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अर्द्धनारी नटेश्वर : पुरुष में स्त्री और स्त्री में पुरुष

अर्द्धनारी नटेश्वर : पुरुष में स्त्री और स्त्री में पुरुष - ardhanarishwar
- पांडुरंग शास्त्री आठवले 
 
'नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्‌।
नगेन्द्रकन्या वृषकेतनाभ्यां नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम्‌॥' 
 
'कल्याण करने वाले नवयौवन से युक्त, परस्पर आश्लिष्ट शरीर वाले को नमस्कार! वृषभ का चिह्न जिसके ध्वज पर है, ऐसे शंकर और पर्वत की कन्या पार्वती को बार-बार नमस्कार!'
मानव बुद्धिमान प्राणी है, साथ-साध उसे भावपूर्ण हृदय भी मिला है। इसलिए सृष्टि केवल एक संयोग है ऐसा वह सहजता से नहीं मान सकता। सृष्टि के पीछे कोई निश्चित शक्ति काम करती है, ऐसा सतत्‌ उसे महसूस होता है। उस सृष्टि चालक के स्वरूप और उसके साथ अपने संबंधों के बारे में वह हजारों वर्षों से विचार करता रहा है। शास्त्रों के वाक्य, महापुरुषों के अनुभव और सृष्टि के प्रेरक दृश्य इसकी विचारधारा में सहायक हुए हैं।
 
निश्चित ही सृष्टि का सर्जन हुआ है, उसका पालन हो रहा है और जिसका सर्जन होता है, उसका विनाश निश्चित है, इस न्याय से सृष्टि का विसर्जन भी होगा, ऐसी उसकी बुद्धि स्पष्ट रूप से कल्पना कर सकती है। इसी कल्पना को सर्जक, पोषक और संहारक ऐसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश को साकार रूप में स्वीकार कर, मानव ने ठोस स्वरूप दिया है।
 
प्रारंभ की इस विशुद्ध कल्पना में मानव की मूर्खता घुसने के कारण ये तीनों देव अलग हैं ऐसा माना जाने लगा। इतना ही नहीं, परन्तु इन तीनों के संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं, ऐसा साबित करने का भी तत्‌-तत्‌ देव के उपासकों ने प्रयास किया। वास्तव में ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही शक्ति को दिए गए अलग-अलग नाम हैं। 
 
विभिन्न प्रकार के काम करता हुआ कोई व्यक्ति अलग-अलग नाम से पहचाना जाए तो उसे अलग-अलग व्यक्ति मानने की मूर्खता हम नहीं करते। व्यवहार में न चलने वाली यह गलत धारणा धर्म में सहज घुस गई है। वास्तव में सृष्टि के पीछे रही हुई शक्ति एक और अविच्छिन्न है। उसके द्वारा जब अलग-अलग काम होते हैं, तब उसे अलग-अलग नाम देने का शास्त्रकारों का संकेत है।

एक ही चिरंतन शक्ति की शास्त्रकारों ने कभी पुरुष रूप में तो कभी स्त्री रूप में कल्पना की है। वास्तव में वह शक्ति न तो पुरुष है और न ही स्त्री है। उस शक्ति के पौरुष और कर्तव्य की कल्पना करके हमारे ऋषियों ने उसे पुरुष ठहराया है, तो उसमें रहे प्रेम और कारुण्य को देखकर शास्त्रकारों ने उसकी स्त्री रूप में कल्पना की है।


'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' यहांं मांं भी है और पिता भी है। इन दोनों के गुणों का समावेश जिसमें हो ऐसे रूप की कल्पना करके शास्त्रकारों ने भगवान शिवजी को अर्धनारी नटेश्वर का रूप दिया है।
 
कालिदास ने भी रघुवंश में लिखा है- 'जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ'। यहां पितरौ शब्द की व्याख्या में माता भी छिपी हुई है। 'माता च पिता च पितरौ'। स्त्रीत्व के गुण और पुरुत्व के गुण एक मानव में एकत्र होते हैं, वहीं मानव ज्ञान का परमोच्च रूप है। केवल नारी के गुण मुक्ति के लिए उपयोगी नहीं हैं। मुक्ति पाने के लिए नर और नारी के गुण इकट्ठे आने चाहिए। इसलिए द्वैत निर्माण होते ही भगवान में नरनारी दोनों के गुण एकत्र हुए। 
 
उमा-महेश्वर में पौरुष, कर्तव्य, ज्ञान और विवेक जैसे नर के गुण हैं, उसके साथ-साथ स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे नारी के गुण भी हैं, इसलिए वह पूर्ण जीवन है।
 
भगवान को द्विलिंगी प्रजा उत्पन्न करने का कोई कारण नहीं था। भगवान एकलिंगी प्रजा उत्पन्न कर सकते थे। प्राणिशास्त्र का अभ्यास करने से मालूम होगा कि बहुत-सी प्रजा एकलिंगी है, परन्तु भगवान की द्विलिंगी प्रजा विकसित है, इसलिए बाप भी चाहिए और माँ भी चाहिए। बालक को बाप के गुण मिलने चाहिए और मां के गुण भी मिलने चाहिए, तभी वह विकसित जीव कहा जाता है। 

