शनिवार, 27 अप्रैल 2024
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हिन्दू धर्म- यह 10 कार्य करना गलत है, लगेगा पाप

हिन्दू धर्म- यह 10 कार्य करना गलत है, लगेगा पाप | Hinduism
भांति भांति के लोग और भांति भांति की परंपरा, संस्कृति, रिवाज और कर्मकांड के चलते कुछ लोग गफलत में रहते हैं और कुछ लोग अधूरे ज्ञान का बखान करके दूसरों को गफलत में डालने का कार्य भी कहते हैं। 
हिन्दू धर्म के संबंध में अधिक से अधिक जानना जरूरी है, लेकिन हमारा यह जानना स्पष्‍ट हो विरोधाभासिक और भटकाने वाला न हो, इसके लिए कुछ आधारभूत जानकारी जरूरी है। अधिकतर हिन्दुओं में वैचारिक भिन्नता है तो इसका कारण है धर्म का सही ज्ञान नहीं होना। चलिये धर्म का ज्ञान नहीं है तो कम से कम वे काम न करें जो धर्म विरूद्ध हैं या कि जो धर्म से भटकाने वाले हैं।
 
क्या करना सही है उस पर चर्चा करते हुए हम आपको बताएंगे कि क्या करता गलत हैं जोकि आप करते आए हैं और अभी भी कर रहे हैं। सही को करने से ही परिणाम भी सही ही निकलता है। गलत को करने से परिणाम भी गलत ही निकलता है।

करें सिर्फ नमस्कार : कोई राम-राम कहता है, तो कोई श्याम-श्याम, कोई जय शिव तो कोई जय हनुमान। आजकल तो लोग राधे-राधे और जय साई राम भी कहने लगे हैं। कुछ लोग तो जय भीम, जय गोंदवाले बाबा की और जय गजानन कहते हैं। हो सकता है कि दक्षिण भारत में कुछ और प्रचलन हो लेकिन उत्तर भारतीयों ने तो अभिवादन का धार्मिक तरीका तो छोड़ ही दिया है।
 
हालांकि भगवान का नाम लेने में कोई बुराई नहीं लेकिन अभिवादन का एक हिन्दू तरीके भी है उसे सभी अपनाएंगे तो अच्छा होगा। धर्म की ऐसी बहुत सी बातें है जिन्हें कालांतर में छोड़ देने के कारण हिन्दुओं की सोच में बिखराव आ गया है। 
 
'नम:' धातु से बना है 'नमस्कार'। नम: का अर्थ है नमन करना या झुकना। नमस्कार का मतलब पैर छूना नहीं होता। नमस्कार शब्द हिन्दी, गुजराती, मराठी, तमिल, बंगाली आदि वर्तमान में प्रचलित भाषाओं का शब्द नहीं है। यह हिन्दू धर्म की भाषा संस्कृत का शब्द है। संस्कृत से ही सभी भाषाओं का जन्म हुआ।
 
हिन्दू और भारतीय संस्कृति के अनुसार मंदिर में दर्शन करते समय या किसी सम्माननीय व्यक्ति से मिलने पर हमारे हाथ स्वत: ही नमस्कार मुद्रा में जुड़ जाते हैं। नमस्कार करते समय व्यक्ति क्या करें और क्या न करें इसके भी शास्त्रों में नियम हैं। नियम से ही समाज चलता है।
 
नमस्कार के मुख्यत: तीन प्रकार हैं:- सामान्य नमस्कार, पद नमस्कार और साष्टांग नमस्कार।
सामान्य नमस्कार : किसी से मिलते वक्त सामान्य तौर पर दोनों हाथों की हथेलियों को जोड़कर नमस्कार किया जाता है। प्रतिदिन हमसे कोई न कोई मिलता ही है, जो हमें नमस्कार करता है या हम उसे नमस्कार करते हैं।
पद नमस्कार : इस नमस्कार के अंतर्गत हम अपने परिवार और कुटुम्ब के बुजुर्गों, माता-पिता आदि के पैर छूकर नमस्कार करते हैं। परिवार के अलावा हम अपने गुरु और आध्यात्मिक ज्ञान से संपन्न व्यक्ति के पैर छूते हैं।
साष्टांग नमस्कार : यह नमस्कार सिर्फ मंदिर में ही किया जाता है। षड्रिपु, मन और बुद्धि, इन आठों अंगों से ईश्वर की शरण में जाना अर्थात साष्टांग नमन करना ही साष्टांग नमस्कार है।
 
