकते हैं।"
 
 
शेल्डन सोलोमन कहती हैं कि इंसान टेरर मैनेजमेंट थ्योरी से चलता है। वो अपने आस-पास के माहौल, सोच, संस्कृति से प्रभावित होकर मौत के डर का सामना करता है। वो ख़ुद के इस दुनिया के लिए अहम होने का एहसास कराता है। इंसान ख़ुद को समझाता है कि उसकी ज़िंदगी के भी मायने हैं। वरना मौत का एहसास इंसान को ज़िंदा ही मार देगा।
 
 
क़रीब एक हज़ार तजुर्बे हुए हैं इस बात के कि हमारी सोच पर मौत की सच्चाई कैसा असर डालती है। इनके नतीजे कहते हैं कि जैसे ही हमें मौत की अटल सच्चाई का एहसास होता है। हम डरकर उन बुनियादी मूल्यों का सहारा लेते हैं, जिनके बीच हम पले-बढ़े हैं। लोग ख़ुद को यक़ीन दिलाने लगते हैं कि वो दुनिया के लिए अहम हैं। जो हमारी सोच को चुनौती देता है, उसके प्रति आक्रामक हो जाते हैं।
 
 
मौत शब्द अगर कंप्यूटर के स्क्रीन पर 42.8 मिलीसेकेंड के लिए भी दिख जाए, या अंतिम संस्कार के वक़्त मौत पर लंबी चर्चा हो, दोनों ही सूरतों में लोगों का बर्ताव इस कड़वी सच्चाई का सामना करने से बदल जाता है। जब हमें मौत का एहसास कराया जाता है, तो हम उन लोगों के क़रीब होने की कोशिश करते हैं, जो दिखने में, खान-पान और रहन-सहन में हमारे जैसे हैं। जिनके धार्मिक और सियासी ख़यालात हम जैसे हैं। जो हमारे इलाक़े में ही रहते हैं।
 
 
इसके बरक्स मौत की बात ज़हन में आते ही हम अपने से अलग दिखने वालों के प्रति आक्रामक और हिंसक हो जाते हैं। हम अपने रोमांटिक साथी के प्रति ज़्यादा वफ़ादारी का वादा करने लगते हैं। मौत के डर से लोग कड़क और चमत्कारिक छवि वाले नेताओं को वोट देते हैं। मौत के एहसास से कई बार हम आत्मघाती भी हो जाते हैं। ज़्यादा शराब पीने लगते हैं, धूम्रपान करने लगते हैं। खान-पान और ख़रीदारी में संयम बरतना छोड़ देते हैं। फिर हमें पर्यावरण की भी फ़िक्र नहीं होती।
 
 
तो, इसका ये मतलब निकलता है क्या कि मौत का वक़्त पता चलने पर समाज ज़्यादा नस्लवादी, डरावना, हिंसक, युद्ध की बातें करने वाला, ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने वाला और पर्यावरण के लिए और भी बड़ा ख़तरा बन जाएगा?
 
 
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इतना भी डरने की बात नहीं। शेल्डन सोलोमन जैसे तमाम रिसर्चर मानते हैं कि मौत का एहसास होने के बाद इंसान और समझदार होगा। इसके डर से वो बेहतर करने की कोशिश करेगा। वैज्ञानिक इसके लिए दक्षिण कोरिया के बौद्ध भिक्षुओं की मिसाल देते हैं। मौत की याद दिलाने पर उनका बर्ताव और भी शांत हो जाता है।
 
 
जब लोगों से ये पूछा जाता है कि उनकी मौत का परिवार पर कैसा असर होगा, तो भी उनकी सोच बदल जाती है। तब वो और भी परोपकारी सोच वाले हो जाते हैं। ख़ून देने के लिए जल्दी तैयार हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि वो समाज के लिए कुछ बेहतर कर पाएं, तो ज़िंदगी को मक़सद मिल जाएगा। अब इन तजुर्बों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि मौत की तारीख़ पता होने की सूरत में शायद इंसान और समझदार हो जाए। ज़्यादा ज़िम्मेदारी भरी ज़िंदगी जीने की तमन्ना करने लगे।
 
 
ऑस्ट्रिया की साल्ज़बर्ग यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक इवा योनास कहती हैं कि, "अगर हम लोगों को ये सच्चाई स्वीकार करने के लिए प्रेरित करें कि मौत तो ज़िंदगी का ही हिस्सा है, तो हमारा रोज़मर्रा का बर्ताव काफ़ी बदल जाएगा। चीज़ों को देखने का नज़रिया भी बदल जाएगा।" जब ये एहसास होगा कि हर इंसान एक ही नाव पर सवार है, तो मरने-मारने और नुक़सान पहुंचाने को लेकर भी ख़यालात बदलेंगे।
 
