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Last Updated : मंगलवार, 1 मार्च 2016 (12:38 IST)

हिन्दू धर्म के 7 महत्वपूर्ण क्षेत्र

हिन्दू धर्म के 7 महत्वपूर्ण क्षेत्र - hinduism sapta kshetra darshan
भगवान के अवतार के स्थान, विशिष्ट संत-महात्माओं, ऋषियों, मुनियों तथा धर्मात्मा राजर्षियों की निवास स्थली या तप: स्थली को क्षेत्र भी कहा जाता है, जो पवित्र तीर्थ माने जाते हैं। पुराणों में ऐसे अनेका क्षेत्रों का महात्म्य बताया गया है, जिनमें से सात प्रमुख हैं, जो सप्तक्षेत्रके नाम से प्रसिद्ध है। आगे उन्हीं का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
1.कुरुक्षे‍त्र : प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा कुरुद्वारा हल चलाकर भूमि को पवित्र कर कुरुक्षेत्र की स्थापना की गई थी। इसे कुरुजांगल भी कहा गया है। भागवत में इसे धर्मक्षेत्र कहा गया है। कुरुक्षेत्र में ही महाभारत का युद्ध हुआ था। यह पुण्यप्रद क्षेत्र भारत के हरियाणा प्रांत में है।
 
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2.हरिक्षेत्र- हरिक्षे‍त्र का उल्लेख वराह पुराण में मिलता है। कभी यहां महर्षि पुलस्त्य ने तपस्या की थी। राजा आदिभरत (जड़भरत) ने भी यहां रहकर तपस्य की थी। इसे पुलहाश्रम भी कहा जाता है। यहां गंगा-सरयू-सोन तथा गंठकी इन चार नदियां का संगम है। यह क्षेत्र पटना के पास का एक तीर्थ है।

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3.प्रभास क्षेत्र: यह स्थान हिन्दुओं के लिए सबसे पवित्र है। यह द्वारिका से थोड़ी दूर उत्तर में सौराष्‍ट्र में स्थित है। स्कंदपुराण के प्रभास खंड में इस क्षेत्र का महात्म्य बताया गया है। यह शैव तथा वैष्णवों आदि सभी का महान पवित्र तीर्थ है। दक्ष प्राजपति के शाप से क्षय रोगग्रस्त चंद्रमा ने यहां पर तपस्या कर के रोग मुक्ति पाई थी। भगवान श्रीकृष्ण के चरण में जरा नामक व्याघ ने यहीं बाण मारा था। यदुवंशियों तथा वृन्दावन की गोपियों का यही देहोत्सर्ग तीर्थ माना जाता है। यहां का गोपीचंदन अति प्रसिद्ध है।
वायुपुराण (2.42) में यह उल्लेख मिलता है कि जब सभी तत्वों को प्राप्तकर भी वेदव्यास को आत्यन्तिकी शांति नहीं हो पाई थी, तब उन्हें सुमेरूगिरी की उपत्यका में कठिन तपस्या के बाद भगवान वेदपुरुष नारायण के विराट स्वरूप के दर्शन हुए। जिनके अंग प्रत्यंग में यह संपूर्ण ब्रह्मांड, सभी तीर्थ क्षेत्र, यज्ञयादि, धर्म, वेद, पुराण, आदि मूर्तिमान् होकर प्रतिष्ठित थे। जिनमें प्रभास क्षे‍त्र भगवान के हनुदेश और कंठ के मध्‍य स्थित था।

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4.भृगुक्षे‍त्र : यह नर्मदा और समुद्र के संगम पर स्थित है तथा प्रभास क्षेत्र के दक्षिण में स्थित है। इसे आजकल भड़ोच कहते हैं। प्राचीन काल में इसका नाम जम्बूमार्ग था। राजा बलि ने यहां निवास कर दस अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किए थे।

महर्षि भृगु द्वारा प्रतिष्ठित यहां का भृग्वीश्वर नामक शिवलिंग अति प्रसिद्ध है, जो नर्मदा के तट पर भास्कर तीर्थ और द्वादशादित्य तीर्थों के पास है। इस क्षे‍त्र में 55 मुख्‍य तीर्थ हैं। महर्षि भृगु की दीर्घकालीन निवास स्थली तथा तप स्थली के कारण यह भृगुक्षेत्र कहलाता है। इनकी पुत्र परम्परा महर्षि जमदग्नि तथा परशुरामजी की भी यह तप स्थली रही है।

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5. पुरुषोत्तम क्षेत्र : पुराणों में पुरुषोत्तम क्षेत्र को अति पवित्र तथश पुण्यप्रद बताया गया है। इस जगन्नाथ धाम भी कहा गया है। चार धामों के वर्णन में इसका विस्तृत महामात्म्य वर्णित हुआ है, अत: वहीं अवलोकन करना चाहिए। 

माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।
 
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6.नैमिषक्षेत्र : इसे आदितीर्थ कहा जाता है। यह उत्तर प्रदेश के सीतापुर जनपद से लगभग 40 किलोमीटर पूर्वकी ओर है। यह स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की तप:स्थली है। आदिगंगा गोमती जिसे धेनुमती भी कहा जाता है, यहीं पर प्रवाहित हैं। चक्रतीर्थ, ललितादेवी शक्तिपीठ, हत्याहरण, मिश्रित तीर्थ आदि अनेक पुण्यप्रद तीर्थ इस क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। नैमिष क्षे‍त्र की परिक्रमा 84 कोश की है। इसकी गणना प्रधान द्वाद्श अरण्यों में भी है।

तीरथ वर नैमिष विख्याता ।
अति पुनीत साधक सिधि दाता ।।
 
वाल्मीकि-रामायण में 'नैमिष' नाम से उल्लिखित इस स्थान के बारे में कहा गया है कि श्री राम ने गोमती नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किया था- 'ऋषियों के साथ लक्ष्मण को घोड़े की रक्षा के लिये नियुक्त करके रामचन्द्र जी सेना के साथ नैमिषारण्य के लिए प्रस्थित हुए।' महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर और अर्जुन ने इस तीर्थ-स्थल की यात्रा की थी। 'आइने अकबरी' में भी इस स्थल का वर्णन मिलता है। हिन्दी साहित्य के गौरव महाकवि नरोत्तमदास की जन्म-स्थली (बाड़ी) भी नैमिषारण्य के समीप ही स्थित है।"
 
कहा जाता है कि शौनक ऋषि ज्ञान की पिपासा शान्त करने के लिए ब्रहमा जी के पास गए। ब्रहमा जी ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा कि इसे चलाते हुए चले जाओ। जहाँ चक्र की नेमि (बाहरी परिधि) गिरे, उसे पवित्र स्थान समझकर- वहाँ आश्रम स्थापित कर लोगों को ज्ञानार्जन कराओ। शौनक ऋषि के साथ कई अन्य ऋषिजन इसी प्रयोजन से चले।
 
अन्तत: गोमती नदी के तट पर चक्र की नेमि गिरी और भूमि में प्रवेश कर गयी। तभी से यह स्थल चक्रतीर्थ तथा नैमिषारण्य के नाम से विख्यात हुआ। जनश्रुति के अनुसार नैमिषारण्य का नाम 'निमिषा' का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता नेत्र की आभा। वैदिक काल में यह तपस्थली एक प्रमुख शिक्षा-केन्द्र के रूप में विख्यात थी। पौराणिक मान्यतानुसार नैमिषारण्य 88000 ऋषि-मुनियों के तप-ज्ञानार्जन का केन्द्र था।
 
कहा जाता है कि शौनक आदि ऋषियों को सूत जी ने अट्ठारह पुराणों की कथा और मर्म का यही उपदेश दिया था। द्वापर में श्री कृष्ण के भाई बलराम भी यहाँ आए थे और यज्ञ किया था। प्राचीनकाल में इस सुरम्य स्थल का वृहद् भू-भाग वनाच्छादित था। शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यह अध्ययन, मनन और ज्ञानार्जन हेतु एक आदर्श स्थान है।

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7.गया क्षेत्र : गया तीर्थ की अत्यधिक महिमा है। वायुपुराण, पद्मपुराण तथा अग्नि पुराणों में गया का विस्तृत महात्म्य प्रतिपादित है। पितृतीर्थ के रपू में गया की अत्यधिक प्रसिद्धि है। पितर कामना करते हैं कि उनके वंश में कोई ऐसा पुत्र उत्पन्न हो, जो गया जाकर उनका श्राद्ध करे। गया क्षे‍त्र के तीर्थों में फल्गु नदी, विष्णुपद, गयासिर, गयाधर, मंदिर, प्रेतशिला, ब्रह्मकुण्ड, अक्षयवट आदि प्रमुख है। गया का नाम गय नामक असुर के नाम पर पड़ा है।

'ब्रह्मज्ञान, गयाश्राद्ध, गोशाला में मृत्यु तथा कुरुक्षेत्र में निवास- ये चारों मुक्ति के साधन हैं-' गया में श्राद्ध करने से ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्ण की चोरी, गुरुपत्नीगमन और उक्त संसर्ग-जनित सभी महापातक नष्ट हो जाते हैं। 'गया तीर्थ में पितरों के लिए पिण्डदान करने से मनुष्य को जो फल प्राप्त होता है, सौ करोड़ वर्षों में भी उसका वर्णन मेरे द्वारा नहीं किया जा सकता।'
 
इसी प्रकार पुष्कर राज के ब्रह्म कुण्ड में, बद्रीनाथ में ब्रह्मकपाली क्षेत्र में, गोदावरी के तट पर त्र्यंबकेश्वर तीर्थ में तथा हरिद्वार के कुशाघाट में जो श्रद्धालु अपने पितृ के लिए पिण्डदान, श्राद्ध तर्पण, यज्ञ, विप्रों को भोजन करना एवं गौदान करते है उनके पितर तृप्त होकर अखण्ड सौभाग्य का आशीर्वाद देते हैं।