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Written By WD

'दर्द मिन्नत कशे-दवा न हुआ'

ग़ालिब की ग़ज़ल मतलब के साथ (5)

''दर्द मिन्नत कशे-दवा न हुआ'' -
पेशकश : अज़ीजअंसार

दर्द मिन्नत कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

Aziz AnsariWD
चूँकि मेरे इश्क़ के दर्द का कोई इलाज न था, इसलिए हर दवा बेअसर साबित हुई। इससे ये फ़ायदा हुआ के मेरे दर्द को दवा का एहसान उठाना नहीं पड़ा। इसलिए अगर अच्छा नहीं हुआ तो ये अच्छा ही हुआ वरना दवा का एहसान मुझ पर हो जाता।

जमआ करते हो क्यों रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हु

तुम शिकवे-शिकायत करने के लिए दुश्मनों को क्यों जमा करते हो। इस तरह तो अगर तमाशा न भी होगा तो ये लोग तुम्हारे शिकवे-शिकायत को तमाशा बना देंगे.

हम कहाँ क़िसमत आज़माने जाएँ
तू ही जब ख़ंजर आज़मा न हु

जब तू ही हम पर अपना ख़ंजर आज़माने को तैयार नहीं है तो हम क़त्ल होने के लिए किसके पास जाएँ। अगर तू अपना ख़ंजर चला ले तो हमारी क़िसमत खुल जाए।

कितने शीरीं हैं तेरे लब के रक़ीब
गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ

तेरे होंठों की मिठास भी ख़ूब है जहाँ गालियाँ भी मीठी हो जाती हैं। तूने तो रक़ीब को बुरा-भला कहा मगर फिर भी उसे बुरा न लगा। उसे तो तेरे लबों से निकले हुए कड़वे लफ़्ज़ भी मीठे लगे।

है ख़बर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ

  नमरूद एक ऐसा बादशाह हुआ है जो अपने आप को ख़ुदा समझता था। उसके ज़माने में उसकी बन्दगी करने वाले का भला न हो, ये बात तो समझ में आती है।      
एक बोसीदा सा (फटा-पुराना) बोरिया घर में हुआ करता था। लेकिन जब आज वो आने वाले हैं तो वो बोरिया भी घर में नहीं है। ये हमारी ग़रीबी और बेकसी की हद है।

क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बन्दगी में मेरा भला न हुआ

नमरूद एक ऐसा बादशाह हुआ है जो अपने आप को ख़ुदा समझता था। उसके ज़माने में उसकी बन्दगी करने वाले का भला न हो, ये बात तो समझ में आती है। लेकिन मैं तो ऎ ख़ुदा तेरी ख़ुदाई में रहता हूँ, तेरी बन्दगी करता हूँ फिर मेरा भला क्यों नहीं हुआ।

जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो ये है के हक़ अदा न हुआ

हमारी जान तो ख़ुदा की ही दी हुई है अगर ये हम उसको वापस लौटा देते हैं तो कौन सा अपना हक़ अदा करते हैं? हक़ तो तब अदा होता जब हम कोई ऐसी चीज़ लौटाते जो उसकी दी हुई न होती।

ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवा न हुआ

हमारा कोई काम रुक गया तो रुक ही गया। जबके ज़ख़्म भर जाने के बाद भी उससे लहू रिसता रहा। काश जिस तरह लहू नही रुका इसी तरह हमारा काम भी न रुकता।

रेह ज़नी है के दिल सतानी है
लेके दिल दिलसिताँ रवाना हुआ

मेहबूब ने राह चलते मेरा दिल छीना और चलते बना। इसे दिल चुराना नहीं कहते इसे डाका डालना कहते हैं।

कुछ तो पढ़िए के लोग कहते हैं
आज ग़ालिब ग़ज़ल सरा न हुआ

ग़ालिब साहब कुछ तो सुनाइए। सब लोग कह रहे हैं आज ग़ालिब साहब ने कोई शे'र नहीं सुनाया।