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Written By WD

विदेश नीति के मोर्चे पर नरेन्द्र मोदी...

विदेश नीति के मोर्चे पर नरेन्द्र मोदी... -
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नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ समारोह में सार्क नेताओं को न्योता देकर संकेत दे दिए थे कि उनकी विदेश नीति कैसी हो सकती है। मोदी सार्क देशों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहते हैं। भूटान और नेपाल की यात्रा भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है। नवाज शरीफ को बुलाकर उन्होंने पाक की ओर दोस्ती का हाथ तो बढ़ाया, लेकिन पाक के साथ विदेश सचिव स्तरीय वार्ता रद्द कर जानकारों को चौंका भी दिया। उन्होंने इससे जाहिर कर दिया कि वे कड़े फैसले भी ले सकते हैं। इसके साथ ही चीन, अमेरिका के साथ संबंधों में समन्वय कायम करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती होगी। हालांकि यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि एनडीए सरकार की विदेश नीति का ऊंट किस करवट बैठेगा।

जब हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति के निर्धारण की बात करते हैं तो हमें पंडित जवाहर लाल नेहरू की संसद में कही इस बात पर गौर कर लेना चाहिए। उनका कहना था- 'अंतत: विदेश नीति आर्थिक नीति का परिणाम होती है। हमने अब तक कोई रचनात्मक आर्थिक योजना अथवा आर्थिक नीति नहीं बनाई है....जब हम ऐसा कर लेंगे....तब ही हम इस सदन में होने वाले सभी भाषणों से ज्यादा अपनी विदेश नीति को निर्धारित कर पाएंगे।' इससे एक महत्वपूर्ण बिंदु का संकेत मिलता है कि भारत की विदेश नीति, हमारे देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। इसकी विशेषता एक निरंतरता है और इसमें किसी भी समय पर आमूलचूल परिवर्तन (रैडिकल चेंजेस) देखने को नहीं मिलते हैं।

आमूलचूल परिवर्तन नहीं : अगर हम आधुनिक भारत के ‍इतिहास पर सरसरी निगाह डालें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मात्र सरकारें बदलने से भारत की विदेश नीति की व्यापक रूपरेखा या ढांचे में कभी भी बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है। इसलिए हम एक प्रश्न पर विचार कर सकते हैं कि भारत की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य परंपरागत रूप से क्या रहा है? इसका सीधा सा अर्थ है कि भारत एक सुरक्षित और स्थिर क्षेत्रीय पर्यावरण चाहता है क्योंकि इसके बिना भारतीय जनता की निरंतर आर्थिक वृद्धि को ऊपर ले जाना संभव नहीं होगा। इसलिए स्वतंत्रता के बाद से ही भारत सरकार का यह प्रथम उद्देश्य रहा है और तब से ही यह भारत की विदेश नीति का मूलाधार रहा है।

लेकिन, पिछले दो दशक के दौरान भारत की बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत के चलते देश की सरकारों ने विदेश नीति को नया आकार देने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। पर इसके साथ यह भी देखा गया है कि पूर्ववर्ती यूपीए शासन के दौरान विदेश नीति को अप्रभावी रूप में भी पाया गया है और बाहरी सुरक्षा चुनौतियों का माकूल जवाब नहीं दिया गया है। वर्ष 2014 के आम चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और इसके नेता नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता संभाली। भारत की समूची विदेश नीति में जहां कुछ बदलावों की उम्मीद की जा सकती है तो भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा था कि देश की सरकार सदियों पुरानी अपनी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की परम्परा के जरिए कुछ बदलावों को लाने की कोशिश करेगी।

भाजपा के घोषणा प‍त्र में कहा गया था कि भारत को अपने सहयोगियों का एक संजाल (नेटवर्क) विकसित करना चाहिए। आतंकवाद को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति होगी और क्षेत्र में नए भू-सामरिक खतरों का सामना करने के लिए 'नो फर्स्ट यूज' (पहले हमला न करने की) परमाणु नीति की समीक्षा होगी। मोदी को जितना बहुमत मिला है, लोगों की उनसे उतनी ही ज्यादा उम्मीदें हैं। भाजपा का पिछला रिकॉर्ड और मोदी के आर्थिक मोर्चे पर काम करने वाले नेता और एक कट्‍टरपंथी राष्ट्रवादी छवि के चलते देश के लोग अधिक सक्रिय विदेश नीति की लोग उम्मीद करते हैं।