सामान्य नमस्कार :
1.कभी भी एक हाथ से नमस्कार न करें और न ही गर्दन हिलाकर नमस्कार करें। दोनों हाथों को जोड़कर ही नमस्कार करें। इससे सामने वाले के मन में आपके प्रति अच्छी भावना का विकास होगा और आप में भी। इसे मात्र औपचारिक अभिवादन न समझें।
2.नमस्कार करते समय मात्र 2 सेकंड के लिए नेत्रों को बंद कर देना चाहिए। इससे आंखें और मन रिफ्रेश हो जाएंगे।
3.नमस्कार करते समय हाथों में कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए।
 
पाद नमस्कार : 
1. ऐसे किसी व्यक्ति के पैर नहीं छूना चाहिए जिसे आप अच्छी तरह जानते नहीं हों या जो आध्यात्मिक संपन्न व्यक्ति नहीं है। बहुत से लोग आजकल चापलूसी या पद-लालसा के चलते राजनीतिज्ञों के पैर छूते रहते हैं, जो कि गलत है।
 
साष्टांग नमस्कार : इसे दंडवत प्रणाम भी कहते हैं।
1. मंदिर में नमस्कार करते समय या साष्टांग नमस्कार करते वक्त पैरों में चप्पल या जूते न हों।
2. मंदिर में नमस्कार करते समय पुरुष सिर न ढंकें और स्त्रियों को सिर ढंकना चाहिए। हनुमान मंदिर और कालिका के मंदिर में सभी को सिर ढंकना चाहिए।
3. हाथों को जोड़ते समय अंगुलियां ढीली रखें। अंगुलियों के बीच अंतर न रखें। हाथों की अंगुलियों को अंगूठे से दूर रखें। हथेलियों को एक-दूसरे से न सटाएं, उनके बीच रिक्त स्थान छोड़ें।
4. मंदिर में देवता को नमन करते समय सर्वप्रथम दोनों हथेलियों को छाती के समक्ष एक-दूसरे से जोड़ें। हाथ जोड़ने के उपरांत पीठ को आगे की ओर थोड़ा झुकाएं।
5. फिर सिर को कुछ झुकाकर भ्रूमध्य (भौहों के मध्यभाग) को दोनों हाथों के अंगूठों से स्पर्श कर, मन को देवता के चरणों में एकाग्र करने का प्रयास करें।
6. इसके बाद हाथ सीधे नीचे न लाकर, नम्रतापूर्वक छाती के मध्यभाग को कलाइयों से कुछ क्षण स्पर्श कर, फिर हाथ नीचे लाएं।
 
नमस्कार के लाभ : अच्छी भावना और तरीके से किए गए नमस्कार का प्रथम लाभ यह है कि इससे मन में निर्मलता बढ़ती है। निर्मलता से सकारात्मकता का विकास होता है। अच्छे से नमस्कार करने से दूसरे के मन में आपके प्रति अच्छे भावों का विकास होता है। इस तरह नस्कार का आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों ही तरह का लाभ मिलता है। इससे जहां दूसरों के प्रति मन में नम्रता बढ़ती है वहीं मंदिर में नमस्कार करने से व्यक्ति के भीतर शरणागत और कृतज्ञता के भाव का विकास होता है। इससे मन और मस्तिष्क शांत होता है और शीघ्र ही आध्यात्मिक सफलता मिलती है।

