गुरुवार, 28 मार्च 2024
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प्राचीन भारत की 6 सभ्यताओं का रहस्य, जानिए...

प्राचीन भारत की 6 सभ्यताओं का रहस्य, जानिए... - Indian civilization history
हिन्दू धर्म के 90 हजार से भी ज्यादा वर्षों के लिखित इतिहास में लगभग 20 हजार वर्ष पूर्व नए सिरे से वैदिक धर्म की स्थापना हुई और नए सिरे से सभ्यता का विकास हुआ। प्रारंभ में ब्रह्मा और उनके पुत्रों ने धरती पर विज्ञान, धर्म, संस्कृति और सभ्यता का विस्तार किया। इस दौर में शिव और विष्णु सत्ता, धर्म और इतिहास के केंद्र में होते थे। देवता और असुरों का काल अनुमानित 20 हजार ईसा पूर्व से लगभग 7 हजार ईसा पूर्व तक चला। फिर धरती के जल में डूब जाने के बाद ययाति और वैवस्वत मनु के काल और कुल की शुरुआत हुई।
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पहली बात तो यह जानना जरूरी है कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत में भिन्न-भिन्न सभ्यताएं नहीं थी बल्कि एक ही सभ्यता के दो रूप थे। आर्य कोई जाती नहीं और ना वे कहीं बाहर से आए थे। सभी भारतीय द्रविड़ है। स्थान विशेष और वातावरण के लंबे काल के चलते रंग और रूप में थोड़ा बहुत अंतर है। 
 
वैसे तो अखंड भारत भारत की बात करें तो इसमें कई प्राचीन शहर हैं, जैसे मथुरा, अयोध्या, द्वारिका, कांची, उज्जैन, रामेश्वरम, प्रयाग (इलाहाबाद), पुष्कर, नासिक, श्रावस्ती, पुरुषपुर (पेशावर-पाकिस्तान), बामियान (अफगानिस्तान), गांधार (अफगानिस्तान), सारनाथ, लुम्बिनी, कुरुक्षेत्र, राजगिर, कुशीनगर, त्रिपुरा, गोवा, महाबलीपुरम, कन्याकुमारी, श्रीनगर, जम्मू, गुवाहाटी, कामाख्‍या, ढाका (बांग्लादेश), कोलंबो (श्रीलंका), अनुराधापुर (श्रीलंका), बालि (मलेशिया), क्वालालम्पुर (मलेशिया), अंकोरवाट (कंबोडिया) आदि अनेक स्थानों के बारे में हम बात नहीं करते हुए सिर्फ उन स्थानों के बारे में बताएंगे तो सबसे प्राचीन हैं और जिनको जानकर यह बता चलेगा की हिन्दू सभ्यता कितनी प्राचीन है।
 
अगले पन्ने पर पहला प्राचीन स्थान...

सिन्धु-सरस्वती घाटी की हड़प्पा एवं मोहनजोदोड़ो सभ्यता : हिमालय से निकलकर सिन्धु और सरस्वती नदी अरब के समुद्र में गिर जाती है। इतिहासकार मानते हैं कि 1700 से 1800 ईसा पूर्व सरस्वती नदी लुप्त हो गई और सिंधु ने अपनी दिशा बदल दी।
प्राचीनकाल में इन नदियों के आसपास ही फैली सभ्यता को वर्तमान में सिन्धु और सरस्वती घाटी की सभ्यता कहते हैं। सिंधु नदी के किनारे के दो स्थानों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) में की गई खुदाई में सबसे प्राचीन और पूरी तरह विकसित नगर और सभ्यता के अवशेष मिले।
 
इसके बाद चन्हूदड़ों, लोथल, रोपड़, कालीबंगा (राजस्थान), राखीघड़ी (हरियाणा), भिरराणा (हरियाणा), सूरकोटदा, आलमगीरपुर (मेरठ), बणावली (हरियाणा), धौलावीरा (गुजरात), अलीमुराद (सिंध प्रांत), कच्छ (गुजरात), रंगपुर (गुजरात), मकरान तट (बलूचिस्तान), मेहरगढ़ (बलूचिस्तान), गुमला (अफगान-पाक सीमा) आदि जगहों पर खुदाई करके प्राचीनकालीन कई अवशेष इकट्ठे किए गए। अब इसे सैंधव-सारस्वत सभ्यता कहा जाता है। इनमें से राखीघड़ी और भिरराणा में मिले शहर मोहनजोदेड़ों और हड़प्पा से भी कई प्राचीन और उन्नत थे। हालांकि धर्मनिरपेक्ष सरकार ने कभी भी सरस्वती सभ्यता पर अच्छे से शोध किए जाने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि इससे हिन्दुओं के प्राचीन इतिहास के बारे में और अधिक खुलासा होता। 
 