पर मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। इस अर्थ यह भी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था से भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और घटिया बुनियादी सुविधाओं को समाप्त करना ही होगा। इस बात की संभावना है कि भारत, रूस के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना चाहेगा। नई दिल्ली और मॉस्को के बीच सहयोग का एक लम्बा ‍इतिहास रहा है, जो कि शीत युद्ध के शुरूआती वर्षों से शुरू हुआ था।

रूस और चीन के समीकरण बदले : हालांकि कारोबार और निवेश के लिहाज से रूस बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गया है, लेकिन वह आज भी भारत का प्रमुख शस्त्र आपूर्तिकर्ता देश है और मोदी इस रिश्ते में बदलाव नहीं करना चाहेंगे। जबकि चीन को आमतौर पर भारत का प्रमुख भू-सामरिक विरोधी माना जाता है। इस दृष्टिकोण में भी कोई बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन फिर भी पिछले दो दशकों के बीच चीजों में बहुत बदलाव हुआ है। आज चीन, भारत का मुख्य कारोबारी सहयोगी भी है इसलिए सभी कुछ सुरक्षा और युद्ध के लिहाज से ही नहीं सोचा जा सकता है।

अब रूस भी चीन का प्रमुख शस्त्र आपूर्तिकर्ता देश है और रूस की ऊर्जा से चीन के कल कारखाने चल रहे हैं। दोनों ही देशों के बीच तीस वर्षीय गैस आपूर्ति समझौता हुआ है जो कि अरबों डॉलर का है। इसलिए समझा जा सकता है कि रूस, चीन के लिए कितना महत्वपूर्ण सहयोगी बन गया है।

चीन से मुकाबला लेकिन... : जब चीन की बात आती है तो हमें सोचना होगा कि आर्थिक और सैन्य दृष्टि से भारत कमजोर है और मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों ना हों और उन्होंने दूसरे दलों के नेताओं की इस बात को लेकर कितनी ही आलोचना की हो कि वे चीन के दुस्साहस को अनदेखा कर रहे हैं, लेकिन खुद मोदी भी पेइचिंग से लड़ाई मोल लेना नहीं चाहेंगे। चीन को एक वैश्विक शक्ति उसकी आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है और इस कारण से मोदी चाहेंगे कि भारतीय अर्थव्यवस्‍था मजबूत हो। अर्थव्यवस्था उनका टॉप एजेंडा इसलिए भी रहेगी क्योंकि ज्यादातर भारतीयों ने उन्हें इसलिए चुना है कि वे गरीबों की हालत में सकारात्मक परिवर्तन लाएंगे। इसलिए वे चाहेंगे कि देश के गरीब वर्ग की माली हालत में सुधार हो।

पाकिस्तान को लेकर असमंजस बरकरार... पढ़ें अगले पेज पर....


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टकराव का नाम पाकिस्तान : मोदी की विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण ‍चिंता पाकिस्तान होगा लेकिन वह भी इस्लामाबाद के साथ नाटकीय रूप से सख्त रुख अपनाने के पक्ष में नहीं होंगे। वे पहले ही लोगों को अपने शपथग्रहण में पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित कर चौंका चुके हैं, लेकिन वे यह बात भलीभांति समझते हैं कि पाकिस्तान के साथ लगातार होने वाले टकरावों के कारण वे देश की अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान नहीं दे सकेंगे। अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई होती है तो यह परमाणु युद्ध में भी बदल सकती है, लेकिन आतंकवादी हमले ऐसा विषय हैं जिनके कारण उन पर बहु्त ज्यादा दबाव होगा। उन्हें निर्णयात्मक होना होगा क्योंकि उन्हें आतंकवादियों को संदेश भी देना होगा कि वे भारत में गड़बड़ी फैलाने से बाज आएं। यह बात उनकी अपील का प्रमुख हिस्सा होगी।

हालांकि शपथ समारोह में शरीफ को ‍बुलाने वाले मोदी ने पाकिस्तान के मामले में यूटर्न भी लिया है। उन्होंने पाक उच्चायुक्त के अलगाववादियों से मिलने के बाद सचिव स्तरीय वार्ता रद्द कर कड़ा और बड़ा फैसला भी लिया है।