विवाह संस्कार करें वैदिक रीति से : प्रत्येक प्रांत में हिन्दुओं ने अपने विवाह के रीति रिवाज को स्थानीयता के आधार पर गढ़ा है। प्राचीन काल में ऐसा नहीं था। सभी वेद सम्मत विवाह ही करते थे। लंबी काल परंपरा और विदेशी धर्म और संस्कृति के मिश्रण के कारण हिन्दू विवाह संस्कार में विकृति आ गई जिसके चलते प्रत्येक समाज, प्रांत और स्थान विशेष के विवाह संस्कार भी भिन्न हो गए जो कि अनुचित है।
हिन्दू धर्म का एकमात्र धर्मग्रंथ वेद हैं। वेद अनुसार किए गए विवाह संस्कार ही शास्त्रसम्मत होते हैं। वेदों के अलावा गृहसूत्रों में संस्कारों का उल्लेख मिलता है। विवाह को हिन्दुओं के प्रमुख 16 संस्कारों में से एक माना जाता है जो कि बहुत ही पवित्र कर्म होता है। इसी संस्कार के बाद व्यक्ति गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। यदि यह संस्कार उचित रीति से नहीं हुआ है तो यह महज एक समझौता ही होगा।
 
आज विवाह वासना-प्रधान बनते चले जा रहे हैं। रंग, रूप एवं वेष-विन्यास के आकर्षण को पति-पत्नि के चुनाव में प्रधानता दी जाने लगी है, दूसरी ओर वर पक्ष की हैसियत, धन, सैलरी आदि देखी जाती है। यह प्रवृत्ति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। लोगों की इसी सोच के कारण दाम्पत्य-जीवन और परिवार बिखरने लगे हैं। प्रेम विवाह और लीव इन रिलेशन पनपने लगे हैं जिनका अंजाम भी बुरा ही सिद्ध होता है। विवाह संस्कार अब एक समझौता, बंधन और वैध व्याभिचार ही रह गया है जिसका परिणाम तलाक, हत्या या आत्महत्या के रूप में सामने देखने को मिलता है। अन्यथा वर के माता पिता को अपने ही घर से बेदखल किए जाने के किस्से भी आम हो चले हैं। 
 
हिन्दू धर्मानुसार विवाह एक ऐसा कर्म या संस्कार है जिसे बहुत ही सोच-समझ और समझदारी से किए जाने की आवश्यकता है। दूर-दूर तक रिश्तों की छानबिन किए जाने की जरूरत है। जब दोनों ही पक्ष सभी तरह से संतुष्ट हो जाते हैं तभी इस विवाह को किए जाने के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। इसके बाद वैदिक पंडितों के माध्यम से विशेष व्यवस्था, देवी पूजा, वर वरण तिलक, हरिद्रालेप, द्वार पूजा, मंगलाष्टकं, हस्तपीतकरण, मर्यादाकरण, पाणिग्रहण, ग्रंथिबन्धन, प्रतिज्ञाएं, प्रायश्चित, शिलारोहण, सप्तपदी, शपथ आश्‍वासन आदि रीतियों को पूर्ण किया जाता है।

हिन्दू संत से ही दीक्षा लें : वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है। और हिंदुजन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा। संत चाहे कितना भी बढ़ा हो लेकिन वह भगवान या देवता नहीं, उसकी आरती करना, पैरों को धोना और उस पर फूल चढ़ाना धर्म का अपमान ही है।
स्वयंभू संतों की संख्‍या तो हजारों हैं उनमें से कुछ सचमुच ही संत हैं बाकी सभी दुकानदारी है। यदि हम हिन्दू संत धारा की बात करें तो इस संत धारा को शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ और रामानंद ने फिर से पुनर्रगठित किया था। जो व्यक्ति उक्त संत धारा के नियमों अनुसार संत बनता है वहीं हिंदू संत कहलाने के काबील है।
 
हिंदू संत बनना बहुत कठिन है ‍क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालांकि इनमें से कमतर ही सच्चे संत होते हैं।
 
13 अखाड़ों में सिमटा हिंदू संत समाज पांच भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियां हैं, लेकिन पांचों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह पांच सम्प्रदाय है-1.वैष्णव 2.शैव, 3.स्मार्त, 4.वैदिक और पांचवां संतमत। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्‍गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालांकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियां प्रचलन में थी।

