शनिवार, 27 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. BR Ambedkar
Written By
Last Updated : गुरुवार, 26 नवंबर 2015 (11:16 IST)

आम्बेडकर के आगे नतमस्तक क्यों संघ और भाजपा?

आम्बेडकर के आगे नतमस्तक क्यों संघ और भाजपा? - BR Ambedkar
अपूर्वानंद

भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 26 नवंबर को बड़े पैमाने पर संविधान दिवस मनाने का ऐलान किया है। अलग-अलग मंत्रालय लेख-भाषण प्रतियोगिता के साथ समानता-दौड़ आदि का भी आयोजन कर रहे हैं। इसे एक बड़े अभियान के हिस्से के रूप में देखा जा रहा है जिसका दूसरा हिस्सा है अचानक राष्ट्रीय स्वयंसेवक और भारतीय जनता पार्टी के भीतर बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर के प्रति उमड़ी श्रद्धा और प्रेमभाव। दूसरे, यह पिछले एक साल से अब तक जानी हुई तिथियों को नई-नई राष्ट्रीय तिथियों से बदलने की भी एक कवायद है।


जिन दिवसों को हिलाया नहीं जा सकता उनसे जुड़े संदेश को पूरी तरह परिवर्तित कर देने की कोशिश तो साफ़ दिख रही है। गांधी जयंती को स्वच्छता दिवस में तब्दील कर गांधी की राजनीति और जीवन के मूल संप्रदायवाद विरोधी विचार को सार्वजनिक स्मृति से मिटा देने का षड्यंत्र पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है, भले ही गांधी को सरकार का स्वच्छता अभियान का ‘ब्रांड एंबेसेडर’ क्यों न बना दिया गया हो।

जो चश्मा गांधी के चेहरे से छिटककर बिड़ला भवन की ज़मीन पर तब गिर गया था, जब नाथूराम गोडसे ने मुसलमानों का पक्षधर होने के अपराध की सज़ा देने के लिए उन्हें गोली मारी थी, उसे उठाकर संघ की सरकार ने सरकारी विज्ञापन में सजा दिया है। उसी तरह शिक्षक दिवस को शिक्षकों से छीनकर प्रधानमंत्री का उपदेश दिवस बना दिया गया है जिसमें शिक्षकों की उपस्थिति उनका उपदेश सुनाने के लिए इंतज़ामकार भर की रह गई है।

14 नवंबर के कार्यक्रम से नेहरू की तस्वीर ग़ायब कर दी गई है और इंदिरा को तो याद करने का सवाल ही नहीं उठता। राष्ट्र दरअसल कल्पना का ख़ास ढंग का संगठन ही है इसलिए प्रतीकों का काफ़ी महत्व होता है। जिन प्रतीकों के माध्यम से हम अपनी राष्ट्र की कल्पना को मूर्त करते हैं, उनकी जगह नए प्रतीक प्रस्तुत करके एक नई कल्पना को यथार्थ करने का प्रयास होता है।

तो हम उस राजनीतिक दल के संविधान प्रेम को कैसे समझें जिसकी पितृ-संस्था यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उस पर मात्र इसलिए अपना विश्वास जताया था जिससे उस पर गांधी की हत्या के बाद लगा प्रतिबंध हटाया जा सके।

आख़िर यही शर्त सरदार पटेल ने उसके सामने रखी थी। वरना उसका ख़्याल था कि मनुस्मृति से बेहतर संविधान क्या हो सकता है!

याद रहे कि इस संगठन ने तिरंगा ध्वज को भी मानने से इंकार किया था यह कहकर कि 3 रंग अशुभ और अस्वास्थ्यकर होते हैं। इस तिरंगे के चक्र पर इस संघ और दल के एक वरिष्ठ नेता, अब मूक मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी ने यह कहकर ऐतराज़ जताया था कि यह बौद्ध धर्म का प्रतीक है। फिर ये सबके सब संविधान और तिरंगे के प्रेमी कैसे हो गए?