अधिकतर इतिहासकार भारत के इतिहास की पुख्ता शुरुआत सिंधु नदी की घाटी की मोहनजोदड़ो और हड़प्पाकालीन सभ्यता से मानते थे लेकिन अब जबसे सरस्वती नदी की खोज हुई है, भारत का इतिहास बदलने लगा है। अब माना जाता है कि यह सिंधु घाटी की सभ्यता से भी कई हजार वर्ष पुरानी है।
 
एक फ्रेंच प्रोटो-हिस्टोरियन माइकल डैनिनो ने नदी की उत्पत्ति और इसके लुप्त होने के संभावित कारणों की खोज की है। वे कहते हैं कि ऋग्वेद के मंडल 7वें के अनुसार एक समय पर सरस्वती बहुत बड़ी नदी थी, जो कि पहाड़ों से बहकर नीचे आती थी। अपने शोध 'द लॉस्ट रिवर' में डैनिनो कहते हैं कि उन्हें बरसाती नदी घग्घर नदी का पता चला। कई स्थानों पर यह एक बहुत छोटी-सी धारा है लेकिन जब मानसून का मौसम आता है, तो इसके किनारे 3 से 10 किलोमीटर तक चौड़े हो जाते हैं। इसके बारे में माना जाता है कि यह कभी एक बहुत बड़ी नदी रही होगी। यह भारत-तिब्बत की पहाड़ी सीमा से निकली है।
 
उन्होंने बहुत से स्रोतों से जानकारी हासिल की और नदी के मूल मार्ग का पता लगाया। ऋग्वेद में भौगोलिक क्रम के अनुसार यह नदी यमुना और सतलुज के बीच रही है और यह पूर्व से पश्चिम की तरह बहती रही है। नदी का तल पूर्व हड़प्पाकालीन था और यह 4 हजार ईसा पूर्व के मध्य में सूखने लगी थी। अन्य बहुत से बड़े पैमाने पर भौगोलिक परिवर्तन हुए और 2 हजार वर्ष पहले होने वाले इन परिवर्तनों के चलते उत्तर-पश्चिम की ओर बहने वाली ‍नदियों में से एक नदी गायब हो गई और यह नदी सरस्वती थी। डैनिनो का कहना है कि करीब 5 हजार वर्ष पहले सरस्वती के बहाव से यमुना और सतलुज का पानी मिलता था। 
 
पटियाला से करीब 25 किमी दूर दक्षिण में सतलुज (जिसे संस्कृत में शतार्दू कहा जाता है) एक उपधारा के तौर पर सरस्वती में मिली। घग्घर के तौर पर आगे बढ़ती हुई यह राजस्थान और बहावलपुर में हाकरा के तौर आगे बढ़ी और सिंध प्रांत के नारा में होते हुए कच्छ के रण में विलीन हो गई। इस क्षेत्र में यह सिंधु नदी के समानांतर बहती थी। 
 
इस क्षेत्र में नदी के होने के कुछ और प्रमाण हैं। इसरो के वैज्ञानिक एके गुप्ता का कहना है कि थार के रेगिस्तान में पानी का कोई स्रोत नहीं है लेकिन यहां कुछ स्थानों पर ताजे पानी के स्रोत मिले हैं। जैसलमेर जिले में जहां बहुत कम बरसात होती है (जो कि 150 मिमी से भी कम है), यहां 50-60 मीटर पर भूजल मौजूद है। इस इलाके में कुएं सालभर नहीं सूखते हैं। इस पानी के नमूनों में ट्राइटियम की मात्रा नगण्य है जिसका मतलब है कि यहां आधुनिक तरीके से रिचार्ज नहीं किया गया है। स्वतंत्र तौर पर आइसोटोप विश्लेषण से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि रेत के टीलों के नीचे ताजा पानी जमा है और रेडियो कार्बन डाटा इस बात का संकेत देते हैं कि यहां कुछेक हजार वर्ष पुराना भूजल मौजूद है। आश्चर्य की बात नहीं है कि ताजे पानी के ये भंडार सूखी तल वाली सरस्वती के ऊपर हो सकते हैं।
 
अगले पन्ने पर दूसरा प्राचीन स्थान...
 

नर्मदा घाटी सभ्यता : विश्व की प्राचीनतम नदी सभ्यताओं में से एक नर्मदा घाटी की सभ्यता का का जिक्र कम ही किया जाता है, जबकि पुरात्ववेत्ताओं अनुसार यहां भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता के अवशेष पाए गए हैं।
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नर्मदा घाटी के प्राचीन नगरों की बात करें तो महिष्मती (महेश्वर), नेमावर, हतोदक, त्रिपुरी, नंदीनगर आदि ऐसे कई प्राचीन नगर है जहां किए गए उत्खनन से उनके 2200 वर्ष पुराने होने के प्रमाण मिले हैं। जबलपुर से लेकर सीहोर, होशंगाबाद, बड़वानी, धार, खंडवा, खरगोन, हरसूद आदि तक किए गए और लगातार जारी उत्खनन कार्यों ने ऐसे अनेक पुराकालीन रहस्यों को उजागर किया है। 
 
संपादक एवं प्रकाशक डॉ. शशिकांत भट्ट की पुस्तक 'नर्मदा वैली : कल्चर एंड सिविलाइजेशन' नर्मदा घाटी की सभ्यता के बारे में विस्तार से उल्लेख मिलता है। इस किताब के अनुसार नर्मदा किनारे मानव खोपड़ी का पांच से छः लाख वर्ष पुराना जीवाश्म मिला है। इससे यह खुलासा होता है कि यहां सभ्यता का काल कितना पुराना है। यहां डायनासोर के अंडों के जीवाश्म पाए गए, तो दक्षिण एशिया में सबसे विशाल भैंस के जीवाश्म भी मिले हैं। 
 
इसके अलवा एकेडेमी ऑफ इंडियन न्यूमिस्मेटिक्स एंड सिगिलोग्राफी, इंदौर ने नर्मदा घाटी की संस्कृति व सभ्यता पर केंद्रित देश-विदेश के विद्वानों के 70 शोध पत्रों पर आधारित एक विशेषांक निकाला था, जो इस प्राचीन सभ्यता की खोज और उससे जुड़ी चुनौतियों को प्रस्तुत करता है।
 
भीमबैठका : भीम यहां बैठते थे, विश्राम करते थे इसलिए इन गुफाओं को भीमबैठका कहा जाता है। भीमबैठका रातापानी अभयारण्य में स्थित है। यह भोपाल से 40 किलोमीटर दक्षिण में है। यहां से आगे सतपुडा की पहाड़ियां शुरू हो जाती हैं। भीमबेटका (भीमबैठका) भारत के मध्यप्रदेश प्रांत के रायसेन जिले में स्थित एक पुरापाषाणिक आवासीय पुरास्थल है। यह आदिमानव द्वारा बनाए गए शैलचित्रों और शैलाश्रयों के लिए प्रसिद्ध है। इन चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल के समय का माना जाता है।
 
नर्मदा घाटी को विश्व की सबसे प्राचीन घाटियों में गिना जाता है। यहां भीमबैठका, भेड़ाघाट, नेमावर, हरदा, ओंकारेश्वर, महेश्वर, होशंगाबाद, बावनगजा, अंगारेश्वर, शूलपाणी आदि नर्मदा तट के प्राचीन स्थान हैं। नर्मदा घाटी में डायनासोर के अंडे भी पाए गए हैं और यहां कई विशालकाय प्रजातियों के कंकाल भी मिले हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में तो कई गुफाएं हैं। एक गुफा में 10 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र मिले हैं।
 
यहां मिले शैलचित्रों में स्पष्ट रूप से एक उड़नतश्तरी बनी हुई है। साथ ही इस तश्तरी से निकलने वाले एलियंस का चित्र भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जो आम मानव को एक अजीब छड़ी द्वारा निर्देश दे रहा है। इस एलियंस ने अपने सिर पर हेलमेट जैसा भी कुछ पहन रखा है जिस पर कुछ एंटीना लगे हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि 10 हजार वर्ष पूर्व बनाए गए ये चित्र स्पष्ट करते हैं कि यहां एलियन आए थे, जो तकनीकी मामले में हमसे कम से कम 10 हजार वर्ष आगे हैं ही।
 
भीमबेटका क्षेत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल ने अगस्त 1990 में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया। इसके बाद जुलाई 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। ये भारत में मानव जीवन के प्राचीनतम चिह्न हैं। इनकी खोज वर्ष 1957-1958 में डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी।
 
यहां 750 शैलाश्रय हैं जिनमें 500 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित हैं। पूर्व पाषाणकाल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा।
 
इन चित्रों में शिकार, नाच-गाना, घोड़े व हाथी की सवारी, लड़ते हुए जानवर, श्रृंगार, मुखौटे और घरेलू जीवन का बड़ा ही शानदार चित्रण किया गया है। इसके अलावा वन में रहने वाले बाघ, शेर से लेकर जंगली सूअर, भैंसा, हाथी, हिरण, घोड़ा, कुत्ता, बंदर, छिपकली व बिच्छू तक चित्रित हैं। चित्रों में प्रयोग किए गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेंरुआ, लाल और सफेद हैं और कहीं-कहीं पीला और हरा रंग भी प्रयोग हुआ है।
 
कहीं-कहीं तो चित्र बहुत सघन हैं जिनसे पता चलता है कि ये अलग-अलग समय में अलग-अलग लोगों ने बनाए होंगे। इनके काल की गणना कार्बन डेटिंग सिस्टम से की गई है जिनमें अलग-अलग स्थानों पर पूर्व पाषाणकाल से लेकर मध्यकाल तक की चित्रकारी मिलती है। इसकी कार्बन डेटिंग से पता चला है कि इनमें से कुछ चित्र तो लगभग 25 से 35 हजार वर्ष पुराने हैं।
 
ये चित्र गुफाओं की दीवारों व छतों पर बनाए गए हैं जिससे मौसम का प्रभाव कम से कम हो। अधिकतर चित्र सफेद व लाल रंग से ही बनाए गए हैं लेकिन मध्यकाल के कुछ चित्र हरे व पीले रंगों से भी निर्मित हैं। प्रयुक्त रंगों में कुछ पदार्थों जैसे मैंगनीज, हैमेटाइट, नरम लाल पत्थर व लकड़ी के कोयले का मिश्रण होता था। इसमें जानवरों की चर्बी व पत्तियों का अर्क भी मिला दिया जाता था। आज भी ये रंग वैसे के वैसे ही हैं।
 
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महानदी सभ्यता : मानव सभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारंभिक विकास नदी के किनारे ही हुआ है। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी महानदी का प्राचीन नाम चित्रोत्पला था। इसके अलावा इसे महानंदा और नीलोत्पला के नाम से भी जाना जाता है। महानदी का उद्गम रायपुर के समीप धतरी जिले में स्थित सिहावा नामक पर्वत से हुआ है। इस नदी का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर है। इस नदी को ‘छत्तीसगढ़ की गंगा’ भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां दस हजार वर्ष पूर्व प्राचीन सभ्यता होने के प्रमाण मिले हैं। अबूझमाड़ के जंगल की गुफाएं हो या लीलर-अरौद जैसे तट पर बसे प्राचीन स्थान।
 
प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ को 'दक्षिण कोशल' के नाम से जाना जाता था। इस क्षेत्र का उल्लेख रामायण और महाभारत में भी मिलता है। यह दंडकारण्य वन का एक हिस्सा था। अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। 'अत्रि-आश्रम' से 'दंडकारण्य' आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।
 
छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में महानदी के किनारे ही सभ्यता का विकास हुआ। महानदी के रेत के नीचे हजारों साल का इतिहास दफन है। अरौद में महापाषाण काल का श्मशान घाट और महानदी के किनारे चट्टाननुमा बंदरगाह मिलने के बाद भी इस क्षेत्र की व्यापक खुदाई नहीं की गई। इसलिए जमींदोज हो चुकी प्राचीन सभ्यता के रहस्य से पर्दा नहीं उठ पा रहा है। अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि धमतरी जिले की सभ्यता कितनी पुरानी है।
 
जिला मुख्यालय से 20 किमी दूर महानदी से लगा ग्राम अरौद है। पुरातात्विक महत्व के ग्राम लीलर, दरगहन और सलोनी भी महानदी तट पर इसी रोड में पड़ते हैं। इन गांवों में अब तक ज्ञात 3 हजार साल पुरानी सभ्यता का इतिहास दबा पड़ा है। महानदी किनारे अरौद के बंदरगाहनुमा चट्टान का निरीक्षण करने के बाद अधिकांश पुरातत्ववेत्ताओं और शोधकर्ताओं ने महानदी की रेत में बड़े-बड़े चट्टानों को देखकर इसे प्राचीन काल का छोटा बंदरगाह करार दिया था।
 
उनका तर्क था कि यहां छोटे-छोटे नाव ठहरते थे। 3 हजार साल पहले महानदी उफान पर होती थी। उस समय यातायात के लिए जल मार्ग का उपयोग होता रहा होगा। कुछ पुरातत्वविदों का अनुमान था कि ये पत्थरनुमा चट्टान नहाने और कपड़ा धोने के पुराने घाट भी हो सकते हैं। ये बंदरगाह है या घाट, इसकी वास्तविकता जानने के लिए पुरातात्विक खुदाई जरूरी है। लेकिन पुरातत्व शोध हुए 5 साल बीत गए न खुदाई शुरू हुई और न ही पुरातत्व विभाग ने दोबारा इस क्षेत्र में कोई शोध किया।
 
अगले पन्ने पर चौथा प्राचीन स्थान..
 
दक्षिण भारत की सभ्यता : पुरातत्व शोधकर्ता मानते हैं कि तमिल सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता थी। अरब की खाड़ी में ऐसे दो नगर ढूंढे गए हैं जो कि भारत के प्राचीन वैभव और इतिहास को प्रमाणित करते हैं। यहां से प्राप्त पुरा अवशेषों की कार्बन डेटिंग से पता चला है कि यह 5 हजार से 9 हजार वर्ष पुरानी हैं। द्वारिका की तरह यह नगर की प्राकृतिक आपदाओं के कारण समुद्र में समा गए थे।
 
इन नगरों की खोज से यह पता चलता है कि गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों से जुड़ी तमिल सभ्यता कितनी प्राचीन थी। दक्षिण भारत के प्राचीन नगरों में पंचवटी, नासिक, महाबलेश्वर, महाबलीपुरम, किष्किंधा, हम्पी, ऋष्यमूक पर्वत, कोडीकरई, रामेश्‍वरम और धनुषकोडी (रामसेतु) को सबसे प्राचीन माना जाता है। कावेरी नदी को ‍दक्षिण की गंगा कहा जाता है। कर्नाटक और तमिलनाडु इस कावेरी घाटी में पड़ने वाले प्रमुख राज्य हैं। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर रामायण और महाभारतकालीन अवशेष पाए जाते हैं। आगे चलकर पंपा नदी है।

