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अगले पन्ने पर, क्या कभी सरस्वती नदी का अस्तित्व था?
यदि सरस्वती नदी का अस्तित्व था तो क्या है इसका वैज्ञानिक आधार?
एक फ्रेंच प्रोटो-हिस्टोरियन माइकल डैनिनो ने नदी की उत्पत्ति और इसके लुप्त होने के संभावित कारणों की खोज की है। वे कहते हैं कि ऋग्वेद के मंडल 7वें के अनुसार एक समय पर सरस्वती बहुत बड़ी नदी थी, जो कि पहाड़ों से बहकर नीचे आती थी। अपने शोध 'द लॉस्ट रिवर' में डैनिनो कहते हैं कि उन्हें बरसाती नदी घग्घर नदी का पता चला। कई स्थानों पर यह एक बहुत छोटी-सी धारा है लेकिन जब मानसून का मौसम आता है, तो इसके किनारे 3 से 10 किलोमीटर तक चौड़े हो जाते हैं। इसके बारे में माना जाता है कि यह कभी एक बहुत बड़ी नदी रही होगी। यह भारत-तिब्बत की पहाड़ी सीमा से निकली है।
उन्होंने बहुत से स्रोतों से जानकारी हासिल की और नदी के मूल मार्ग का पता लगाया। ऋग्वेद में भौगोलिक क्रम के अनुसार यह नदी यमुना और सतलुज के बीच रही है और यह पूर्व से पश्चिम की तरह बहती रही है। नदी का तल पूर्व हड़प्पाकालीन था और यह 4 हजार ईसा पूर्व के मध्य में सूखने लगी थी। अन्य बहुत से बड़े पैमाने पर भौगोलिक परिवर्तन हुए और 2 हजार वर्ष पहले होने वाले इन परिवर्तनों के चलते उत्तर-पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में से एक नदी गायब हो गई और यह नदी सरस्वती थी।
डैनिनो का कहना है कि करीब 5 हजार वर्ष पहले सरस्वती के बहाव से यमुना और सतलुज का पानी मिलता था। यह हिमालय ग्लेशियर से बहने वाली नदियां हैं। इसके जिस अनुमानित मार्ग का पता लगाया गया है, उसके अनुसार सरस्वती का पथ पश्चिम गढ़वाल के बंदरपंच गिरि पिंड से संभवत: निकला होगा। यमुना भी इसके साथ-साथ बहा करती थी। कुछ दूर तक दोनों नदियां आसपास बहती थीं और बाद में मिल गई होंगी। यहां से यह वैदिक सरस्वती के नाम से दक्षिण की ओर आगे बढ़ी और जब यह नदी पंजाब और हरियाणा से निकली तब बरसाती नदियों, नालों और घग्घर इस नदी में मिल गई होंगी।
पटियाला से करीब 25 किमी दूर दक्षिण में सतलुज (जिसे संस्कृत में शतार्दू कहा जाता है) एक उपधारा के तौर पर सरस्वती में मिली। घग्घर के तौर पर आगे बढ़ती हुई यह राजस्थान और बहावलपुर में हाकरा के तौर आगे बढ़ी और सिंध प्रांत के नारा में होते हुए कच्छ के रण में विलीन हो गई। इस क्षेत्र में यह सिंधु नदी के समानांतर बहती थी।
इस क्षेत्र में नदी के होने के कुछ और प्रमाण हैं। इसरो के वैज्ञानिक एके गुप्ता का कहना है कि थार के रेगिस्तान में पानी का कोई स्रोत नहीं है लेकिन यहां कुछ स्थानों पर ताजे पानी के स्रोत मिले हैं। जैसलमेर जिले में जहां बहुत कम बरसात होती है (जो कि 150 मिमी से भी कम है), यहां 50-60 मीटर पर भूजल मौजूद है। इस इलाके में कुएं सालभर नहीं सूखते हैं। इस पानी के नमूनों में ट्राइटियम की मात्रा