भारतीय संविधान की आत्मा है बराबरी और इंसाफ़। आम्बेडकर ने इस संविधान के बनने के बहुत पहले कहा था कि विधायिका जनता का प्रतिनिधित्व करती है, न कि मात्र बुद्धिजीवियों का। उनका आशय पढ़े-लखे लोगों को ही प्रतिनिधित्व का अधिकार देने से था।

भारतीय संविधान जनता को संप्रभु मानता है और भारतीय राज्य अपनी संप्रभुता उसी जनता से ग्रहण करता है। यह ऐसा विलक्षण संविधान है जिसने एक ही बार हर वयस्क को मताधिकार दिया, उसमें किसी तरह की कोई शर्त नहीं लगाई।

ऐसा करके उसने साधारण भारतीय जन की विवेक क्षमता पर भरोसा जताया। क्या जनतंत्र जैसे आधुनिक विचार का अभ्यास अनपढ़ जनता कर पाएगी? साल-दर-साल उस जनता ने इस विश्वास को सही साबित किया।

इस तरह एक तरफ़ जहां संविधान जनता के लिए एक कसौटी है तो दूसरी ओर जनता संविधान की कसौटी है। इस बात को ध्यान में रखते हुए कम से कम 3 राज्य सरकारों की कोशिश देख लें, जो उन्होंने स्थानीय निकायों के चुनाव में जनता की भागीदारी को सीमित करने के लिए की।

एक ख़ास दर्जे तक पढ़े होने पर ही जनप्रतिनिधि बनने की योग्यता होगी, इस तरह का क़ानून लाने का प्रयास गुजरात, राजस्थान और हरियाणा की भारतीय जनता पार्टी की सरकारें कर रही हैं। यह भारतीय संविधान की मूल आत्मा के ख़िलाफ़ है। ये सरकारें जनता के एक बड़े हिस्से को जनता का प्रतिनिधित्व करने के अयोग्य ठहरा रही हैं।

आज़ादी के बाद से साधारणजन का ऐसा अपमान शायद ही कभी किया गया हो। उसी तरह आज के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में गुजरात सरकार ने सबको जबरन मतदान करने संबंधी क़ानून भी पेश किया था। यह भी ध्यान रखें कि इसी प्रधानमंत्री के नेतृत्व में गुजरात में गांवों को इसके लिए उत्साहित किया जा रहा था कि वे बिना चुनाव के समरस ग्राम-पंचायतें बना लें।

बिना चुनाव के गांवों में सर्व-सहमति से पंचायतें जहां बनेंगी, उन गांवों को अधिक आर्थिक अनुदान मिलेगा, यह प्रलोभन भी दिया गया। एक तरफ़ जबरन मतदान, दूसरी ओर मतदानरहित ग्राम-पंचायत चुनाव, तीसरी तरफ़ जनप्रतिनिधि बनने के रास्ते में रोड़े अटकाना- यह सब उस भारतीय जनता पार्टी की सरकारें कर रही हैं, जो आज धूमधाम से संविधान का उत्सव मनाना चाहती है।

इसी सरकार के वित्तमंत्री राज्यसभा को ग़ैरज़रूरी ठहरा रहे हैं, क्योंकि वह उनकी हर पेशकश पर अपनी मुहर नहीं लगा रही है। याद रहे कि इसी दल की सरकार ने राजस्थान में उच्च न्यायालय के सामने हिन्दुओं के आदि विधिवेत्ता मनु की प्रतिमा भी लगवा दी है। एक है वर्तमान की मजबूरी यानी संविधान की रक्षा के लिए बना न्यायालय और दूसरा है भविष्य का लक्ष्य यानी मनुस्मृति का भारत।

2015 एक ऐसे साल के रूप में याद किया जाएगा, जब भारत के अल्पसंख्यक सबसे अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे थे। भारत के संविधान की बुनियादी प्रतिज्ञा अल्पसंख्यकों के सारे अधिकारों की हिफ़ाज़त और उन्हें मुल्क पर बराबरी का हक़ देने की है। आज दिन ऐसा है कि उनके भीतर की इस असुरक्षा की बात करने को देशद्रोह जैसा बड़ा अपराध भी घोषित कर दिया गया है।

संविधान आज उनके हाथों में है, जो बरसों भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदल देने का सपना देखते रहे थे। वे जब संविधान का जश्न मनाएं, तो जश्न दरअसल उस पर क़ब्ज़े का है।