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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

हिन्दू धर्म के ये महत्वपूर्ण प्रमुख 10 नियम

हिन्दू धर्म के ये महत्वपूर्ण प्रमुख 10 नियम - Hindu manual or guide
हिन्दू धर्म में हर कोई पंडित है। बड़े-बड़े विद्वान हैं, जो तर्क से किसी भी प्रकार की बातें सिद्ध करने में माहिर हैं। लेकिन उनमें से एक भी वेदों की सच्ची राह बताने वाला कोई नहीं है, भटकाने वाले बहुत मिल जाएंगे। दुकानदार लोगों ने धर्म का कबाड़ा कर रखा है। जब तक व्यक्ति वेद, उपनिषद नहीं पढ़ता, तब तक वह हिन्दू धर्म को नहीं समझ सकता।
हिन्दू धर्म के ऐसे 10 नियम हैं‍ जिन्हें जानकर ही प्रत्येक धर्म के लोगों ने उन नियमों को अपने-अपने धर्म में भिन्न-भिन्न तरीके से शामिल किया है। अधिकतर हिन्दू इन नियमों पर चलते हैं या नहीं, यह जानना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य होना चाहिए। आओ जानते हैं कि ऐसे कौन से 10 नियम हैं जिनका पालन हिन्दुओं को करना चाहिए।
 
अगले पन्ने पर पहला नियम...
 

ईश्वर ही सत्य है : ब्रह्म ही सत्य है, सत्य ही ब्रह्म है। वही सर्वोच्च शक्ति है। प्रार्थना, पूजा, ध्यान और आरती आदि सभी उसी के प्रति है। देवी, देवता, त्रिदेव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, वानर आदि सभी उसी का ध्यान करते हैं इसलिए सिर्फ उस एक को ही सर्वोच्च सत्ता मानना धर्म का प्रथम नियम है। वेद, उपनिषद और गीता में उसी 'परम तत्व' की चर्चा की गई है। उसी के प्रति समर्पित ईश्वर प्राणिधान है। यह धर्म का बेहद जरूरी नियम है। जो व्यक्ति इस नियम का पालन नहीं करता, वह भटका हुआ है।
 
'...जो सांसारिक इच्छाओं के गुलाम हैं उन्होंने अपने लिए ईश्वर के अतिरिक्त झूठे उपास्य बना लिए हैं...।' -श्रीकृष्ण (भगवद् गीता 7:20)
 
ईश्वर प्राणिधान : सिर्फ एक ही ईश्वर है जिसे ब्रह्म, परमेश्वर या परमात्मा कहा जाता है। ईश्वर निराकार और अजन्मा, अप्रकट है। इस ईश्वर के प्रति आस्था रखना ही ईश्वर प्राणिधान कहलाता है। इसके अलावा आप किसी अन्य में आस्था न रखें। चाहे सुख हो या घोर दु:ख, उसके प्रति अपनी आस्था को डिगाएं नहीं। इससे आपके भीतर पांचों इंद्रियों में एकजुटता आएगी और आपका आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा जिससे लक्ष्य को भेदने की ताकत बढ़ेगी। वे लोग, जो अपनी आस्था बदलते रहते हैं, भीतर से कमजोर होते जाते हैं।
 
अगले पन्ने पर दूसरा नियम...
 

दूसरा नियम : संध्योपासन अर्थात संध्या वंदन। संध्या वंदन प्रतिदिन करना जरूरी है। संध्या वंदन के दो तरीके हैं- प्रार्थना और ध्यान। मनमानी पूजा, आरती और यज्ञादि करना धर्म के नियमों के विरुद्ध है। प्रत्येक हिन्दू को सुबह और शाम को संध्या वंदन करना ही चाहिए। किसी कारणवश वह ऐसा नहीं कर पाता है तो गुरुवार को निश्चित ही यह कर्म करना जरूरी है।
 
 
संध्या वंदन के लाभ : प्रतिदिन संध्या वंदन करने से जहां हमारे भीतर की नकारात्मकता का निकास होता है वहीं हमारे जीवन में सदा शुभ और लाभ होता रहता है। इससे जीवन में किसी प्रकार का भी दुख और दर्द नहीं रहता। हालांकि संध्या वंदन इसीलिए नहीं की जाती, बल्कि संध्या वंदन ईश्वर के प्रति‍ प्रार्थना है। इसके करने के नियम हैं।
 
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व्रत माह श्रावण : हिन्दू पंचांग का आरंभ चैत्र मास से होता है। चैत्र मास से 5वां माह श्रावण मास होता है। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार इस मास की पूर्णिमा के दिन आकाश में श्रवण नक्षत्र का योग बनता है इसलिए श्रवण नक्षत्र के नाम से इस माह का नाम 'श्रावण' हुआ। इस माह से चातुर्मास (श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक) की शुरुआत होती है। यह माह चातुर्मास के 4 महीनों में बहुत शुभ माह माना जाता है। इस पूरे माह व्यक्ति को एक वक्त ही भोजन करना चाहिए। 
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उपवास के प्रकार- 1. प्रात: उपवास, 2. अद्धोपवास, 3. एकाहारोपवास, 4. रसोपवास, 5. फलोपवास, 6. दुग्धोपवास, 7. तक्रोपवास, 8. पूर्णोपवास, 9. साप्ताहिक उपवास, 10. लघु उपवास, 11. कठोर उपवास 12. टूटे उपवास, 13. दीर्घ उपवास।
 
श्रावण का अर्थ : 'श्रावण' शब्द 'श्रवण' से बना है जिसका अर्थ है सुनना। अर्थात सुनकर धर्म को समझना। वेदों को श्रुति कहा जाता है अर्थात उस ज्ञान को ईश्वर से सुनकर ऋषियों ने लोगों को सुनाया था।
 
इस माह के पवित्र दिन : इस माह में वैसे तो सभी पवि‍त्र दिन होते हैं लेकिन सोमवार, गणेश चतुर्थी, मंगला गौरी व्रत, मौना पंचमी, श्रावण माह का पहला शनिवार, कामिका एकादशी, कल्कि अवतार शुक्ल 6, ऋषि पंचमी, 12वीं को हिंडोला व्रत, हरियाली अमावस्या, विनायक चतुर्थी, नागपंचमी, पुत्रदा एकादशी, त्रयोदशी, वरलक्ष्मी व्रत, गोवत्स और बाहुला व्रत, पिथोरी, पोला, नराली पूर्णिमा, श्रावणी पूर्णिमा, पवित्रारोपन, शिव चतुर्दशी और रक्षाबंधन। 
 
अगले पन्ने पर चौथा नियम...
 

चौथा नियम : तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है। कौन-सा है एकमात्र तीर्थ? तीर्थाटन का समय क्या है? ‍जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। अयोध्‍या, काशी, मथुरा, चार धाम और कैलाश में कैलाश की महिमा ही अधिक है।
लाभ : तीर्थ से ही वैराग्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। तीर्थ से विचार और अनुभवों को विस्तार मिलता है। तीर्थयात्रा से जीवन को समझने में लाभ मिलता है। बच्चों को पवित्र स्थलों एवं मंदिरों की तीर्थयात्रा का महत्व बताना चाहिए। 
 
अगले पन्ने पर पांचवां नियम...
 

पांचवां नियम : दान देना। वेदों में 3 प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1.उत्तम, 2.मध्यम और 3.निकृष्‍ट। धर्म की उन्नतिरूपी सत्य विद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है।
पुराणों में अनेक दानों का उल्लेख मिलता है जिसमें अन्नदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है।
 
अगले पन्ने पर छठा नियम...
 

छठा नियम : संक्रांति और कुंभ पर्व मनाना। उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परंपरा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख धर्मग्रंथों में मिलता है। मनमाने त्योहारों को मनाने से धर्म की हानि होती है। माना जाता है कि मकर संक्रांति के समय सभी देवता धरती पर विचरण करते हैं। मकर संक्रांति के बाद कुंभ का उत्सव मनाना जरूरी है।
 

सूर्य जब धनु राशि से मकर पर पहुंचता है, तो मकर संक्रांति मनाते हैं। इस दिन से सूर्य उत्तरायन गमन करने लगता है। सूर्य पूर्व दिशा से उदित होकर 6 महीने दक्षिण दिशा की ओर से तथा 6 महीने उत्तर दिशा की ओर से होकर पश्चिम दिशा में अस्त होता है। उत्तरायन का समय देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन का समय देवताओं की रात्रि होती है। वैदिक काल में उत्तरायन को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। 
 