इसराइल से सीख : मोदी के नेतृत्व में इसराइल के साथ संबंध मजबूत होंगे। आमतौर पर भाजपा और विशेष रूप से मोदी इसराइल के बड़े प्रशंसक हैं और वे मानते हैं कि भारत की परम्परागत रूप से फिलीस्तीन समर्थक नीति से भी भारत को अरब जगत में बहुत कम सद्‍भावना मिली है। इसी तरह अरब देश महत्वपूर्ण अवसरों पर भारत के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन करते रहे हैं।

मोदी दो बार इसराइल की यात्रा कर चुके हैं और वे इसकी आर्थिक और तकनीकी प्रगति के बड़े प्रशंसक हैं। वे इसराइल के साथ अधिक आर्थिक सहयोग और आतंकवाद पर खुफिया जानकारी साझा करने की नीति को तरजीह देंगे। एक शस्त्र आपूर्तिकर्ता देश के रूप में इसराइल, रूस का स्थान नहीं ले सकता है, लेकिन भारत पहले से ही इसराइली हथियारों का एक बड़ा ग्राहक है। भारत, इसराइल से और अधिक हथियार और विशेष रूप से ड्रोन विमान खरीदना चाहेगा।

भारत और अमेरिका : चीन के खतरे से बचने के लिए भारत और अमेरिका के बीच किसी संधि की बात करना एक अतिशयोक्ति ही होगी। वर्षों से नई दिल्ली और वॉशिंगटन निरंतर रूप से प्रतिरक्षा सहयोग को बढ़ाते रहे हैं और यह स्थिति चलती रहेगी, लेकिन अब कोई भी देश नहीं चाहता है कि दोनों के बीच कोई लम्बी स्थायी संधि हो। पर जिस देश के साथ मोदी सुरक्षा संबंधों को बढ़ाना चाहते हैं, वह है जापान। कांग्रेस ने दोनों देशों के बीच संबंधों की बुनियाद रखी और भाजपा इसे बढ़ाएगी। जनवरी में भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे को मु्ख्य अतिथि बनाया गया था। मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में भी उन्हें बुलाया था। भारत एक ऐसी एशियाई ताकत है, जो कि जापान की न्यूनतम रक्षा नीति में बदलाव से भी हतो‍त्साहित नहीं है।

जापान एक नया करीबी साथी : नई दिल्ली चाहता है कि चीन के पूर्वी हिस्से में उसका एक मजबूत साथी हो और वह इस भूमिका के लिए जापान को सभी तरह से उचित पाता है। अपनी आर्थिक और तकनीकी ताकत के चलते जापान समुचित भी है क्योंकि टोक्यो और नई दिल्ली चीन को एक बड़ी सुरक्षा समस्या समझते हैं। भारत एक और एशियाई देश, ताइवान, के साथ अपने संबंध मजबूत रखना चाहेगा क्योंकि यह चीन के क्षेत्रीय दावों और मंशा को लेकर सशंकित रहता है। विदित हो कि कुछ समय पहले ही दक्षिण चीन महासागर में दोनों देशों के बीच झड़पें हुई हैं।

लेकिन, विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी से और भी बड़े परिवर्तनों की इच्छा रखने वालों को निराशा हाथ लगेगी। हालांकि मोदी मानते हैं कि भारत एक वैश्विक ताकत है लेकिन देश यह दर्जा तब तक हासिल नहीं कर सकेगा जबत‍क कि वह आर्थिक मोर्चे पर अपनी मजबूती नहीं दर्शाता है। इसलिए अगर मोदी कोई बड़े परिवर्तन करते हैं तो वे देश के घरेलू मोर्चे पर करने होंगे, विदेशी मोर्चे पर नहीं।

लुक ईस्ट पर ध्यान : संभवत: इसी कारण से गुट निरपेक्षता और सामरिक स्वायत्तता की नीति को छोड़कर भारत ने तय किया है कि वह विदेश नीति संबंधी कोई वादे नहीं करेगा। भारत चाहता है कि उसकी विदेश नीति प्रमुख रूप से आर्थिक हितों पर आधारित हो और यह आर्थिक हित उसे पश्चिमी देशों के साथ जाने की बजाय पूर्व की ओर देखने की नी‍ति (लुक ईस्ट पॉलिसी) का समर्थन करते हैं। इस बात को अमेरिकी और यूरोपीय लोग भी मानते हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था का भावी इंजन एशिया और प्रशांत महासागर के देश होंगे। अमेरिका भी एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपनी मौजूदगी को मजबूत बनाने के लिए बेचैन है क्योंकि वह हाल में यूक्रेन में रूसी दखलंदाजी को रोकने में सफल नहीं हुआ है।