हिन्दू नियम को ही मानें : नियम ही धर्म और जीवन है। इस सत्य को जानना जरूरी है। नियम का अर्थ कानून नहीं। जीवन में किसी भी प्रकार का यम-नियम नहीं है तो जीवन अराजक और अनिश्‍चित भविष्‍य की ओर गमन करेगा। किसी भी धर्म, समाज या राष्ट्र में नीति-नियम और व्यवस्था नहीं है तो सब कुछ अव्यवस्थित और मनमाना होगा। उसमें भ्रम और भटकाव की गुंजाइश ज्यादा होगी इसलिए व्यवस्थाकारों ने व्यवस्था दी। लेकिन कितने लोग हैं जो नीति और नियम का पालन करते हैं?
आश्रम से जुड़ा धर्म : हिंदू धर्म आश्रमों की व्यवस्था के अंतर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देता है। इसी में समाहित है धार्मिक नियम और व्यवस्था के सूत्र। जैसे कैसा हो हिंदू घर, हिंदू परिवार, हिंदू समाज, हिंदू कानून, हिंदू आश्रम, हिदू मंदिर, हिंदू संघ, हिंदू कर्त्तव्य और हिंदू सि‍द्धांत आदि। 
 
प्रमुख 10 नियम : 1.ईश्वर प्राणिधान, 2.संध्यावंदन, 3.श्रावण व्रत मास, 4.चार धाम तीर्थ यात्रा, 5.दान, 6.संक्रांति उत्सव, 7.पंच यज्ञ कर्म, 8.सेवा, 9. सोलह संस्कार और 10.धर्म प्रचार। इसके अलावा दैनिक कार्यों के नियम भी समझें जैसे कैसे नहाना, शौचादि कार्य करना, जल ग्रहण, भोजन और नींद के नियम समझना। वार्तालाप और व्यवहार को समझना। 
 
इन नियमों को मानें :
1. ग्रह-नक्षत्र पूजा, प्रकृति-पशु पूजा, समाधी पूजा, टोने-टोटके और रात्रि के अनुष्ठान से दूर रहें।
2. प्रतिदिन मंदिर जाएं। नहीं तो कम से कम गुरुवार को मंदिर जरूर जाएं।
3. प्रतिदिन संध्यावंदन करें। नहीं तो कम से कम गुरुवार को ऐसा करें।
4. आश्रमों के अनुसार जीवन को ढालें। 
5. वेद को ही साक्षी मानें और जब भी समय मिले गीता पाठ जरूर करें।
6. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की धारणा को समझें।
7. संयुक्त परिवार का पालन करें आदि।
8. धर्म विरोधी विचारों से दूर रहें।
9. धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में हिस्सा लें। संघठन से जुड़ें रहें।
10. वहमपरस्त भविष्यफल, जादू-टोना, स्थानीय संस्कृति, स्थानीय विश्वास, तंत्र-मंत्र, सती प्रथा, दहेज प्रथा, छुआछूत, वर्ण व्यवस्था, अवैदिक ग्रंथ, मनमाने मंदिर और पूजा, मनमाने व्रत और त्योहार आदि सभी का हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं।

अन्येष्टि कर्म : इस अंतिम संस्कार या दाह संस्कार भी कहते हैं। हिन्दुओं में साधु संतों और बच्चों को दफनाया जाता है जबकि सामान्य व्यक्ति का दाह संस्कार किया जाता है। उदाहरण के लिए गोसाईं, नाथ और बैरागी संत समाज के लोग अपने मृतकों को आज भी समाधि देते हैं। दोनों ही तरीके यदि वैदिक रीति और सभ्यता से किए जाएं तो उचित है। अंतिम संस्कार में शामिल होना पुण्य कर्म है। जिस घर में किसी का देहान्त हुआ है उस घर के 100 गज दूर तक के घरों के लोगों को अंतिम संस्कार में शामिल होना चाहिये। 
गलत कर्म : मुक्तिधाम या श्मशान में कई लोग हंसी-मजाक करते या किसी प्रकार की अनुचित वार्तालाप करते हैं क्योंकि वह यह नहीं जानते हैं कि उन पर क्षेत्रज्ञ देव की नजर होती है। हंसी-मजाक करने वाला व्यक्ति यह भी नहीं जानता है कि उसे भी मरने के बाद यहीं पर लाया जाएगा तब क्षेत्रज्ञ देव उसके साथ क्या करेंगे यह वही जानते हैं। 
 