मौत को धोखा देने का रास्ता
समाज के तौर पर हम मौत को किस तरह लेंगे, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि निजी तौर पर इंसान मौत को किस नज़र से देखेगा। और ये निजी सोच हर इंसान के व्यक्तित्व के हिसाब से बदल जाएगी।
 
 
ब्रिटेन की नॉटिंघम यूनिवर्सिटी की लॉरा ब्लैकी कहती हैं कि, "लोग जितने ही फिक्रमंद मिज़ाज के होंगे, उतना ही उनकी सोच मौत की तरफ़ जाएगी। ऐसे लोग ज़िंदगी को नए मायने नहीं दे पाएंगे। लेकिन अगर किसी को ये बताया जाए कि वो 90 साल की उम्र में सोते हुए शांति से मरेगा। तो, शायद वो ये कहेगा कि ये तो ठीक है और ज़िंदगी के सफ़र पर आगे बढ़ जाएगा।"
 
 
ज़िंदगी 13 बरस में ख़त्म होगी, या 113 में, इसे लेकर इंसान की सोच पर बीमार लोगों की मानसिकता से काफ़ी रोशनी पड़ सकती है। बीमार लोग अक्सर दो तरह के विचार के शिकार होते हैं। पहले तो वो अपनी बीमारी की पड़ताल को लेकर ही शंका ज़ाहिर करते हैं। सवाल उठाते हैं कि आख़िर इसमें कितनी सच्चाई है।
 
 
फिर वो सोचते हैं कि बची हुई ज़िंदगी का कैसे बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं। या तो वो अपनी सारी ऊर्जा बीमारी को हराने और कुछ नया करने में लगाते हैं। या फिर शांति से अब तक बिताई हुई ज़िंदगी के अच्छे-बुरे पहलुओं को याद करने, अपने क़रीबी लोगों के साथ ख़ुशनुमा वक़्त बिताने में बेहतरी समझते हैं।
 
 
पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के क्रिस फ्यूडटनर कहते हैं कि जब लोग मौत की घड़ी क़रीब देखते हैं, तो, उनके दो अलग-अलग दिशाओं में चल पड़ने का अंदेशा रहता है। जो इसे हराने की दिशा में जाना चाहते हैं, वो पूरी ताक़त से मौत को टालने की जुगत भिड़ाने लगते हैं। जैसे किसी को ये बता दिया जाए कि वो डूबने से मरेगा, तो वो शख़्स तैराकी की ज़ोरदार ट्रेनिंग में जुट जाता है। इसी तरह अगर किसी को कहा जाए कि वो सड़क हादसे में मरेगा, तो वो शायद घर से निकलने से ही कतराए।
 
 
क्रिस के मुताबिक़, कुछ लोग मौत को धोखा देने के रास्ते पर भी चल पड़ते हैं। इससे उन्हें हालात पर ख़ुद के क़ाबू होने का एहसास होता है। मौत की सज़ा पाने वाले जो लोग नियति को स्वीकार कर लेते हैं, वो बचे हुए वक़्त का बेहतर इस्तेमाल करने की सोचते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक तौर पर ज़्यादा क्रिएटिव हो जाते हैं।
 
 
क्रिस कहते हैं कि, "मौत का दिन पता होने पर इंसान का बेहतर किरदार सामने आएगा। तब हम अपने परिवार और समाज के लिए ज़्यादा योगदान देने के लिए प्रेरित होंगे।"
 
 
लॉरा ब्लैकी कहती हैं कि भयानक तजुर्बों से गुज़रने वालों में ये पॉज़िटिव बदलाव देखे गए हैं। वो ज़िंदगी की अहमियत को ज़्यादा शिद्दत से समझने लगते हैं। वैसे कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो मौत क़रीब देख कर हथियार डाल देते हैं। उन्हें लगता है कि जब मर ही जाना है, तो कुछ भी करने से क्या फ़ायदा। उनका शराब पीना और धूम्रपान करना तेज़ हो जाता है। कई लोग ड्रग भी लेने लगते हैं। फिर वो सेहत का ख़याल कम करने लगते हैं।
 
 
वैसे, शेल्डन सोलोमन कहती हैं कि ज़्यादातर लोग मौत का दिन जानने के बाद बीच का रास्ता चुनेंगे। कभी वो बेतरतीब खान-पान करेंगे। तो कभी उनका बर्ताव समाज और परिवार के प्रति ज़्यादा ज़िम्मेदारी भरा भी होगा। क्रिस फ्यूडटनर कहते हैं कि इंसान आम तौर पर बदलाव से तनाव में आ जाता है। यहां तो ज़िंदगी के मायने ही बदल जाएंगे।
 