इसी तरह मध्यपूर्व में अशांति बनी हुई और इस इलाके में अमेरिका एक सीमि‍त हस्तक्षेप ही करना चाहता है क्योंकि इराक, लीबिया, सीरिया और पहले भी अन्य देशों में होम करते यह अपने हाथ जला बैठा है। एशिया में वह भारत को एक क्षेत्रीय ताकत के तौर पर स्थापित करना चाहता है, लेकिन इस क्षेत्र में भारत अपने को कहां तक फंसाए, यह उसकी विदेश नीति से अलग भी हो सकता है।

यह कहना गलत ना होगा कि बिल क्लिंटन और जॉर्ज डबल्यू बुश के कार्यकाल में भारत और अमेरिका के बीच बिभिन्न परमाणु समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए, लेकिन राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल में भारत-अमेरिकी संबंधों पर पाला पड़ गया। भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े के साथ अमेरिकी व्यवहार और अमेरिका द्वारा मोदी को बार-बार वीजा देने से इनकार करना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि भारत-अमेरिकी संबंधों में रुग्णता कितनी गहरे तक समाई हुई है। लेकिन मोदी के अमेरिकी दौरे पर इस तरह की बातें उनके आचरण को प्रभावित नहीं करेंगी।

कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत, विश्व में चीन के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) की बजाय अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था को पसंद करेगा, लेकिन इसके बावजूद अफगानिस्तान को स्थिर देखने की चाहत में अमेरिका वहां भारतीय हितों को पाकिस्तान की तुलना में नजरअंदाज करता रहा है। इसलिए भारत 1990 के दशक के शुरुआत में बनाई गई लुक ईस्ट नीति को बढ़ाने को अधिक महत्वपूर्ण समझता है।

चीन को मोदी से किस तरह की उम्मीद हैं... पढ़ें अगले पेज पर....


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चीन को मोदी से उम्मीदें, लेकिन... : हालांकि चीन को आमतौर पर भारत का प्रमुख सामरिक प्रतियोगी माना जाता है, लेकिन चीन को मोदी से उम्मीदें हैं कि वे दोनों देशों के आर्थिक हितों को बढ़ाने का काम करेंगे। मोदी जहां देश की अर्थव्यवस्था और बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन चाहते हैं वहीं चीन अपने निवेश को भारत में बढ़ाने के मौके का इंतजार कर रहा है। चीन अभी भी भारत का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है और इस कारण से भारत-चीन सहयोग की वकालत की जा रही है। हालांकि मोदी चीन के साथ पारस्परिक तौर पर लाभदायक और स्थिर स्थिति को बनाना चाहेंगे ताकि चीन का पाकिस्तान के साथ सहयोग सीमित किया जा सके।

उल्लेखनीय है कि चीन में भी भारत की कई कंपनियां निवेश कर रही है। नरेंद्र मोदी के सामने भारत और चीन के संबंधों को लेकर जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है दोनों देशों का सीमा विवाद। चीन, अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताता रहा है और इसके अलावा भारत के सीमा क्षेत्र में चीनी सैनिक कई बार कैंप लगा चुके है। ब्राजील में दोनों के बीच कई मुद्दों पर बातचीत भी हुई थी और शी चिनपिंग के साथ अपनी द्विपक्षीय वार्ता को मोदी ने बेहद सफल करार दिया था।

दोनों नेताओं के बीच जहां मुलाकात के लिए जहां 40 मिनट की समय सीमा तय थी, लेकिन यह मुलाकात करीब 80 मिनट तक चली थी। इस दौरान सीमा विवाद से लेकर द्विपक्षीय व्यापार और ब्रिक्स बैंक जैसे तमाम मुद्दों पर बात हुई। दोनों पक्ष सीमा संबंधी विवाद को सुलझाने के लिए 17 दौर की विशेष प्रतिनिधि स्तर की वार्ता कर चुके हैं, लेकिन बातचीत आगे ही बढ़ती जाती है और इसका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आता है। क्योंकि जहां भारत का कहना है कि यह विवाद 4057 किलोमीटर की वास्तविक नियंत्रण रेखा से जुड़ा हुआ है वहीं चीन का दावा है कि यह केवल अरुणाचल प्रदेश के 2000 किलोमीटर क्षेत्र तक सीमित है, जिसे वह दक्षिणी तिब्बत बताता है। इसका अर्थ यह है कि चीन की निगाह अरुणाचल प्रदेश पर है, जिसे वह येन केन प्रकारेण हथियाने की कोशिशें करता रहेगा।