स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनना चाहिए, अर्थात्‌ पुरुष में स्त्री के और स्त्री में पुरुष के गुण आने चाहिए। इस तरह मिलकर ही विकास होता है। स्त्री के गुण पुरुष लें और पुरुष के गुण स्त्री लें, यही विकास है। इसीलिए हमें जन्म देने के लिए मां और बाप दोनों की जरूरत पड़ी। स्त्री-पुरुष विवाह करने पर ही पूर्ण होते हैं, ऐसा हम कहते हैं।
पुरुष के विवेक, कर्त्तव्य, पौरुष, निर्भयता, ज्ञान- ये सभी गुण स्त्री में आने चाहिए और स्त्री के लज्जा, स्नेह, प्रेम, दया, माया, ममता, इत्यादि गुण पुरुष में आने चाहिए। स्त्री-पुरुष के गुणों के मिलने से ही उत्कृष्ट मानव का का सर्जन होता है। जब भगवान ने सृष्टि निर्माण की तब, भगवान के पास नर और नारी के गुण एक साथ थे। इसका अर्थ यही है कि नरत्व और नारीत्व परस्वर चिपक बैठे।
 
इसलिए 'अर्धाङ्गे पार्वती दधौ।' ऐसा कहा जाता है। भगवान ने आधा अंग पार्वती को दे दिया, इसका कारण यही है। दार्शनिक दृष्टि से स्त्री पुरुष के गुण जहाँ एकत्र हों, उसे ही पार्वती-परमेश्वर कहते हैं। भगवान सिर्फ कर्त्तव्यवान नहीं, वे कृपालु हैं, दयालु हैं, मायालु हैं, वत्सल हैं और स्नेहीपूर्ण भी हैं। उसी तरह उनमें पौरुष, निर्भयता, विवेक भी है। ये सब मिलकर ही शिवजी होते हैं, उसे ही उमा महेश्वर कहते हैं।
 
परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्‌- शिव और पार्वती इन दोनों ने एक-दूसरे को जकड़ रखा है, आलिंगन दिया है। एक ही भगवान का रूप है, लेकिन उसमें नरगुणों और नारी गुणों का मिश्रण हुआ है। उसका अर्धनारी-नटेश्वर के रूप में चित्रण है। पुराण शिव-पार्वती का रतिसंभव अनादिकाल से अनंतकाल तक बताते हैं। उसका सही अर्थ यह है कि स्त्री-पुरुष के गुण परस्पराश्लिष्ट हैं।
 
भगवान का पौरुष कभी भी कारुण्य को छोड़कर नहीं रहता। पूर्ण जीवन के लिए पौरुष के लिए पौरुष के साथ-साथ कारुण्य होना चाहिए। कर्त्तव्य के साथ वत्सलता होनी चाहिए, उसी तरह विवेक के साथ प्रेम होना चाहिए। भगवान में ये गुण चिपककर बैठे हैं, स्त्री गुण और पुरुष गुण आलिंगन दे बैठे हैं।
 
हमारे पौराणिक वाङ्म्य समझ लेने जैसा है। विश्व में रहा हुआ नर रूप शिव है और नारीरूप उमा है और ये दोनों जगत्‌ के कारण रूप हैं। उपनिषद में इसका स्पष्ट उल्लेख है।
 
'रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो ब्रह्म उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो विष्णु उमा लक्ष्मी तस्मै तस्यै नमो नमः।'
 
रुद्र, सूर्य है और उमा उसकी प्रभा है, रुद्र फूल है और उमा उसकी सुगंध है, रुद्र यज्ञ है और उमा उसकी वेदी है।
 
वास्तव में सृष्यि के मूल में प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व हैं। ऐसा सांख्यदर्शन का स्पष्ट मत है। श्रीकृष्ण भगवान भी गीता में कहते हैं कि, 'प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।' प्रकृति और पुरुष दोनों के आधार पर यह सृष्टि निर्माण हुई है। एक तत्व के बिना दूसरा तत्व पंगु है।
 
स्त्री-पुरुष के गुणों के अद्वैत के परिणामस्वरूप पुरुष के अंतःकरण में जब स्त्रीभाव का उदात्तीकरण होता है, तब वह करुणामय, प्रेमपूर्ण वात्सल्यमय बनता है, कवि और कलाकार बनता है, संवेदनाक्षम बनता है। इसी तरह स्त्री का भी है। स्त्री में 'पुरुष' जागृत होते ही वह धीर और दृढ़ सावित्री बनती है, उसमें से रणचंडी लक्ष्मीबाई प्रकट होती है, पति के साथ चिता में जलने वाली पद्मिनी का सर्जन होता है।
 
संक्षेप में अर्धनारी नटेश्वर पुरुष और प्रकृति, उमा और महेश, नर और नारी के संयोग के संयोग का प्रतीक है। स्त्री और पुरुष के श्रेष्ठ गुणों को जोड़कर यदि हम पूर्ण जीवन की ओर प्रयाग करेंगे, तभी हमने अर्धनारी नटेश्वर की पूजा की है, ऐसा माना जाएगा।