यह कितना गंभीर मुद्दा है इसे समझना जरूरी है। वैदिक रीति को छोड़कर देशभर में अर्थी सजाने, उसे ले जाने या उसे जलाने के अजीब तरीके निर्मित हो गए हैं। हम यह नहीं कह रहे हैं कि आर्य समाज के तरीके से मृतक का दाह संस्कार किया जाए, क्योंकि वह भी उचित नहीं है। मृतक को वैदिक या पौराणिक तरीके से ही अग्निदाह देना चाहिये।
 
मृतकों के साथ पेश किए जाने वाले तरीकों से हमारे सभ्य या असभ्य होने का पता चलता है। संपूर्ण सम्मान और आदर के साथ ही उसका दाह संस्कार किया जाना चाहिए। इस दौरान लोगों को अनुशासन में रहना चाहिये और शामशान से जाने से पूर्व मृतक के प्रति संवेदना के दो शब्द भी कहना चाहिये।
 
जो लोग गंगा किनारे दाह संस्कार करते या करवाते हैं या जो लोग अपने मृतकों को जलदाग देते हैं वे सभी असभ्य लोग हैं। धर्म के जानकार लोग इसे धर्म विरुद्ध मानते हैं। जल दाग देने की प्रथा भी है, जिसके चलते गंगा-यमुना में कई शव बहते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ लोग शव को एक बड़े से पत्थर से बांधकर फिर नाव में शव को रखकर तेज बहाव व गहरे जल में ले जाकर उसे डुबो देते हैं। यह मृतकों के साथ किए जाने वाले अजीबोगरीब असभ्य तरीकों में से एक है। 
 
मृत्युभोज न करें, गम मनाएं : वैसे तो सभी धर्म में अपने परिजनों की मौत पर गम मनाने की परंपरा है लेकिन सभी धर्मों के अंतर्गत ‍कुछ ऐसे समाज हैं जो धर्म के नियमों से हटकर भी कार्य करते हैं। उनमें से कुछ समाज अपने परिजनों के मरने का गम मनाते हैं और कुछ समाज मौत का उत्सव मनाते हैं। गम मनाने के तरीके भी अलग-अलग हैं और उत्सव मनाने के तरीके भी भिन्न हैं लेकिन इनमें एक बात समान है कि दोनों ही तरीकों में मृत्युभोज दिया जाता है जो कि अनुचित है।
 
उत्सव मनाने वाले लोग या समाज शराब पीना या नाचना, गाना आदि तरीके से उत्सव मनाते हैं। कुछ समाज नाचते-गाते ढोल-ढमाके के साथ शव यात्रा निकालते हैं। गम मनाने वाले समाज शवयात्रा में किसी भी प्रकार का शोर-शराबा नहीं करते और मुंडन कराकर चालीस दिन या सवा माह तक घर में गमी का माहौल ही रखते हैं।
 
जीव की उत्पत्ति पंच तत्वों से मिलकर हुई है। देहान्त के बाद सभी तत्व अपने अपने स्थान पर पुन: चले जाते हैं। पंचतत्वों से उसकी विदाई के क्रम गरिमामय ढंग से अपनाया और किया जाना चाहिए। पंचत्वों के पूर्ण विधान से ही व्यक्ति की आत्मा को देह और मन के बंधन से मुक्ति मिलती है जिसके माध्यम से वह अपने अगले जन्म की यात्रा पर निकल जाता है। अन्येष्टि कर्म और उसके बाद किए जाने वाले कर्म को सही तरीके से नहीं किए जाने से मृतक की आत्मा भटकती रहती है या वह प्रेतयोनि धारण कर लेती है। अत: उचित वैदिक या पौराणिक तरीके से अर्थी, शवयात्रा, दाह, सवा माह और श्राद्ध के नियमों का पालन करना जरूरी है।
 
शवदाह के बाद मृतक की अस्थियां जमा की जाती है और उसे किसी जलस्त्रोत में, आमतौर पर गंगा में प्रवाहित की जाती है। जिसके बाद लगभग तेरह दिनों तक श्राद्धकर्म किया जाता है। बाद में लोग पिंडदान के लिए गया में जाकर पिंडदान की प्रक्रिया पूरी करते हैं।

