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Written By ND

लादेन की खुशियों के क्षण...

लादेन की खुशियों के क्षण... -
जेद्दाह के अब्दुल्ला अजीज इब्न सऊद चौक पर स्थित अपने भव्य दफ्तर में बैठा हुआ ओसामा बिन लादेन एक दिन अपनी कंपनी के पिछले एक साल के कामकाज की समीक्षा कर रहा था।

दफ्तर में उस समय वह अकेला ही था और यह अकेलापन उसने खुद ही चुना था, ताकि अपने नए जीवन के एक साल की समीक्षा कर सके। उसके चारों तरफ ढेरों प्रोजेक्ट फाइलें, कंपनी की कई सालों की बैलेंस शीटें और उन ठेकों की फाइलें पड़ी थीं, जो पास हो चुके थे और शीघ्र ही उन पर काम शुरू किया जाना था।

कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर लादेन के हाथ बहुत तेज चल रहे थे और हर गुजरते पल के साथ उसके अंदर उत्साह का संचार बढ़ता जा रहा था। यह उत्साह पिछले एक साल की सफलता का था।

आतंकवादी जीवन से नाता तोड़ने के बाद लादेन ने जब से अपनी निर्माण कंपनी का कामकाज संभाला था तब से उसकी कंपनी दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से लाभ अर्जित कर रही थी। साल भर में ही कंपनी का कुल टर्न ओवर 300 मिलियन डॉलर से बढ़कर 350 मिलियन डॉलर (अर्थात लगभग 1470 करोड़ रुपए से बढ़कर लगभग 1715 करोड़ रुपए) हो गया था। इस तरह लादेन का यह बदला हुआ जीवन शांत और सफलताओं से भरा था।

जेहाद के मोर्चे से लौटने के बाद लादेन ने एक शादी और कर ली थी। इस तरह अब लादेन की बीवियों की संख्या तीन हो गई थी, जिनसे कुल मिलाकर 7 संतानें थीं। लादेन का सबसे बड़ा बेटा मुहम्मद अब 8 साल का हो गया था, जो कि उसकी दूसरी बीवी लैला खालिद सराह से था।

सराह से लादेन ने 1983 में तब शादी की थी जब वह अफगानिस्तान के मोर्चे पर सोवियत सैनिकों से लड़ रहा था। सराह से लादेन की मुलाकात अब्दुल अजीज विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान हुई थी। हालाँकि सराह न तो उसकी सहपाठी थी और न ही उसने विश्वविद्यालय स्तर तक पढ़ाई ही की थी।

दरअसल सराह मूल रूप से फिलिस्तीनी है। उसके पिता अबू यूसुफ उर्फ होज्जा उर्फ निज्जार अहमद बर्क 'मुस्लिम ब्रदरहुड' नामक आतंकवादी संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। 60 और 70 के दशक में सराह के पिता ने फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए इसराइल के विरुद्ध लंबे गुरिल्ला युद्धों में भाग लिया था। वे जोर्डन में मोसाद के एक खुफिया एजेंट द्वारा मारे गए थे।

पिता की हत्या के बाद सराह भी ब्रदरहुड में शामिल हो गई। वह संगठन के काम से ही अब्दुल अजीज विश्वविद्यालय आया करती थी। यहीं पर पहली बार शेख आजम के साथ लादेन की मुलाकात सराह से हुई थी। वह उसके साहस भरे जीवन, उसकी इस्लाम और मुस्लिम समुदाय के प्रति कट्टर निष्ठा को जानकर पहली मुलाकात में ही बहुत प्रभावित हुआ था। 1980 में दोनों ने तय किया कि वे इस्लाम के लिए साथ-साथ जिएंगे, मरेंगे। लेकिन उन दिनों अचानक जीवन इतना तेज रफ्तार हो गया कि दोनों को यानी लादेन और सराह को अलग-अलग मोर्चों में तैनात होना पड़ा।

फरवरी 1983 में जब लादेन ने जोर्डन की राजधानी अम्मान की यात्रा कुछ मुजाहिदीन रंगरूटों की भर्ती के लिए की, तब वहीं दोनों ने शादी की। लादेन की बाकी दो बीवियों रुखसाना और सोफिया का भी सक्रिय आतंकवादी जीवन से किसी न किसी तरह का रिश्ता रहा है। उसकी तीसरी बीवी सोफिया के बारे में समझा जाता है कि कश्मीर के कुछ आतंकवादी संगठनों से उसका रिश्ता रहा है। उसके बारे में यह चर्चा भी है कि वह पुराने हैदराबाद के चारमीनार इलाके में भी किसी मिशन के तहत कई महीने रुकी थी। लेकिन जब रॉ और आईबी जैसी खुफिया एजेंसियां उसके बारे में काफी कुछ जान गईं तो वह वहाँ से गायब हो गई। उसकी चौथी बीवी अफगान है।

बहरहाल, उन दिनों लादेन अपनी तीनों बीवियों और 7 बच्चों के साध जेद्दाह और रियाद में पुरसुकून जीवन जी रहा था। ये लोग कुछ दिन जेद्दाह की अपनी आलीशान कोठी में रहते थे, तो कुछ दिन रियाद के महलनुमा मकान में रहते थे। लादेन ने अपना कारोबार हालांकि एक तरह से अपने संयुक्त परिवार से अलग कर लिया था, लेकिन व्यावसायिक सहूलियतों के चलते लादेन परिवार के कई काम अभी भी साझे थे। सऊदी अरब ही नहीं खाड़ी के सभी देशों में उनके टक्कर की कोई दूसरी निर्माण कंपनी नहीं थी।

1990-91 में लादेन परिवार के इस निर्माण साम्राज्य का टर्न ओवर 85 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया था। यह हर गुजरते दिन के साथ बड़ी तेजी से आगे की ओर बढ़ रहा था। लादेन 27 देशों में फैले अपने कारोबार, दफ्तरों और उन दर्जनों जगहों से जहां उसकी कंपनी का निर्माण काम चल रहा होता था, हमेशा सीधे संपर्क में रहता था। 85 इंजीनियरों सहित लगभग 850 लोगों को उसकी निर्माण कंपनी में रोजगार मिला हुआ था। वह खुद 10-12 घंटे प्रतिदिन काम करता था।

लादेन की बीवियों और उसके बच्चों के हिसाब से उनकी जिंदगी के वे सबसे खुशहाल और शांतिपूर्ण दिन थे। आज की तरह उन दिनों उन्हें न तो हमेशा भगोड़ा जीवन व्यतीत करना पड़ता था और न ही उनके सिर पर हल पल अमेरिकी हमले का खतरा मंडराता था। वे दिन एक दूसरी ही तरह से लादेन के थे।

मस्जिद में जाकर जुमे की नमाज अदा करने वाले लादेन के, छुट्टियों के दिन बच्चों और पत्नियों के साथ शहर से दूर नखलिस्तानी रेस्तराओं में जाकर खाना खाने वाले लादेन के और शाह फहद के साथ इस्लाम के भविष्य को लेकर लंबी-लंबी बहसें करने वाले लादेन के। लेकिन ये दिन और यह दुनिया लादेन के जीवन में बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकी।