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Written By आलोक मेहता

अँगरेजीदां मुखौटों के आँसू

अँगरेजीदां मुखौटों के आँसू -
अँगरेजी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार है। अच्छी शिक्षा-दीक्षा मिली है। बैंक में लाखों ही नहीं, कुछ करोड़ रुपए जमा हो जाते हैं। मैगसायसाय, बुकर, नोबेल पुरस्कार की सिफारिश करने वाले प्रशंसकों से घिरी रहती हैं।

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कहानी, उपन्यास के अलावा अँगरेजी की समाचार पत्रिकाओं में 25 से 30 पृष्ठों के बड़े-बड़े लेख छप जाते हैं। इतने बड़े लेख उस पत्रिका या देश के किसी अन्य संपादक के नहीं छप सकते। जिन पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-छपने पर उन्हें हजारों रुपए मिलते हैं, उन प्रकाशनों के प्रबंधक वही पूँजीपति हैं जो जंगल काटकर उद्योग लगाते हैं, झुग्गियाँ तोड़कर बहुमंजिला इमारतें बनाते हैं।

अँगरेजी में लिखी जिन पुस्तकों की रॉयल्टी से उन्हें लाखों रुपए मिलते हैं, वे पुस्तकें वही वर्ग खरीदता है, जिसे झोपड़ियों के प्रति दर्द का अहसास नहीं होता। हाँ, अँगरेजी में भारत के आदिवासियों की दुर्दशा, खूनी हिंसा की मानसिकता वाले नक्सली अतिवादियों के बारे में पढ़-सुनकर भारत विरोधी षड्यंत्र करने वाले परदेसी बहुत अधिक प्रसन्न होते हैं।

वे भारत में झोला लटकाकर चलती हैं और हवाई यात्रा महँगे बिजनेस क्लास में करती हैं। पाँच सितारा होटलों की पार्टियों में आनंद लेती हैं, लेकिन प्रशंसकों के रूप में दूर खड़े फटेहाल लोगों को देखना चाहती हैं। आखिर जयकार वही कर सकते हैं।

उन्हें छत्तीसगढ़ या झारखंड, उड़ीसा या आंध्र में जंगल और पहाड़ काटने पर बहुत तकलीफ होती है। ज्ञानी लेखिका होने के कारण उन्हें पता है कि आदिवासियों को पहाड़ में "ईश्वर" के दर्शन होते हैं और वे पेड़ों की पूजा करते हैं इसलिए उनके पेड़ों और पहाड़ों से छेड़छाड़ कर उद्योग-धंधा लगाने वाले दुष्ट और पापी हैं।

पाखंड का आलम यह कि सत्ता कट्टरपंथियों के कंधों पर बैठकर चाहिए, लेकिन लबादा धर्मनिरपेक्षता का पहने रखा। सत्ता की भूख ऐसी कि शारीरिक-मानसिक हालत खस्ता होते हुए भी सरकारी बंगले, गाड़ी और हवाई जहाज की सुविधाएँ अवश्य चाहिए। फिर वे अकेले सोशलिस्ट नहीं हैं।
वे चाहती हैं कि आदिवासियों को अंडमान के आदिवासियों की तरह प्राचीन पाषाण युग जैसा ही रहने दिया जाए। वे उनकी संस्कृति की रक्षा करना चाहती हैं। उन्हें डर लगता है कि यदि सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में भी शिक्षा की व्यवस्था हो गई तो थोड़ा पढ़-लिखकर आदिवासी शहरी युवकों की तरह बेरोजगारी के शिकार होंगे।

यह बात अलग है कि अभी रोजगार नहीं होने के कारण ही वे हिंसक अपराधियों के कथित "वैचारिक गिरोहों" के चंगुल में रहकर बंदूक उठाए भटक रहे हैं और कभी जानवरों से, कभी गिरोहों से और कभी पुलिस के हाथों मारे जा रहे हैं।

वे चाहती हैं कि उनके पास वही डॉक्टर जाए, जिसे हिंसक गुटों का प्रमाण-पत्र मिला हो। जो दवाई का नहीं, हथियारों का इंतजाम कर सकता हो। उन इलाकों में वही इंजीनियर जाए जो मकान-दुकान बनाने के बजाय बारूदी सुरंग लगा सकता हो। उन्हें दिल्ली के पास हरियाणा या उप्र में पुलिस अथवा अपराधी गिरोह के अत्याचारों पर परेशानी नहीं होती, लेकिन हिंसक नक्सलियों पर कठोर कार्रवाई व गोलियों से दर्द होता है।