 
धार्मिक सोच पर असर
हम दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों, मौत का दिन पता हो गया तो हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पूरी तरह से बदल जाएगी। कई लोग मनोचिकित्सकों की मदद लेंगे। तो कुछ धर्म का सहारा लेंगे। धार्मिक कर्मकांड में उनकी आस्था बढ़ जाएगी। चर्च, मंदिर या मस्जिद जाने का सिलसिला तेज़ हो जाएगा।
 
 
कुछ जानकार कहते हैं कि हमारी मौजूदा धार्मिक आस्थाओं की बुनियाद ही हिल जाएगी। हो सकता है कि तब नए धर्म का उदय हो। मौत का दिन तय होने का हमारे रिश्तों पर भी गहरा असर पड़ेगा। हो सकता है कि लोग ऐसे जीवनसाथी की तलाश करें, जिसकी मौत का दिन उनकी मौत के दिन के क़रीब हो।
 
 
हो सकता है कि डेटिंग ऐप्स ऐसे फिल्टर लगाएं, जिससे आपको अपने रोमांटिक साथी की मौत की तारीख़ से अपना मिलान करने में सहूलियत हो। मौत के एहसास से सबसे ज़्यादा तकलीफ़ अपनों से जुदा होने के ख़याल से होती है। ऐसी सूरत में लोग उसके साथ क्यों रहना चाहेंगे जो 40 की उम्र में ही जुदा हो जाएगा जबकि उनकी ख़ुद की ज़िंदगी 89 बरस की होगी।?
 
 
मौत का दिन पता होने पर हो सकता है कि बहुत से मां-बाप अपना गर्भ गिराने का काम भी करें। क्योंकि जब उन्हें पता होगा कि बच्चे की आमद से कुछ दिन बाद ही वो उससे दूर चले जाएंगे, तो ऐसे बच्चे को दुनिया में लाने की व्यर्थता का एहसास शिद्दत से होगा। हो सकता है कि कुछ लोग अपनी मौत का दिन जानने के बाद बच्चे ही न पैदा करें। या ये भी हो सकता है कि ढेर सारे बच्चे पैदा करें।
 
 
तब शायद हमें नए नियम-क़ानून भी बनाने पड़ सकते हैं। कर्मचारियों की मौत के दिन को प्राइवेसी का हिस्सा बनाने का नियम तो सबसे ज़रूरी होगा ताकि उसके रोज़गार पर असर न पड़े। इस आधार पर भेदभाव न हो। वहीं, चुनाव लड़ने वालों को उम्मीदवारी से पहले मौत की तारीख़ बतानी होगी। न बताने पर हंगामा खड़ा हो सकता है। अब कोई राष्ट्रपति बनने के तीन दिन बाद ही मर जाने वाला हो, तो उसे कोई क्यों चुनेगा?
 
 
हो सकता है कि कुछ लोग अपनी मौत का दिन टैटू के तौर पर शरीर पर गुदवा लें। जिससे किसी हादसे की सूरत में लोगों को ये अंदाज़ा हो कि उसकी जान बचाने की कोशिश करें या इसमें समय न बर्बाद करें। अंतिम संस्कार के कारोबार पर भी इसका गहरा असर होगा। क्योंकि किसी इंसान के दुख में इसका कारोबार करने वाले बिछड़ने के दर्द को भुना नहीं पाएंगे। यानी ग्राहकों के पास ज़्यादा ताक़त होगी।
 
 
मौत के दिन हो सकता है कि बहुत से लोग जश्न मनाएं। बड़ी-बड़ी, शानदार पार्टियां दें, जलसे करें। ठीक उसी तरह जैसे आज लोग ख़ुद से मौत को चुनने के बाद करते हैं। जिन्हें ये पता होगा कि उनकी मौत के तरीक़े से लोगों को चोट पहुंचेगी वो शायद अफ़सोस करें। ख़ुद को अलग-थलग रखें।
 
 
इसमें कोई दो राय नहीं कि मौत का दिन पता चलने पर मानवता बहुत बदल जाएगी। लेखिका कैटलिन डाउटी कहती हैं कि इंसानी सभ्यता मौत के विचार के इर्द-गिर्द विकसित हुई है। ऐसे में अगर सब को मौत का दिन और वक़्त पता चल जाएगा, तो हमारी सभ्यता की बुनियाद हिल जाएगा।
 
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