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प्रेम अपरिभाषित
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पंकज जोशी धूप में जीवन की जबश्याम रंग को श्वेत करनेचले जो बसंत की बयार,छलकाती फिरे हर ओरप्रेम भाव अपरंपार...पेशानी की सिलवटों के बीचरास्ता बनाकर उमंग काबरसाए सुख की फुहार,मुस्कान बनकर होंठों कीबढ़ता प्रेम निराकार...शोरगुल में भीड़ केवह मौन होकर भीकरता ह्रदय में झंकार,शब्दों के परे रहकर प्रेमकह जाता किस्से हज़ार...छुईमुई के पौधे सा वो तोखिले कभी मुरझाए कभीछाए जब निश्छल स्पर्श बहार,शूल में कोमलता ढूँढेपत्थर को विस्मित करता प्यार...बुझी हुई आँखों को चीरहोंठों से श्रम कराकरकरता मुख का भाव श्रृंगार,मन की बंजर भूमि मेंबो देता नि:स्वार्थ विचार...सीमाएँ लांघके उड़तामिथकों को तोड़के जीतापरिवर्तनों को सुखद बनाकर,देता मन में विश्वास अपार,परिभाषा से अपरिचित है जो,ऐसा ही शायद होता प्यार???