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Written By ND

ग्वारपाठा : अब बना फसल

ग्वारपाठा : अब बना फसल -
- मणिशंकर उपाध्याय
ग्वारपाठा या घीग्वार, जो मूल रूप से जंगलों में अपने आप उगता पाया जाता है, अब व्यवस्थित रूप से खेतों में उगाया जाने लगा है। इसका उपयोग भारतीय आयुर्वेद एवं यूनानी शफाओं में पाचन संस्थान विशेष रूप से लीवर या जिगर संबंधी कमजोरी और व्याधियों को ठीक करने के अलावा चर्मरोगों व जलने एवं झुलसने के कारण त्वचा की खराबी को दूर करने तथा सौंदर्य प्रसाधनों में भी उपयोगी माना गया है। इसलिए अब लोगों का ध्यान इसकी व्यावसायिक खेती की ओर आकृष्ट हो रहा है।

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इसके लिए हल्की से मध्यम किस्म की दुमट, बलुई दुमट, कछारी (एलूवियल) मिट्टी वाले खेत ही चुनें। भारी और चिकनी मिट्टी में बरसात में पानी भरा रहने पर फसल खराब हो सकती है। खेत बखरने के बाद पाटा अथवा पठार चलाकर खेत को समतल करें। इसी समय 200 से 250 क्विंटल गोबर की अच्छी तरह पची और पकी हुई (फरमेंटेड) खाद या शहरी कम्पोस्ट खाद खेत में जगह-जगह ढेरियाँ बनाकर समान रूप से बिखेर दें। इसके बाद दाँतेदार बखर (स्पाइक टुथ हेरो) या दतारी चलाकर उसे मिट्टी के साथ अच्छी तरह मिला दें। यदि उपलब्ध हो तो एक बार रोढोवेटर चलाएँ।

बुवाई के लिए डेढ़ से दो फुट की दूरी पर नौ से बारह इंच ऊँची मेढ़ व नालियाँ बनाएँ। शिशु पौधों को एक फुट की दूरी पर लगाया जाता है। लगभग 22 हजार पौधे एक एकड़ के लिए चाहिए। भारी व उपजाऊ मिट्टी में इन्हें कतार में दो फुट व पौधों के बीच डेढ़ फुट की दूरी पर लगाया जाना चाहिए। इस अंतर पर प्रति एकड़ लगभग 15 हजार पौधों की जरूरत होती है।

बोवनी के तत्काल बाद एक हल्की सिंचाई कर 20-25 दिन बाद 25 किलोग्राम यूरिया, 50 किग्रा सुपर फास्फेट व 30 किग्रा म्यूरेट ऑफ पोटाश मिलाकर नालियों में डालकर गुड़ाई कर हल्की सिंचाई कर दें। खरपतवारों को निकालने व पौधों के जड़ क्षेत्र में वायु का संचार के लिए आवश्यकतानुसार निंदाई व गुड़ाई करते रहें। जड़ें खुली दिखें तो उन पर मिट्टी चढ़ाते रहें।

ग्वारपाठा के पौधों को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है, परंतु खेत में हल्की नमी बनी रहे व दरारें नहीं पड़ना चाहिए। इससे पत्तों का लुबाब सूख कर सिकुड़ जाते हैं। बरसात के मौसम में संभालना ज्यादा जरूरी होता है। खेत में पानी भर जाए तो निकालने का तत्काल प्रबंध करें। लगातार पानी भरा रहने पर इनके तने (पत्ते) और जड़ के मिलान स्थल पर काला चिकना पदार्थ जमकर गलना शुरू हो जाता है।

खुश्क मौसममें इनका विकास अच्छा होता है। पौधे को पूर्ण विकसित होने में आठ से बारह महीने लग जाते हैं। इसके पौधे की पत्तियों के पूरी तरह बढ़ जाने पर तेजधार वाले चाकू से काट लिया जाता है। इसी पौधे से पुनः नई पत्तियाँ आने लगती हैं। जब नई पत्तियाँ आने लगे, उस समय 40 किग्रा नत्रजन, 30 किलो स्फुर व 20 किग्रा पोटाश प्रति एकड़ से हिसाब से नालियों की मिट्टी के साथ मिलाकर सिंचाई कर दें।

एक बार लगाने पर तीन से पाँच साल तक उपज ली जा सकती है। पत्तियों को काटने के बाद दोनों तरफ से काँटे निकाल दें। इसके बाद पत्तों को खड़ा चीरकर बीच का लसीला गूदा अलग बर्तन में एकत्र कर लें। इसे धूप में सूखाकर या बिजली से चलने वाले यांत्रिक सुखावकों में रखकर सुखाया जाता है। यदि क्रीम, पेस्ट या आयुर्वेदिक द्रव या तरल उत्पाद बनाना हो तो इस लुबाब को ऐसे ही उपयोग में लाया जाता है। उस उत्पाद के अनुसार उसका प्रसंस्करण कर लिया जाता है।

यदि ग्वारपाठे के एक स्वस्थ पौधे से 400 ग्राम (मिली) गूदा भी निकले तो एक एकड़ के 20000 पौधों से 8000 किग्रा गूदा प्राप्त होगा। यदि इसका कम से कम बिक्री भाव 100 रु. प्रति किग्रा भी लगाया जाए तो आठ लाख रुपए होता है। ये सब अनुमानित आकलन है।

सावधानी- इसकी व्यापारिक खेती से पहले इसकी बिक्री संबंधी खात्री अवश्य कर लें।