शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. सनातन धर्म
  3. नीति नियम
  4. garbhadhan sanskar
Written By अनिरुद्ध जोशी

गर्भाधान संस्कार के रहस्य को जानिए...

गर्भाधान संस्कार के रहस्य को जानिए... | garbhadhan sanskar
हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख और प्रथम धर्म है। इसमें पवित्र संस्कारों के संबंध में विस्तार से बताया गया है। उक्त संस्कारों में से 16 को प्रमुखता दी गई है। हिंदू धर्म को ही सनातन या आर्य धर्म कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। आजकल कामवासना से ग्रस्त मनुष्य गर्भाधान संस्कार पर ध्यान नहीं देता है जिसके चलते उसकी संतान का भविष्य अनिश्‍चित या अंधकार में ही रहता है। इसीलिए प्रस्तुत है प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी।
 
जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते।
अर्थात: जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।
 
गर्भाधान के संबध में स्मृतिसंग्रह में लिखा है:-
निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।
अर्थात : अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।

 
1.गर्भाधान : यह संस्कार सबसे महत्वपूर्ण होता है। विवाह के बाद पति और पत्नीं को मिलकर अपने भावी संतती के बारे में सोच विचार करना चाहिए। बच्चे के जन्म के पहले स्त्री और पुरुष को अपनी सेहत को और भी चंगा करना चाहिए। इसके बाद बताए गए नियमों, तिथि, नक्षत्र आदि के अनुसार ही बालक के जन्म हेतु समागम करना चाहिए। यह बहुत ही पवित्र कर्म होता है लेकिन यदि आप इसे कामवासना के अंतर्गत लेते हैं तो यह अच्‍छा नहीं है।
 
उत्तम अन्न ग्रहण करने, पवित्र भावना, प्यार और आनंद की स्थिति निर्मिक करने से हमारे शरीर का गुण धर्म बदल जाता है। प्रसन्नता सबसे उत्तम भाव होता है। घर का उचित वातारवण होना चाहिए जिसमें जरा भी चिंता और तनाव नहीं होना चाहिए तो ही आप अपने जन्म लेने वाले बच्चे का अच्छा भविष्य निर्मित कर सकते हैं।
 
गर्भधान संस्कार क्या है?
।।गर्भस्याSSधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं
यस्मिन्येन वा कर्मणा तद् गर्भाधानम्।।
गर्भ बीज और आधान = स्थापना। सतेज और दीर्घायु संतान के लिए यथाविधि और यथा समय बीज की स्थापना करनी चाहिए। इसके लिए स्त्री की उम्र कम से कम प्रथम रजोदर्शन से तीन वर्ष बाद की होना चाहिए। इस प्रकार से भली प्रकार से पुष्ट पुरुष की उम्र कम से कम 19 से अधिक होना चाहिए। गर्भधान विवाह के चौथे दिन करना चाहिए, परंतु उस दिन यथा योग्य समय होना चाहिए। स्त्रियों का यथोक्त ऋतुकाल अर्थात गर्भधान करने का समय रजोदर्शन से 16 दिन तक की अवधि का होता है। उक्त संबंध में पहले विस्तार से इसका ज्ञान अर्जित कर लें।
 
संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा ॥
-ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4
अर्थात: व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।
 
 
गौतम स्मृति शास्त्र में 40 संस्कारों का उल्लेख है। कुछ जगह 48 संस्कार भी बताए गए हैं। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कारों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार, 16 संस्कार प्रचलित हैं, उसके अनुसार:-
 
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। (व्यासस्मृति 1/13-15)
 
उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए इसीलिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है जिससे पवित्र भावना का विकास होता है। तब माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।
 
गर्भधारण के बाद क्या करें?
गर्भ में शिशु किसी चैतन्य जीव की तरह व्यवहार करता है- वह सुनता और ग्रहण भी करता है। माता के गर्भ में आने के बाद से गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है। हमारे पूर्वज इन सब बातों से परिचित थे इसलिए उन्होंने गर्भाधान संस्कार के महत्व को बताया। महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तम भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन उत्साह, प्रसन्नता और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए।
 
पवित्र भावना : जब तक स्त्री गर्भ को धारण करके रखती है तब तक उसे धार्मिक किताबें पढ़ना चाहिए। आध्यात्मिक माहौल में रहना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक कार्य करना चाहिए। ऐसा काई कार्य न करें जिसमें तनाव और चिंता का जन्म होता हो। गर्भ में पल रहा बच्चा मां की आवाज और मां के मन को संवेदना के माध्यम से सुनता और समझता है। आपके सामने अभिमन्यु का उदाहरण है जिसने गर्भ में रहकर ही संपूर्ण व्यू रचना को तोड़ना सिख लिया था। अत: माता जितना खुद को शांत रखते हुए रचनात्मक कार्यों में अपना समय लगाएगी बच्चा उतना ही समझदार और शांत चित्त का होगा। 
 
यदि आपने बच्चे की परवरिश गर्भ में अच्छे से कर ली तो समझों की उसका आधा जीवन तो आपने सुधार ही दिया। अत: यह याद रखना चाहिए की गर्भ से लेकर 7 वर्ष की उम्र तक बच्चा जो भी सिखता है वहीं उसकी जिंदगी की नींव होती है। नींव को मजबूत बनाएंगे तो आपके बच्चे का भविष्य उज्जवल होगा।
 
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ।
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः।।
अर्थात : स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का होता है।