ऐसी लेखिका, लेखक या उनके परम प्रिय चाहने वालों से कोई यह सवाल नहीं करता कि पिछले 20-25 वर्षों में राजधानी दिल्ली के चारों ओर अरावली की पहाड़ियों को तोड़े जाते समय उस इलाके में रहने वाले गरीब लोगों की भावना और भगवान की सुध उन्होंने क्यों नहीं ली? खदानों से रेत की चोरी से लेकर झोपड़ियों की जगह इमारतों और उद्योगों का विरोध क्यों नहीं किया?

दिल्ली में यमुना किनारे झुग्गी-झोपड़ी बनाकर रहने वालों में हजारों लोग उसी छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और उड़ीसा से आए हुए हैं। उनकी झोपड़ियाँ उजड़ने पर उन्हें कोई कष्ट क्यों नहीं हुआ? हिंसक नक्सली गुटों के प्रति उन्हें सहानुभूति है, लेकिन छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, बिहार में कम शिक्षा और बेरोजगारी के कारण पुलिस में भर्ती हुए 19 से 25 साल तक के युवकों को बारूदी सुरंग से उड़ाए जाने और फिर उनके परिवारों की दयनीय हालत तथा भुखमरी पर लेखिका की कलम कभी नहीं चलती। यह अंग्रेजीदां पाखंड नहीं तो और क्या है?

संभव है, उनके प्रशंसक अन्य विचारों के पाखंडियों को देखकर संतोष कर लेते हों। निश्चित रूप से कथित "प्रगतिशील" पाखंडियों की तरह दक्षिणपंथी पाखंडी भी सत्ता के गलियारों में महत्वपूर्ण माने जाते हैं। वे हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा की बात करते हैं। बचपन से छात्र-जीवन तक कट्टर हिन्दूवादी संगठनों में दंडवत करते रहे हैं। संगठन और स्वयंसेवकों के बल पर शीर्ष स्थानों पर पहुँचे हैं, लेकिन उन्हें अब पाँच सितारा होटलों में शराब के प्याले के बिना "संस्कृति" की बात करना अच्छा नहीं लगता।

वे राजनीतिक स्वार्थों के लिए किसी के साथ भी हाथ मिलाने और काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। उन्हें इस बात से तकलीफ होती है कि ईमानदार पत्रकार कॉर्पोरेट कंपनियों के झगड़ों और गड़बड़ियों को क्यों उजागर करते हैं, लेकिन स्वयं बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों की पैरवी करने और उनसे लाखों रुपए लेने में कभी संकोच नहीं होता।

वे मंदिर के नाम पर करोड़ों रुपए इकट्ठा करते हैं, लेकिन राजधानी दिल्ली में बने मंदिरों और अन्य प्रार्थना स्थलों के आसपास कूड़े-गंदगी के ढेर हटवाने और वहाँ भिखारी या अपराधी गिरोहों से रक्षा के लिए कभी कोशिश नहीं करते।

वे स्वयं मंदिरों की मूर्तियों पर 10 लाख से 10 करोड़ रुपए तक के स्वर्ण मुकुट चढ़ाते हैं, लेकिन उन मूर्तियों को सजाने-सँवारने और शुद्ध संस्कृत में प्रार्थना करने वाले पुजारियों को मात्र 1500 रुपए मिलने और मंदिरों के प्रबंधकों द्वारा किए जा रहे शोषण के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोलते। उन्हें तो धन और सत्ता-सुख के लिए धर्म एवं संस्कृति की एक दुकान और मुखौटे की जरूरत होती है।

पाखंड सोशलिस्ट भी कम नहीं करते। एक बड़े सोशलिस्ट नेता ने हाल के राज्यसभा चुनाव में अपनी संपत्ति 54 करोड़ रुपए घोषित की। लोग उन्हें जीवनभर मजदूरों और किसानों का नेता मानते रहे। दिखाने को वे हमेशा कुर्ता-पायजामा पहनते रहे। सोशलिस्ट विचारधारा फैलाने के लिए देश में ही नहीं, विदेशों से चंदा लेते रहे। मजदूर नेता बनने के लिए कभी रेल हड़ताल करवाई और रेलमंत्री बनने के बाद उन्हीं मजबूरों के बजाय बड़े अफसरों, चाहने वालों-चाहने वालियों और शोषक पूँजीपतियों के स्वार्थों की पूर्ति करते रहे।

