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Written By WD

पितृ शांति के लिए अवश्य करें श्राद्ध

श्राद्ध रूप में अवश्य लगाएं पेड़-पौधे

पितृ शांति के लिए अवश्य करें श्राद्ध -
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पितृ ऋण यानि हमारे उन पालकों का ऋण जिन्होंने हमारे इस शरीर को पाला-पोसा, बड़ा किया, योग्य बनाया एवं हमें आश्रय दिया। उन्हीं की प्रत्यक्ष सेवा से हम इस योग्य बन सके हैं जितने आज हैं। यह उनका हम पर ऋण है। इसलिए पितृ ऋण को प्रमुखता देते हुए हमारी संस्कृति में वन्दन का नियम है। अभिवादन न्यूनतम तर्पण है।

इसमें माता-पिता ही नहीं, उनकी समान आयु स्तर के सभी लोग समझे जा सकते हैं, बड़े भाई को भी पिता तुल्य माना गया है। यह सभी प्रकारान्तर से गुरुजन हैं। इनका जीवित अवस्था में नित्य प्रति नमन वंदन का नियम है।

जो पितृ गण दिवंगत हो चुके हैं उनके लिए तर्पण श्राद्ध का विधान है। श्रद्धांजलि पूजा-उपचार का सरलतम प्रयोग है। अन्य उपचारों में वस्तुओं की जरूरत पड़ती है। कभी उपलब्ध होती हैं, कभी नहीं, किंतु जल ऐसी वस्तु है जिसे हम दैनिक जीवन में अनिवार्यतः प्रयोग करते हैं। वह सर्वत्र सुविधापूर्वक मिल भी जाता है।

इसलिए पुष्पांजलि आदि श्रमसाध्य श्रद्धांजलियों में जलांजलि को सर्वसुलभ माना गया है। उसके प्रयोग में आलस्य और अश्रृद्धा के अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं हो सकता। इसलिए सूर्य नारायण को अर्घ्य, तुलसी वृक्ष में जलदान, अतिथियों को अर्घ्य तथा पितर गणों को तर्पण का विधान है।

प्रश्न यह नहीं है कि उन्हें इस पानी की आवश्यकता है या नहीं। प्रश्न केवल अपनी अभिव्यक्ति भर का है। उसे निर्धारित मन्त्र बोलते हुए, गायत्री महामंत्र में अथवा बिना मंत्र के भी जलांजलि दी जा सकती है। यही है उनके प्रति पूजा-अर्चना का सरलतम विधान।

शास्त्रीय भाषा में इसे 'तर्पण' कहा जाता है। इसमें यह तर्क करने की गुंजाइश नहीं है कि यह पानी उन पूर्वजों तक या सूर्य तक पहुंचा या नहीं। इसके पीछे अपनी कृतज्ञता भरी भावनाओं को सींचते रहने की अभिव्यक्ति की ही प्रमुखता है। इसलिए उसे किसी पर अहसान करने के लिए नहीं, वरन्‌ अपनी निज की श्रद्धा को सींचते रहने के लिए किया जाता रहना चाहिए।

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पितृ ऋण को चुकाने के लिए दूसरा कृत्य आता है- 'श्राद्ध'। श्राद्ध का प्रचलित रूप तो 'ब्राह्मण भोजन' मात्र रह गया है, पर बात ऐसी है नहीं। अपने साधनों का एक अंश पितृ प्रयोजनों के निमित्त ऐसे कार्यों में लगाया जाना चाहिए जिससे लोक कल्याण का प्रयोजन भी सधता हो।

ऐसे श्राद्ध कृत्यों में समय की आवश्यकता को देखते हुए वृक्षारोपण ऐसा कार्य हो सकता है, जिसे बह्मभोज से भी कहीं अधिक महत्व का माना जा सके। किसी व्यक्ति को भोजन करा देने से उसकी एक समय की भूख बुझती है।

दूसरा समय आते ही फिर वह आवश्यकता जाग पड़ती है। उसे कोई दूसरा व्यक्ति कहां तक, कब तक पूरा करता रहे। फिर यदि कोई व्यक्ति अपंग, मुसीबतग्रस्त या लोकसेवी नहीं है तो उसे मुफ्त में भोजन कराते रहने के पीछे किसी उच्च उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। मात्र लकीर पीटने जैसी चिह्न पूजा की परम्परा ही निभती है।

इससे अच्छा यह है कि श्राद्ध रूप में ऐसे वृक्ष लगाए जाएं जो किसी न किसी रूप में प्राणियों की आवश्यकता पूरी करते हों।