सिर्फ हिन्दू मंदिर में ही जाएं : 'मंदिर' का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। 'मंदिर' का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को द्वार भी कहते हैं, जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं, ‍जैसे ‍कि शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है, वह मंदिर है तो उसके मायने बदल जाते हैं। मंदिर को अंग्रेजी में भी 'मंदिर' ही कहते हैं 'टेम्पल' (Temple) नहीं। जो लोग 'टेम्पल' कहते हैं, वे मंदिर के विरोधी हो सकते हैं। 
कई लोगों ने किसी बाबा, संत, भूत, फकीर, नेता, ग्रह-नक्षत्र, अभिनेता आदि के भी मंदिर बना लिए हैं जो कि घोर पाप कर्म है। बहुत से हिन्दू चर्च या दर्गा पर भी माथा टेकने चले जाते हैं हालांकि वह ऐसा किस कारण से कर रहे हैं यह तो वही जानते होंगे। कहते हैं कि इक साथे सब सधे सब साधे सब जाए। हालांकि जो लोग डरे हुए हैं, गफलत में जी रहे हैं या जिन्हें धर्म का ज्ञान नहीं है वे किसी के भी कहने पर कहीं भी झुक जाएंगे।

क्या आप मंदिर में ऐसा करते हैं? 
प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र थे, लेकिन आजकल के मंदिर तो पूजा-आरती के केंद्र हैं। बहुत से लोग मंदिर में वार्तालाप करते हैं, मोबाइल अटेंड करते हैं और मोजे पहनकर ही चले जाते हैं। अधिकतर लोग मंदिर में जाने से पूर्व आचमन आदि शुद्धि नहीं करते हैं। कम से कम उन्हें हाथ पैर धोकर ही मंदिर में प्रवेश करना चाहिये। मंदिर में कुछ लोग मूर्ति के ठीक सामने खड़े हो जाते हैं और कुछ लोग एक ही जगह खड़े रहक गोल गोल घुम जाते हैं जो कि अनुचित है। दुर्गा और हनुमान मंदिर में सिर ढंककर जाते हैं। भजन-कीर्तन आदि के दौरान किसी भी भगवान का वेश बनाकर खुद की पूजा करवाना वर्जित। बिना सिले सफेद वस्त्र पहनकर आजकल मंदिर में कौन जाता है। इस तरह हजारों ऐसा गलत आचरण है जो कि मंदिर में किए जाते हैं।
 
गुरुवार क्यों सर्वश्रेष्ठ? विष्णु को देवताओं में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त है और वेद अनुसार सूर्य इस जगत की आत्मा है। शास्त्रों के अनुसार रविवार को सर्वश्रेष्ठ दिन माना जाता है। रविवार (विष्णु) के बाद देवताओं की ओर से होने के कारण बृहस्पतिवार (देव गुरु बृहस्पति) को प्रार्थना के लिए सबसे अच्छा दिन माना गया है। दोपहर 12 से अपराह्न 4 बजे तक मंदिर में जाना, पूजा, आरती और प्रार्थना आदि करना निषेध माना गया है अर्थात प्रात:काल से 11 बजे के पूर्व मंदिर होकर आ जाएं या फिर अपराह्नकाल में 4 बजे के बाद मंदिर जाएं।
 
रविवार की दिशा पूर्व है किंतु गुरुवार की दिशा ईशान है। ईशान में ही देवताओं का स्थान माना गया है। यात्रा में इस वार की दिशा पश्चिम, उत्तर और ईशान ही मानी गई है। इस दिन पूर्व, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में यात्रा त्याज्य है। गुरुवार की प्रकृति क्षिप्र है। इस दिन सभी तरह के धार्मिक और मंगल कार्य से लाभ मिलता है अत: हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यह दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है अत: सभी को प्रत्येक गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए और पूजा, प्रार्थना या ध्यान करना चाहिए।