सोनिया या राहुल भले ही हरिजन, आदिवासी बस्तियों में जाकर दुःख-दर्द सुन-समझकर चिट्ठी लिखते रहें, सत्ता के गलियारों में गरीबों की गुहार सुनने को कोई तैयार नहीं है। केंद्र में बैठे नेता गरीबों से मिलने के लिए एक घंटा भी नहीं निकाल पाते।
पाखंड का आलम यह कि सत्ता कट्टरपंथियों के कंधों पर बैठकर चाहिए, लेकिन लबादा धर्मनिरपेक्षता का पहने रखा। सत्ता की भूख ऐसी कि शारीरिक-मानसिक हालत खस्ता होते हुए भी सरकारी बंगले, गाड़ी और हवाई जहाज की सुविधाएँ अवश्य चाहिए। फिर वे अकेले सोशलिस्ट नहीं हैं। अब तो हजार पाँच सौ करोड़ रुपए की जमा पूँजी वाले ही असली सोशलिस्ट नेता कहलाना चाहते हैं।

सोशलिस्ट तमगा लगाने का लाभ यह है कि वे कभी भी किसी दल या संगठन के साथ जुड़कर सत्ता सुख पा सकते हैं। कट्टरपंथी हिंदुओं, मुस्लिमों या सिखों की पार्टियाँ हों या कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टियाँ या अथवा भ्रष्टाचार के आरोपों से आकंठ डूबे नेताओं की जेबी पार्टियाँ, सोशलिस्ट किसी से भी तालमेल कर सकते हैं। उनके लिए सोशलिज्म का एक मुखौटा पर्याप्त है।

यहाँ तक पढ़ने वाले मुखौटाधारियों के कुछ प्रशंसक थोड़ा नाराज हो गए होंगे। उन्हें महसूस हो रहा होगा कि हमें यूपीए के सत्ताधारी मुखौटे क्यों नहीं दिखते? क्षमा कीजिए-वे भी अच्छी तरह दिखते हैं। कांग्रेस नेतृत्व वाले गठंबधन में बैठे कई सत्ताधारी या उनके सहयोगी और एजेंटों ने भी गरीबों के नाम पर मुखौटे लगा रखे हैं। उनकी दुकानें ईमानदार कर्मठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के बल पर चल रही हैं। कुछ सत्ताधारी नेता सचमुच काबिल हैं, पढ़े-लिखे हैं और अच्छी छवि के बल पर राज कर रहे हैं, लेकिन उनके दफ्तर में बैठे सलाहकार, सहयोगी, चमचे या एजेंट जमकर दुकान चलाते हैं।

सोनिया गाँधी या राहुल गाँधी भले ही हरिजन, आदिवासी बस्तियों में जाकर दुःख-दर्द सुन-समझकर चिट्ठी लिखते रहें, सत्ता के गलियारों में गरीबों की गुहार सुनने को कोई तैयार नहीं है। वोट 'गरीबों के साथ' के नाम पर लिया जाता है, लेकिन केंद्र में बैठे नेता जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गाँधी की तरह गरीबों या सामान्य लोगों से मिलने के लिए साल में एक घंटा भी नहीं निकाल पाते। वे तो कांग्रेस संगठन से जुड़े जिलों या प्रादेशिक नेताओं को मिलने का वक्त तक नहीं दे सकते।

वे सिर्फ बहुराष्ट्रीय अथवा बड़ी देसी कॉर्पोरेट कंपनियों के प्रबंधकों से मिलते हैं। गरीबों के लिए योजनाएँ बनती हैं, लेकिन क्रियान्वयन भ्रष्ट अफसरों की कृपा पर छोड़ दिया जाता है। बड़े सौदों पर विचार होता है। सुदूर गाँव में पापड़-बड़ी और खादी बनाने वालों की कोई चिंता नहीं होती। असल में मूर्तियाँ लगाने, हटवाने या तुड़वाने के बजाय मुखौटे हटवाने-तुड़वाने के अभियान की जरूरत है। (नईदुनिया)