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Written By WD

संत तुकाराम

'झूठ लंबे समय तक संभाला नहीं जा सकता'

संत तुकाराम -
ज्योत्स्ना भोंडव
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वे केवल वारकरी संप्रदाय के ही शिखर नहीं वरन दुनियाभर के साहित्य में भी उनकी जगह असाधारण है। उनके अभंग अँगरेजी भाषा में भी अनुवादित हुए हैं। उनका काव्य और साहित्य यानी रत्नों का खजाना है। यही वजह है कि आज 400 साल बाद भी वे आम आदमी के मन में सीधे उतरते हैं। दुनियादारी निभाते एक आम आदमी संत कैसे बना, साथ ही किसी भी जाति या धर्म में जन्म लेकर उत्कट भक्ति और सदाचार के बल पर आत्मविकास साधा जा सकता है। यह विश्वास आम इंसान के मन में निर्माण करने वाले थे संत तुकाराम यानी तुकोबा।

अपने विचारों, अपने आचरण और अपनी वाणी से अर्थपूर्ण तालमेल साधते अपनी जिंदगी को परिपूर्ण करने वाले तुकोबा जनसामान्य को हमेशा कैसे जीना चाहिए, ये प्रेरणा देते हैं।

जिंदगी के पूर्वार्द्ध में आए हादसों से तुकोबा हारकर निराश हो चुके थे। जिंदगी से उनका भरोसा उठ चुका था। ऐसे में उन्हें किसी सहारे की बेहद जरूरत थी, लौकिक सहारा तो किसी का था नहीं। सो पाडुरंग पर उन्होंने अपना सारा भार सौंप दिया और साधना शुरू की, जबकि उस वक्त उनका गुरु तो कोई भी न था

विट्ठल भक्ति की परपंरा का जतन करते नामदेव की भक्ति करते अभंग की रचना की। दुनियादारी से लगाव छोड़ने की बात भले ही तुकोबा ने कही हो लेकिन दुनियादारी मत करो, ऐसा कभी नहीं कहा। सच कहें तो किसी भी संत ने दुनियादारी छोड़ने की बात की ही नहीं। उल्टे संत नामदेव, एकनाथ ने सही व्यवस्थित तरीके से दुनियादारी निभाई।

"आधी प्रपंच करावा नेटका"तो समर्थ रामदास ने भी कहा है। दुनियादारी यह उचित कर्म है, कर्तव्य है जिसे अच्छी तरह से करना चाहिए, लेकिन उसे करते वक्त औचित्य, विवेक, समभाव रखना होता है। कहाँ रुकना है, यह मालूम होना चाहिए। भक्ति भी दुनिया में रहते हुए ही करना चाहिए। दुनियादारी के बाबद तुकोबा कहते हैं "प्रपंच हर इंसान को खुद को सिद्ध करने का रणांगण है।" इसीलिए वे दुनियादारी का स्वागत करते हैं। निवृत्ति का अर्थ निरसन करना है, सुख व दुःख दोनों को समान मानते जीना। संत ज्ञानेश्वर के शब्दों में- "निद्रिस्ताचे शेजे सर्प की उर्वशी "गहरी नींद में सोए इंसान के नजदीक में कौन सोया है, इसका भी ध्यान नहीं रहता।

  उनकी गहरी अनुभव दृष्टि बेहद गहरे व ईशपरक रही, जिसके चलते उन्हें कहने में संकोच न था कि उनकी वाणी स्वयंभू ,ईश्वर की वाणी है। वे तो मजदूर की तरह जी रहे थे।      
दुनिया में कोई भी दिखावटी चीज नहीं टिकती। झूठ लंबे समय तक संभाला नहीं जा सकता। झूठ से सख्त परहेज रखने वाले तुकोबा को संत नामदेव का रूप माना गया है। इनका समय १७वीं सदी के पूर्वार्द्ध का रहा। वे समर्थ रामदास व छत्रपति शिवाजी के समकालीन थे। आपका व्यक्तित्व बड़ा मौलिक व प्रेरणास्पद है। निम्न वर्ग में जन्म लेने के बावजूद वे कई शास्त्रकारों व समकालीन संतों से बहुत आगे थे। वे धर्म व अध्यात्म के साकार विग्रह थे।

उनकी गहरी अनुभव दृष्टि बेहद गहरे व ईशपरक रही, जिसके चलते उन्हें कहने में संकोच न था कि उनकी वाणी स्वयंभू ,ईश्वर की वाणी है। वे तो मजदूर की तरह जी रहे थे। ईश्वर का यह भार निष्कपट एवं निस्वार्थ भाव से जनकल्याण के लिए ढो रहे थे।