नगण्य है जिसका मतलब है कि यहां आधुनिक तरीके से रिचार्ज नहीं किया गया है। स्वतंत्र तौर पर आइसोटोप विश्लेषण से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि रेत के टीलों के नीचे ताजा पानी जमा है और रेडियो कार्बन डाटा इस बात का संकेत देते हैं कि यहां कुछेक हजार वर्ष पुराना भूजल मौजूद है। आश्चर्य की बात नहीं है कि ताजे पानी के ये भंडार सूखी तल वाली सरस्वती के ऊपर हो सकते हैं।
सेटेलाइट चित्र : यह 6 नदियों की माता सप्तमी नदी रही है। यह 'स्वयं पायसा' (अपने ही जल से भरपूर) औरौ विशाल रही है। यह आदि मानव के नेत्रोन्मीलन से पूर्व काल में न जाने कब से बहती रही थी। एक अमेरिकन उपग्रह ने भूमि के अंदर दबी इस नदी के चित्र खींचकर पृथ्वी पर भेजे। अहमदाबाद के रिसर्च सेंटर ने उन चित्रों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला की शिमला के निकट शिवालिक पहाड़ों से कच्छ की खाड़ी तक भूमि के अंदर सूखी किसी नदी का तल है। जिसकी चौड़ाई कहीं कहीं 6 मिटर है।
उनका यह भी कहना है कि किसी समय सतलुज और यमुना नदी इसी नदी में मिलती थी। सेटेलाइट द्वारा भेजे गए चित्रों से पूर्व भी बहुत भूगर्भ खोजकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं। राजस्थान के एक अधिकारी एन.एन गोडबोले ने इस नदी के क्षेत्र में विविध कुओं के जल का रासायनिक परीक्षण करने पर पाया था कि सभी के जल में रसायन एक जैसा ही है। जबकि इस नदी के के क्षेत्र के कुओं से कुछ फलांग दूर स्थित कुओं के जलों का रासायनिक विश्लेषण दूसरे प्रकार का निकला। केन्द्रीय जल बोर्ड के वैज्ञानिकों को हरियाणश और पंजाब के साथ साथ राजस्थान के जैसलमेर जिले में सरस्वती नदी की मौजूदगी के ठोस प्रमाण मिले हैं।
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अगर सतलुज और यमुना के प्रवाह में आप सरस्वती का भी प्रवाह जोड़ देंगे तो आपको इसका अंदाजा होगा कि इस नदी की क्या ताकत रही होगी। यह कारोबार और व्यापार का सबसे अच्छा रास्ता रहा होगा और इसके उर्वरक डेल्टा (नदी से बने तिकोने उपजाऊ क्षेत्र) और बेसिन (नदी के आसपास की भूमि) के आसपास रिहायशी बस्तियां भी रही होंगी। लेकिन प्राचीन समय में कुछ बड़े भूकम्पों के कारण उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को पूरी तरह से बदलकर रख दिया गया। ये भूकम्प इतने शक्तिशाली थे कि सरस्वती और इसकी उपधाराओं के पुराने रास्ते ही बदल गए। इसका परिणाम यह हुआ कि सतलुज ने रास्ता बदला और यह पश्चिम में सिंधु नदी से जा मिली और यमुना नदी पूर्व की ओर गंगा के पास आ गई।
ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी की संरचना आंतरिकी में हुए बदलाव के चलते सरस्वती भूमिगत हो गई और यह बात नदी के प्रवाह को लेकर आम धारणा के काफी करीब है। सरस्वती-सिंधु के इलाके में बड़े पैमाने पर ग्राउंड फॉल्ट्स (जमीन पर पृथ्वी के निर्माण में होने वाले अवरोधों) को सैटेलाइट तस्वीरों से भी जाना जा सकता है। यह परिवर्तन सरस्वती-सिंधु के क्षेत्रों में हुआ और इस कारण से सरस्वती का पानी नीचे चला गया और सरस्वती भूमिगत होकर गायब हो गई। अगर हम पानी के इस प्राचीन स्रोत को फिर से जीवित कर सकें तो यह पश्चिम और उत्तरी राजस्थान की सूखी धरती के लिए बहुत बड़ा उपकार होगा।
लगभग इसी काल में एक वैश्विक सूखा पड़ा जिसके कारण संसार की सभ्यताएं प्रभावित हुईं और इसका दक्षिण योरप से लेकर भारत तक पर असर हुआ। करीब 2200 ईसा पूर्व में मेसोपोटेमिया की सुमेरियाई सभ्यता पूरी तरह खत्म हो गई। उस समय मिस्र में पुराना साम्राज्य इस जलवायु परिवर्तन के कारण समाप्त हो गया। श्रीमद्भागवत में एक स्थान पर कहा गया है कि श्रीकृष्णजी के भाई बलराम के कारण यमुना ने अपना रास्ता बदल दिया था, जो कि उस समय सरस्वती की एक प्रमुख उपधारा थी।
पर भूकम्पों जैसे बड़े भौगोलिक परिवर्तनों के चलते नदी की दोनों ही बड़ी धाराएं समाप्त हो गईं। इसका एक परिवर्तन यह भी हुआ कि राजस्थान का बहुत बड़ा इलाका बंजर हो गया। अगर आप भारतीय उपमहाद्वीप के नक्शे पर इस नदी के रास्ते का निर्धारण करना चाहें तो आप समझ सकते हैं कि यह सिंधु नदी के रास्ते पर करीब रही होगी। पुरातत्वविदों का कहना है कि तब भारतीय उपमहाद्वीप में जो सबसे पुरानी सभ्यता थी, उसे केवल सिंधु घाटी की सभ्यता कहना उचित न होगा, क्योंकि यह सिंधु और सरस्वती दोनों के किनारों पर पनपी थीं। डैनिनो जैसे शोधकर्ताओं की खोजों ने इस बात को सत्य सिद्ध किया है।
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यदि सरस्वती नदी थी तो क्या था उसका इतिहास?
सरस्वती तट के तीर्थ, अगले पन्ने पर...
सरस्वती के तीर्थ : पुष्कर में ब्रह्म सरोवर से आगे सुप्रभा तीर्थ से आगे कांचनाक्षी से आगे मनोरमा तीर्थ से आगे गंगाद्वार में सुरेणु तीर्थ, कुरुक्षेत्र में ओधवती तीर्थ से आगे हिमालय में विमलोदका तीर्थ हैं। उससे आगे सिन्धुमाता से आगे जहां सरस्वती की 7 धाराएं प्रकट हुईं, उसे सौगंधिक वन कहा गया है। उस सौगंधिक वन में प्लक्षस्रवण नामक तीर्थ है, जो सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।
रेगिस्तान में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्त हो गई और पर्वतों पर ही बहने लगी। सरस्वती पश्चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूर पूर्व नैमिषारण्य पहुंची। अपनी 7 धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुंचने के कारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र 'सप्त सारस्वत' कहलाया। यहां मुनियों के आवाहन करने पर सरस्वती 'अरुणा' नाम से प्रकट हुई। अरुणा सरस्वती की 8वीं धारा बनकर धरती पर उतरी। अरुणा प्रकट होकर कौशिकी (आज की कोसी नदी) से मिल गई।
सरस्वती नदी से ही है हिन्दू धर्म के इतिहास की शुरुआत...