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गंगा सभ्यता : हमारे पुराणों में गंगा को मां का दर्जा दिया गया है। गंगा को भारतीय सभ्यता का पालक माना गया है तथा गंगा किनारे अनेक सभ्यता उत्पन्न हुई हैं। उत्तराखंड के गंगोत्री से निकलकर गंगा हरिद्वार के मैदानी क्षेत्र में उतरकर, गढ़मुक्तेश्वर, सोरों, फर्रुखाबाद, कन्नौज, बिठूर, कानपुर होते हुए इलाहाबाद (प्रयाग) पहुंचती है जहां वे अपनी भगिनी यमुना नदी से मिलती है।
इसके बाद वह काशी (वाराणसी) में गंगा वह शिव के चरणों में पहुंचकर एक वक्र रेखा में मुड़कर मीरजापुर, पटना, भागलपुर होते हुए पाकुर पहुंच जाती। इस बीच इसमें बहुत-सी सहायक नदियां, जैसे सोन, गंडक, घाघरा, कोसी आदि मिल जाती हैं। भागलपुर में राजमहल की पहाड़ियों से यह दक्षिणवर्ती होते हुए पश्चिम बंगाल में पहुंचती है। यहां वह मुर्शिदाबाद जिले के गिरिया स्थान के पास दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है। पहली शाखा को भागीरथी और दूसरी को पद्मा कहते हैं। भागीरथी नदी गिरिया से दक्षिण की ओर बहने लगती है जबकि पद्मा नदी दक्षिण-पूर्व की ओर बहती फरक्का बैराज से छनते हुई बंगला देश में प्रवेश करती है। मुर्शिदाबाद शहर से हुगली शहर तक गंगा का नाम भागीरथी नदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदी है। दोनों ही भाग अंतत: बंगाल की खाड़ी में लीन हो जाते हैं।

अगले पन्ने पर छठा स्थान...

ब्रह्मपुत्र नदी : तिब्बत से बांग्लादेश तक फैली ब्रह्मपुत्र नदी के भू-क्षे‍त्र विस्तृत है। कई नदियां इसकी सहायक नदियां है और यह कई संस्कृति और सभ्यताओं का मिलन स्थल भी है। ब्रह्मपुत्र सिर्फ एक नदी नहीं है। यह एक दर्शन है-समन्वय का। इसके तटों पर कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का मिलन हुआ है। आर्य-अनार्य, मंगोल-तिब्बती, बर्मी-द्रविड़, मुगल-आहोम संस्कृतियों की टकराहट और मिलन का गवाह यह ब्रह्मपुत्र रहा है। जिस तरह अनेक नदियां इसमें समाहित होकर आगे बढ़ी हैं, उसी तरह कई संस्कृतियों ने मिलकर एक अलग संस्कृति का गठन किया है। 
 
तिब्बत स्थित पवित्र मानसरोवर झील से निकलने वाली सांग्पो नदी पश्चिमी कैलास पर्वत के ढाल से नीचे उतरती है तो ब्रह्मपुत्र कहलाती है। तिब्बत के मानसरोवर से निकलकर बाग्लांदेश में गंगा को अपने सीने में लगाकर एक नया नाम पद्मा फिर मेघना धारण कर सागर में समा जाने तक की 2906 किलोमीटर लंबी यात्रा करती है। 
 
ब्रह्मपुत्र भारत ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे लंबी नदी है। यदि इसे देशों के आधार पर विभाजित करें तो तिब्बत में इसकी लंबाई सोलह सौ पच्चीस किलोमीटर है, भारत में नौ सौ अठारह किलोमीटर और बांग्लादेश में तीन सौ तिरसठ किलोमीटर लंबी है यानी बंगाल की खाड़ी में समाने के पहले यह करीब तीन हजार किलोमीटर का लंबा सफर तय कर चुकी होती है। इस क्रम में अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मेघालय, भूटान, पश्चिम बंगाल और सिक्किम के पहाड़ों से निकली अन्य अनेक नदियां इसमें समाहित हो जाती हैं। इस दौरान अनेक नदियां और उनकी उप-नदियां आकर इसमें समा जाती हैं। हर नदी की अपनी कहानी है और उनके किनारे बसी जनजातियों की अपनी संस्कृति है। 
 
ब्रह्मपुत्र के कई नाम और पहचान हैं। हर क्षेत्र में इसके स्वभाव और आचरण में भी फर्क है। डिब्रूगढ़ में इसका मीलों लंबा पाट इसकी विशालता को दर्शाता है तो गुवाहाटी में दोनों ओर की पहाड़ियों के बीच से गुजरने के लिए यह अपना आकार लघु कर लेती है। फिर नीलाचल पहाड़, जिस पर मां कामाख्या का मंदिर है, का चरण स्पर्श करने के बाद आगे जाकर अपना विराट रूप धारण कर लेती है। असम के अधिकांश बड़े शहर इसी के किनारे विकसित हुए। डिब्रूगढ़, जोरहाट, तेजपुर, गुवाहाटी, धुबड़ी और ग्वालपाड़ा इसी के किनारे बसे हुए हैं।