रीति रिवाज और धर्म में फर्क समझे : ऊर्दू के रिवाज को हिन्दी में परंपरा और अंग्रेजी में ट्रेडिशन कहते हैं। हिन्दू धर्म में ऐसी हजारों परंपराएं जुड़ी हुई है जिसका धर्म से संबंधित या धर्म से निकला मानकर धर्म की आलोचना की जाती है। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि रिवाज के पीछे धर्म का बहुत बड़ा हाथ होता है जबकि यह सही नहीं है।
रिवाज की उत्पत्ति स्थानीय लोक कथाओं, संस्कृति, अंधविश्वास, रहन-सहन, खान-पान आदि के आधार पर होती है। दरअसल लोगों की जिंदगी से संबंध रखने वाला काम रिवाज होता है। यह रिवाज़ एक जगह या वहाँ के लोगों के लिए आम होता है। जैसे खाने के वक्‍त लोगों का व्यवहार कैसा होना चाहिए और उन्हें दूसरों के साथ किस तरह पेश आना चाहिए, कपड़े कैसे पहनना चाहिए और क्या खाना चाहिये। हालांकि बहुत से ऐसे रिजाव है जो पौराणिक कथाओं के आधार पर भी समाज में प्रचलित हो जाते हैं।
 
बहुत से रिवाज ऐसे हैं जो हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार सही नहीं है, जैसे सती प्रथा, दहेज प्रथा, मूर्ति स्थापना और विसर्जन, माता की चौकी, अनावश्यक व्रत-उपवास और कथाएं, पशु बलि, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, छुआछूत, ग्रह-नक्षत्र पूजा, मृतकों की पूजा, अधार्मिक तीर्थ-मंदिर, 16 संस्कारों को छोड़कर अन्य संस्कार आदि। 
 
रिजा को धर्म से जोड़ना उचित नहीं। अधिकतर रिजाव तो अंधविश्वास हैं जो हजारों वर्षों की परंपरा, भय और व्यापार के कारण समाज में प्रचलित हो गए हैं। इसीलिए ये रिवाज आज कोई धार्मिक मायने नहीं रखते। हिन्दू धर्म और रिवाजों में फर्क करना सीखना होगा।

छुआछूत और ऊंच-नीच : अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है, लेकिन यह बिलकुल ही असत्य है। इस मुद्दे पर धर्म शास्त्रों में क्या लिखा है यह जानना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया गया है और किया जा रहा है। यदि आ छुआछूत या वर्णव्यवस्था को मानते हैं तो आप सनातन पथ से भटके हुए व्यक्ति हैं।
पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वे जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी होता रहा है।
 
दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया। इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे वे हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। आज जो नाम दिए गए हैं वे पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज हैं और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वे पिछले 900 सालों की गुलामी की उपज हैं।
 
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं, जो आज दलित हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं या अब वे बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं, जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को 'सवर्ण' कहा जाने लगा है। यह 'सवर्ण' नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया।
 
मनुस्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत ये हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं हैं। तुलसीदास कृत रामचरित मानस भी हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं है। यदि इन ग्रंथों में कहीं भेदभाव की भावना लिखी है तो यह वेदसम्मत नहीं है। 

असंख्‍य तीर्थ और त्योहार : हिंदुओं में 365 दिन में से संभवत: 300 त्योहार होंगे और 4 धाम की बजाय 40 तीर्थ होंगे। बहुत से त्योहार लोक परंपरा का हिस्सा है और बहुत से तीर्थ तो लोगों ने स्वयं ही निर्मित कर लिए हैं। पहले जन्माष्टमी, हनुमान जयंती, रामनवमी, नवरात्रि और शिवरात्रि मनाई जाती थी, लेकिन अब लोगों ने पुराण पढ़-पढ़कर बहुत से लोगों की जयंती मनाना शुरू कर दी है।
प्रत्येक समाज का अपना एक अलग त्योहार और तीर्थ हो चला है, लेकिन यह खोजना जरूरी है कि सभी हिंदुओं का एकमात्र त्योहार कौन-सा है? धार्मिक एकता के लिए जरूरी है कि परंपरा और त्योहार के इतिहास को समझकर मनाया जाए।
 
यह लंबे काल और वंश परंपरा का परिणाम ही है कि वेदों को छोड़कर हिन्दू अब स्थानीय स्तर के त्योहार और विश्वासों को ज्यादा मानने लगा है। सभी में वह अपने मन से नियमों को चलाता है। कुछ समाजों ने मांस और मदिरा के सेवन हेतु उत्सवों का निर्माण कर लिया है। वेद अनुसार रात्रि के सभी कर्मकांड निषेध माने गए हैं।