प्रधानमंत्री मोदी जापान से नजदीकी बढ़ाने की कोशिश में है। जापान भी भारत से व्यापारिक रिश्तों को मजबूत करना चाहता है। विदित हो कि जापान भारत में उसी पैमाने पर निवेश करना चाहता है जैसा कि 80-90 के दशक में उसने चीन में किया था। अब चीन के साथ तनातनी के माहौल में जापान भारत में एक कारगर विकल्प देख रहा है। जापान अच्छी तरह जानता है कि भारत में उसके निवेश से जापान की आर्थिक व्यवस्था में सुधार संभव है।

मोदी को जुलाई के पहले हफ्ते में जापान टूर पर जाना था लेकिन उससे पहले जापानी उद्योग जगत ने भारत के सामने कुछ मांगें रख दीं। जापानी अपने उद्योग प्रतिनिधियों, स्टाफ के लिए वीजा पॉलिसी को उदार बनाने और वहां के वकीलों को भारत में काम करने की इजाजत देने की मांग कर रहे हैं ताकि जापानी निवेशकों और पेशेवर लोगों का भारत पर भरोसा गहरा हो सके। संभावना है कि इस मामले में दोनों देश मिलकर कोई रास्ता निकालेंगे।

मोदी को दोनों ही, अमेरिका और रूस के साथ रिश्तों को मजबूत बनाने और दोनों को एक साथ साधने की चुनौती है। अमेरिका मोदी से मिलने के लिए उतावला है और इसी के परिणामस्वरूप जो देश उन्हें वीजा नहीं दे रहा था, उसके राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें अमेरिका आने का न्योता दिया। दोनों देशों के बीच कारोबारी साझेदारी बढ़ाने के संकेत देने के लिए ओबामा ने 26 मई, 2014 के बाद से अब तक अपने दो उच्चस्तरीय मंत्रियों को भारत भेजा है, जबकि स्वयं मोदी की अमेरिका यात्रा 30 सितंबर से होगी।

दोनों देशों के बीच रणनीतिक वार्ता की जमीन तैयार करने के लिए अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने भी मोदी को अमेरिका आने का न्योता दिया। दूसरी तरफ रूस भी भारत के साथ होते प्रगाढ़ संबधों को लेकर खुशी जता चुका है। प्रधानमंत्री ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ मुलाकात के दौरान उन्होंने रूस के साथ रक्षा, ऊर्जा क्षेत्रों में विशेष रणनीतिक साझेदारी को व्यापक बनाने की बात कही है। उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन की आगामी दिसंबर में होने वाली उनकी भारत यात्रा के दौरान कुडनकुलम परमाणु बिजली संयंत्र का दौरा करने के लिए आमंत्रित किया। विदित हो कि तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु बिजली संयंत्र रूस के सहयोग से स्थापित किया गया है।

बांग्लादेश, श्रीलंका को कैसे लाएंगे मोदी करीब... पढ़ें अगले पेज पर....


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बांग्लादेश, श्रीलंका से संबंध : मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों को भारत के करीब लाने की भी है। भारत और बांग्लादेश के बीच चला आ रहा समुद्री सीमा विवाद भी खत्म हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के एक न्यायाधिकरण ने विवादित क्षेत्र का लगभग 80 फीसदी हिस्सा बांग्लादेश को देने का फैसला किय है। फैसले के तहत दोनों देशों के बीच विवाद में फंसे बंगाल की खाड़ी के 25000 वर्ग किलोमीटर के इलाके का 19500 किमी का क्षेत्र बांग्लादेश को दिया गया और करीब छह हजार किमी का क्षेत्र भारत के हिस्से में आया है। दूसरी तरफ भारत ने श्रीलंका से रिश्ते सुधारने के लिए नाराज तमिल लोगों को मनाने की कोशिश करने का आग्रह किया है। विदित हो कि मोदी के शपथग्रहण समारोह में तमिल श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की उपस्थिति दोनों देशों के रिश्ते को बेहतर होते रिश्ते का सबूत है और उम्मीद की जाती है कि राजपक्षे तमिलों के घावों पर मरहम लगाने की जरूरत को समझेंगे और इस दिशा में वांछित कदम उठाएंगे।