अधिकतर इतिहासकार भारत के इतिहास की पुख्ता शुरुआत सिंधु नदी की घाटी की मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता से मानते थे लेकिन अब जबसे सरस्वती नदी की खोज हुई है भारत का इतिहास बदलने लगा है। अब माना जाता है कि यह सिंधु घाटी की सभ्यता से भी कई हजार वर्ष पुराना है। ऋग्वेद की ऋचाओं में कहा गया है कि यह एक ऐसी नदी है जिसने एक सभ्यता को जन्म दिया। इसे भाषा, ज्ञान, कलाओं और विज्ञान की देवी भी माना जाता है।
हड़प्पा, सिंधु और मोहनजोदड़ों सभ्यता का प्रथम चरण 3300 से 2800 ईसा पूर्व, दूसरा चरण 2600 से 1900 ईसा पूर्व और तीसरा चरण 1900 से 1300 ईसा पूर्व तक रहा। इतिहासकार मानते हैं कि यह सभ्यता काल 800 ईस्वी पूर्व तक चलता रहा। लेकिन अभी सरस्वती की सभ्यता को खोजा जाना बाकी है।
सदी की शुरुआत में एक हंगेरियाई पुरातत्वविद ऑरेल स्टीन ने हड़प्पाकालीन स्थलों की पहचान की है, जो कि भारत में हरियाणा से लेकर पाकिस्तान के पंजाब तक में स्थित हैं। सरस्वती के तल के पास बहुत अधिक पुरातात्विक महत्व के स्थल मौजूद हैं जिनकी संख्या करीब 360 है जबकि सिंधु के किनारे ऐसे स्थलों की संख्या मात्र 3 दर्जन है। सरस्वती के प्राचीन मार्ग के पास करीब 300 से अधिक स्थलों की मौजूदगी का पता लगाया जा चुका है।
इस नई खोज से यह बात भी सिद्ध होती है कि हड़प्पाकालीन सभ्यता का पतन कैसे हुआ? हालांकि प्राचीन पुराविदों का मानना है कि यह सभ्यता उत्तर से आए भूरी चमड़ी वाले, रथों पर सवार, घोड़ों को अपने वश में रखने वाले और लोहे का इस्तेमाल करने वाले आर्यों के हमलों से नष्ट हो गई। लेकिन इस बात का दावा किया जा सकता है कि भारत की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में क्षेत्र की भौगोलिक स्थितियों में बड़े पैमाने पर हुए बदलाव के कारण संभव हुआ।
इसी बात का समर्थन करने वाला एक और अध्ययन 2003 से लेकर 2008 में किया गया। यह अध्ययन रोमानिया, पाकिस्तान, भारत, ब्रिटेन और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने किया था। अपनी अत्याधुनिक जियोसाइंस तकनीक के बल पर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि हड़प्पाकालीन लोग अनुकूल और सहायक स्थितियों में रहा करते थे और उस समय पर्याप्त वर्षा होती थी लेकिन 4 हजार वर्ष पहले स्थितियों में बदलाव आना शुरू हुआ।
सरस्वती जैसी बड़ी और चौड़ी नदी के रास्ते में बदलाव से इसकी सहायक नदियों में बाढ़ आ गई और इनका रास्ता भी बदल गया। जब नदी का पानी कम हो गया तो सूखा पड़ना स्वाभाविक था और इसके किनारे बसे बड़े शहर और बस्तियों के लोगों को उत्तर, पश्चिम और पूर्व की ओर भागना पड़ा। पूर्व की ओर लोगों के पलायन से सरस्वती के साथ जो पवित्र गुण जुड़े हुए थे वे गंगा जैसी दूसरी नदियों के साथ जोड़े जाने लगे।
हड़प्पा काल के शुरुआती स्थल घग्घर-हाकरा नदी घाटी में थे, कुछ सिंधु घाटी में तो कुछ गुजरात में थे। बाद के समय में घग्घर-हाकरा घाटी में ऐसे स्थलों की संख्या कम होती गई और गंगा के मैदान तथा सौराष्ट्र में बढ़ गई। वास्तव में, सारस्वत ब्राह्मण समुदाय अपनी उत्पति को सरस्वती नदी के किनारों से जोड़कर देखता है। ये लोग उत्तर में कश्मीर से लेकर पश्चिम में कच्छ और दक्षिण में कोंकण क्षेत्र तक में फैले हैं।
बीसीई (बिफोर कॉमन ईरा) के वर्ष 1900 में परिपक्व हड़प्पा स्थल समाप्त हो गए और इसके निवासी बसने के लिए नए स्थानों की खोज करने लगे थे। जल्दी में छोटे-छोटे गुटों में बंटकर ये लोग सतलुज और घग्घर के पूर्वी किनारों पर पहुंचे और धीरे-धीरे यमुना की ओर बढ़ते गए। मोहनजोदड़ो और सिंध के पश्चिमी हिस्सों के शरणार्थी सौराष्ट्र भाग गए और बाद में ये प्रायदीप के भीतरी हिस्से में बस गए।