ईश्वर एक या अनेक : वेद एकेश्वरवाद की घोषणा करते हैं, इसके हजारों उदाहरण हैं लेकिन हिन्दू समाज एक ईश्वर की प्रार्थना को छोड़कर ऐसे भी देवी या देवताओं की पूजा करता है जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। साथ ही ग्रह या नक्षत्रों की पूजा करना भी उचित नहीं।
वैदिक काल में लोग ब्रह्म (ईश्‍वर) की प्रार्थना करते थे। फिर लोग पंच तत्वों की प्रार्थना करने लगे। फिर इनकी पूजा का प्रचलन शुरू हुआ, फिर इंद्र, वरुण, आदित्य, अश्‍विन कुमार आदि वैदिक देवताओं को छोड़कर लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा करने लगे। फिर लोगों ने राम और कृष्ण के मंदिर बनाए तो विष्णु और ब्रह्मा की पूजा-प्रार्थना कम होने लगी। कई लोगों ने चालीसाएं लिखीं और धर्म में एक नए प्रचलन की शुरुआत की। लेकिन क्या वेद में लिखा है कि इंद्र को पूजो, राम को पूजो, कृष्ण को ईश्वर मानो? 
 
किसी भी देवी-देवता आदि की पूजा करने का यहां विरोध नहीं, लेकिन सिर्फ एक सवाल है कि क्या सैकड़ों देवताओं की पूजा करना या करवाना वेदसम्मत है? क्या ब्रह्म सत्य नहीं है? शिवलिंग उस एक परमेश्वर की पूजा का ही प्रतीक है। शिव से अलग हैं शंकर यह भी समझना जरूरी है। भगवान श्रीराम भी उसी शिवलिंग की ही पूजा और प्रार्थना करते हैं। अर्थात वे भी निराकार ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।

मनमानें व्रत न रखें : व्रत को उपवास भी कह सकते हैं, हालांकि दोनों में थोड़ा-बहुत फर्क है। संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को व्रत कहते हैं। व्रत के 3 प्रकार हैं- 1. नित्य, 2. नैमित्तिक और 3. काम्य। व्रतों में श्रावण मास में पूर्ण माह व्रत रखना सर्वोच्च माना गया है, लेकिन देखने में आया है कि लोग व्रत और उपवास अपने अपने तरीके से रखते हैं। 
हिन्दु्ओं के 10 प्रमुख कर्तव्य है:-  1.संध्योपासन, 2.व्रत, 3.तीर्थ, 4.उत्सव, 5.सेवा, 6.दान, 7.यज्ञ, 8.संस्कार 9. वेद पाठ, 10.धर्म प्रचार। इन 10 में से एक व्रत या उपवास का बहुत महत्व है। इससे जहां हमारे कर्म सुधरते हैं वहीं ग्रह और नक्षत्रों का बुरा प्रभाव भी दूर होता है। इससे जहां हमारी सेहत सही रहती है वहीं इससे मानसिक बल भी मिलता है। चतुर्थी, एकादशी, प्रदोष, अमावस्य और पूर्णिमा के दिन व्रत रखने से कई तरह की आपदाओं से व्यक्ति बच जाता है।

त्योहारों में शराब पीना : होली, रंगमंचमी आदि कुछ त्योहारों पर लोग शराब पीते हैं। यह भी देखा गया है कि नवरात्रि और दीपावली के पवित्र दिनों भी लोग अब पीने लगे हैं जोकि पापकर्म के समान ही है। पीने के लिए आपके पास और भी दिन हो सकते हैं लेकिन पर्व, त्योहार और व्रतों के दिन पीने के परिणाम भी भुगतने होते हैं।
अत: त्योहारों के दिन पवित्र बने रहने वाले ही सुखी परिवार के अंग होते हैं। परिवार का मुखिया या पालक यदि गलत रास्ते पर हैं तो निश्चित ही उसके कुल का अंत होने वाला है। ऐसे व्यक्ति गृहकलह और अन्य समस्याओं में उलझकर अपने बच्चों और घर की महिलाओं के भविष्य को संकट में डालने वाला ही सिद्ध होता है। वह कुलहंता पीकर ही प्रेतयोनि को प्राप्त होता है।