योग के दूसरे अंग नियम का चौथा उपांग है ईश्वर प्राणिधान। इसे शरणागति योग या भक्तियोग भी कहा जाता है। यह योग मन के भटकाव को रोक कर शक्ति को एकत्रित और सक्रिय करने का योग है। ईश्वर को परमेश्वर, परमात्मा और ब्रह्म कहा जाता है। भगवान या देवता नहीं।
ईश्वर प्राणिधान योग अनुसार उस एक को छोड़ जो तरह-तरह के देवी-देवताओं में चित्त रमाता है उसका मन भ्रम और भटकाव में रम जाता है, लेकिन जो उस परम के प्रति अपने प्राणों की आहुति लगाने के लिए भी तैयार है, उसे ही 'ईश्वर प्राणिधान' कहते हैं। ईश्वर उन्हीं के साथ हैं जो उसके प्रति शरणागत हैं।
मन, वचन और कर्म से ईश्वर की आराधना करना और उनकी प्रशंसा करने से चित्त में एकाग्रता आती है। इस एकाग्रता से ही शक्ति केंद्रित होकर हमारे दु:ख और रोग कट जाते हैं। 'ईश्वर पर कायम' रहने से शक्ति का बिखराव बंद होता है।
ईश्वर आराधना को 'संध्या वंदन' कहते हैं। संध्या वंदन ही प्रार्थना है। यह आरती, जप, पूजा या पाठ से भिन्न है। संध्या वंदन के नियम है और उसके तौर-तरीके भी हैं।
इसका लाभ : परमेश्वर की भक्ति का आधार सकारात्मक भावना है। हमारे भीतर प्रतिक्षण अच्छी और बुरी भावना की उत्पत्ति सांसारिक प्रभाव से होती रहती है। इस प्रभाव से बचकर जो व्यक्ति ईश्वर का चिंतन या मनन करते हुए स्वयं के भीतर सकारात्मक और निर्मल भाव का विकास करने लगता है तो इसके अभ्यास से धीरे-धीरे उसके आस-पास शांति और सुख का वातावरण निर्मित होने लगता है। अच्छे वातावरण में रोग और शोक को मिटाने की ताकत होती है।
परमेश्वर के प्रति ईमानदार व्यक्ति के जीवन में सभी कार्यों के शुभ परिणाम आने लगते हैं। ईश्वर से बगैर मांगे उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होने लगती है। यह स्थिति शरणागति की होती है। शरणागति की स्थिति में भक्त लगातार ईश्वर की शरण में होता है। ईश्वर को छोड़कर किसी ओर को ईश्वर या ईश्वर तुल्य भी नहीं समझना चाहिए यही ईश्वर प्राणिधान योग है।