वृषभ, सिंह, वृश्चिक, कुंभ, संक्रांति विष्णुपद संज्ञक है। मिथुन, कन्या, धनु, मीन संक्रांति को षडशीति संज्ञक कहा गया है। मेष, तुला को विषुव संक्रांति संज्ञक तथा कर्क, मकर संक्रांति को अयन संज्ञक कहा गया है। 
 
सावधानी : पुण्यकाल में दांत मांजना, कठोर बोलना, फसल तथा वृक्ष काटना, गाय, भैंस का दूध निकालना व मैथुन काम विषयक कार्य कदापि नहीं करना चाहिए। सूर्य का नेत्र, कलेजा, मेरूदंड आदि पर विशेष प्रभाव पड़ता है इससे शारीरिक रोग, सिरदर्द, अपचन, क्षय, महाज्वर, अतिसार, नेत्र विकार, उदासीनता, खेद, अपमान एवं कलह आदि का विचार किया जाता है। 
 
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सातवां नियम : यज्ञ कर्म। वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं- (1) ब्रह्मयज्ञ, (2) देवयज्ञ, (3) पितृयज्ञ, (4) वैश्वदेव यज्ञ और (5) अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं, विस्तार को नहीं।
 
 
ब्रह्मयज्ञ अर्थात ईश्‍वर, गुरु, माता और पिता के प्रति समर्पित भाव रखकर नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करना। देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से संपन्न होता है। पितृयज्ञ को पुराणों में श्राद्ध कर्म कहा गया है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है।
 
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आठवां नियम : सेवा करना। हिन्दुओं के ज्यादातर संत सेवा लेते हैं, सेवा करते नहीं। यही धर्म की सबसे बड़ी हानि है। सेवा के कई प्रकार हैं। रक्षा का एक रूप है सेवा।
हिन्दू धर्म में सभी कर्तव्यों में श्रेष्ठ 'सेवा' का बहुत महत्व बताया गया है। स्वजनों, अशक्तों, गरीबों, महिला, बच्चों, धर्मरक्षकों, बूढ़ों और मातृभूमि की सेवा करना पुण्य है। यही अतिथि यज्ञ है। सेवा से सभी तरह के संकट दूर होते हैं। इसी से मोक्ष के मार्ग में सरलता आती है। सेवा ही सबसे बड़ी पवित्रता है।
 
अगले पन्ने पर नौवां नियम...
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नौवां नियम : संस्कार का पालन करना जरूरी। संस्कारों के प्रमुख प्रकार 16 बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिन्दू का कर्तव्य है।

इन संस्कारों के नाम हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए। यह हमारे सभ्य और हिन्दू होने की निशानी है।
 
लाभ : संस्कार हमें सभ्य बनाते हैं। संस्कारों से ही हमारी पहचान है। संस्कार से जीवन में पवित्रता, सुख, शांति और समृद्धि का विकास होता है। संस्कार विरुद्ध कर्म करना जंगली मानव की निशानी है।
 
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धर्म प्रचार : हिन्दू धर्म को पढ़ना और समझना जरूरी है। हिन्दू धर्म को समझकर ही उसका प्रचार और प्रसार करना जरूरी है। धर्म का सही ज्ञान होगा, तभी उस ज्ञान को दूसरे को बताना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म प्रचारक होना जरूरी है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या संन्यासी होने की जरूरत नहीं। स्वयं के धर्म की तारीफ करना और बुराइयों को नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा है।
धर्म का आधार हैं चार ग्रंथ (वेद, उपनिषद, स्मृति और गीता), चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास), चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष), चार धाम (जगन्नाथ, द्वारिका, बद्रीनाथ और रामेश्वरम्), चार पीठ (ज्योतिर्पीठ, गोवर्धनपीठ, शारदापीठ और श्रृंगेरीपीठ), चार मास (सौरमास, चंद्रमास, नक्षत्रमास और सावनमास), चातुर्मास (श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक), चार संप्रदाय (वैष्णव, शैव, शाक्त और स्मृति-संत), चार पद (ब्रह्मपद, रुद्रपद, विष्णुपद और परमपद (सिद्धपद) आदि को जानना जरूरी है।
 
ये हैं दस नियम : ईश्वर प्राणिधान, संध्या वंदन, श्रावण माह व्रत, तीर्थ चार धाम, दान, मकर संक्रांति-कुंभ पर्व, पंच यज्ञ,  सेवा कार्य, 16 संस्कार और धर्म प्रचार।