अपनी छाप छोड़ने की कोशिश : प्रधानमंत्री मोदी अपनी कथनी के साथ-साथ अपनी करनी से देश के लोगों पर अपनी छाप छोड़ने की कोशिश करते हैं। पिछले माह जब वे ब्राजील में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से वापस लौट रहे थे और उनके विमान में ईंधन भरने के लिए फ्रेंकफर्ट में तीन घंटों के लिए रुके। तब उन्होंने अपने अधिकारियों से कहा कि रात में कोई फाइव स्टार स्टे नहीं होगा। मोदी के साथ होटल तक केवल दो अधिकारी गए और मोदी ने होटल में स्नान किया। डेलीगेशन के बाकी अधिकारी लाउंज में बैठकर अपने लैपटॉप पर मीटिंग के ब्रीफ बनाते रहे।

उनके साथ नेपाल जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में केवल पचास लोग ही थे। उल्लेखनीय है कि जब मार्च में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने म्यांमार की राजधानी नेपीदा की यात्रा की थी तब उनके साथ 90 लोग शामिल थे। मनमोहन की यात्रा पर विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद साथ होते थे, लेकिन मोदी के बोइंग बिजनेस जेट में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज साथ नहीं होती हैं। मनमोहन के सुरक्षा अधिकारियों की संख्या भी 21 तक रही है। जब उनकी विदेश यात्रा होती तो पीएमओ में आईएएस भी प्रधानमंत्री के दल में शामिल होते, लेकिन मोदी के साथ ऐसा नहीं होता है। जिस आदमी की जरूरत होती है, केवल वही उनके डेलीगेशन का हिस्सा होता है।

पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के समय में भी यही हाल था, लेकिन मोदी 'नो ननसेंस बिजनेस' पसंद करते हैं। मोदी ने एक और परम्परा डाली है कि वे अपने प्रत्येक विदेशी दौरे की जानकारी सरकार के सभी हिस्सों को उपलब्ध कराते हैं ताकि सभी को जानकारी हो कि यात्रा से क्या हासिल हुआ और क्या नहीं। मोदी को नेपाल में एक अरब डॉलर की मदद की घोषणा करनी थी। पिछले पांच वर्षों में यह दूसरा मौका है जब भारत ने किसी देश को इतनी बड़ी धनराशि दी।

यूपीए सरकार ने 2010 में शेख हसीना सरकार को एक अरब डॉलर की मदद दी थी, लेकिन बांग्लादेश और नेपाल को दी गई मदद में अंतर था। ढाका को जो मदद दी गई थी वह सशर्त क्रेडिट थी और इससे तहत बांग्लादेश की सरकार को भारतीय कंपनियों को एक अरब डॉलर के आदेश देने थे। लेकिन मोदी ने नेपाल को जो मदद दी थी, उससे नेपाल सरकार जो चाहे कर सकती थी। लेकिन इसका हिसाब-किताब भारतीय अधिकारी भी रखेंगे और इस राशि से संबंधित परियोजनाओं के चरणों के पूरा हो जाने के बाद उन्हें आगे की किश्त की राशि मिलेगी।

मोदी किस तरह विदेश में अपनी बात कहते हैं, इसके एक उदाहरण पर गौर करें। जब बात आई कि मोदी अपने नेपाली समकक्ष को क्या भेंट करेंगे तो कहा जाता है कि मोदी ने 'संविधान' की एक प्रति की मांग की। उल्लेखनीय है कि 'संविधान' एक डॉक्यूमेंट्री ड्रामा है जो कि 11 घंटा लम्बा है और इसे श्याम बेनेगल ने बनाया है। उन्होंने इसे विशेष तौर पर राज्यसभा टीवी के लिए बनाया था। यह भारत के संविधान के निर्माण पर आधारित है। जब मोदी, सुशील कोइराला से मिले तो उन्होंने 'संविधान' की एक प्रति प्रधानमंत्री को और दूसरी प्रति संविधान सभा को भेंट की। यह मोदी का नेपाल की सरकार को बताने का तरीका था कि वे जल्द से जल्द देश का एक संविधान बना लें।