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Last Modified: रविवार, 12 अक्टूबर 2014 (14:17 IST)

स्वस्तिक : क्या छुपा है इस मंगल प्रतीक में

स्वस्तिक : क्या छुपा है इस मंगल प्रतीक में - स्वस्तिक : क्या छुपा है इस मंगल प्रतीक में
स्वस्तिक : एक शोधपरक धार्मिक आलेख 
 
सद्ज्ञान-सद्भाव का प्रतीक : स्वस्तिक
 
स्वस्तिक सिर्फ प्रतीक नहीं है, इसमें दिव्य शुभ संदेश छुपा है 
 
-  सोहिल जोशी
 
ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेद्राः।
स्वस्ति नस्ताक्षर्योऽअरिष्टनेमिः
स्वस्ति तो बृहस्पतिर्दधातु॥
 
यजुर्वेद की इस कल्याणकारी एवं मंगलकारी शुभकामना, स्वस्तिवाचन में स्वस्तिक का निहितार्थ छिपा है। हर मंगल एवं शुभ कार्य में इसका भाव भरा वाचन किया जाता है, जिसे स्वस्तिवाचन कहा जाता है। स्वस्तिक संस्कृत के स्वस्ति शब्द से निर्मित है। स्व और अस्ति से बने स्वस्ति का अर्थ है कल्याण। यह मानव समाज एवं विश्व के कल्याण की भावना का प्रतीक है। 'वसोमम'- मेरा कल्याण करो का भी यह पावन प्रतीक है। इसे शुभकामना, शुभभावना, कुशलक्षेम, आशीर्वाद, पुण्य, पाप-प्रक्षालन तथा दान स्वीकार करने के रूप में भी प्रयोग, उपयोग किया जाता है।


 

 
यह शुभ प्रतीक अनादि काल से विद्यमान होकर संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। सभ्यता और संस्कृति के पुरातन लेख केवल हमारे वेद और पुराण ही हैं और हमारे ऋषियों ने उनमें स्वस्तिक का मान प्रस्तुत किया है। स्वस्तिक में अतिगूढ़ अर्थ एवं निगूढ़ रहस्य छिपा है। गणपति के गं बीजाक्षर का चिन्ह भी स्वस्ति जैसा प्रतीत होता है। इसके रूप एवं समूचे मंत्र का स्वरूप स्वस्तिक का आकार ग्रहण करता है। प्राचीन तथा अर्वाचीन मान्यता के अनुसार यह सूर्य मंडल के चारों ओर चार विद्युत केंद्र के समान लगता है। इसकी पूरब दिशा में वृद्धश्रवा इंद्र, दक्षिण में वृहस्पति इंद्र, पश्चिम में पूषा-विश्ववेदा इंद्र तथा उत्तर दिशा में अरिष्टनेमि इंद्र अवस्थित हैं।
 
वाल्मिकी रामायण में भी स्वस्तिक का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार साँप के फन के ऊपर स्थित नीली रेखा भी स्वस्तिक का पर्याय है। नादब्रह्म से अक्षर तथा वर्णमाला बनी, मातृका की उत्पत्ति हुई नाद से ही पश्यंती, मध्यमा तथा वैखरी वाणियाँ उत्पन्ना हुईर्ं। तदुपरांत उनके भी स्थूल तथा सूक्ष्म, दो भाग बने। इस प्रकार नाद सृष्टि के छः रूप हो गए। इन्हीं छः रूपों में पंक्तियों में स्वस्तिक का रहस्य छिपा है। अतः स्वस्तिक को समूचे नादब्रह्म तथा सृष्टि का प्रतीक एवं पर्याय माना जा सकता है।
 
वैखरी वाणी का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह स्वर तथा व्यंजन दोनों में विभक्त है। स्वर छः होते हैं। इन्हीं को सूर्य की छः रश्मियों के रूप में देखा जाता है और इन्हीं रश्मियों को स्वस्तिक कहा जाता है। स्वस्तिक को रचना के आधार पर देखा जाए तो यह अबाहु तथा सुबाहु नामक दो स्वस्तिक के रूप में परिलक्षित होता है। अबाहु स्वस्तिक वामावर्त तथा सुबाहु स्वस्तिक दक्षिणावर्त होता है। इसलिए सुबाहु स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना जाता है। क्योंकि सूर्य सदैव उत्तरी गोलार्द्ध में पूरब से निकलकर दक्षिण-पश्चिम होता हुआ उत्तर में पहुँचता है और प्रत्येक सुबह फिर पूर्व से उदय होता है, अतः सूर्य की चार दिशाओं में स्वस्तिक की चार भुजाओं का बोध होता है।


 
प्राचीन भारत में स्वस्तिक के चित्रण-अंकन का दर्शन शैलचित्रों में होता है। इससे स्पष्ट होता है कि पूर्ण या सुबाहु स्वस्तिक का विकास-विस्तार मूलतः अबाहु से हुआ है। शैलचित्रों में स्वस्तिक का प्रमाण पूजा-प्रसंगों के साथ-साथ स्वतंत्र रूप से भी किया गया है। इसके पुरातात्विक प्रमाण बनिया बेरी पचमढ़ी क्षेत्र, चंबल क्षेत्र तथा सागर-भोपाल क्षेत्र में स्थित गुफाओं से मिलते हैं, जिनमें सुबाहु और अबाहु स्वस्तिक का अंकन हुआ है। सिंधु-सभ्यता की मुहरों, सिक्कों में स्वस्तिक के दक्षिणावर्त रूप के साथ ही वामावर्त रूप भी मिलता है। उन दिनों दोनों ही प्रकार के स्वस्तिकों को शुभ एवं मंगलमय माना जाता था, परंतु आज दक्षिणावर्त स्वस्तिक ही पुण्य कार्यों में प्रयुक्त होता है तथा तंत्र व यंत्र आदि में वामावर्त स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता है।
 
भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं की चार वेद, चार पुरुषार्थ, चार वर्ण, चार आश्रम, चार लोक तथा चार देवों अर्थात्‌ ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा गणेश से तुलना की गई है। प्रतीकात्मक विचार के इन सूत्रों में स्वस्तिक चतुर्दल कमल का सूचक भी माना गया है। अतः यह गणपति देव का निवास स्थान भी है। इसी तथ्य को मूर्धन्य मनीषियों ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने भी कमल को स्वस्तिक का ही पर्याय माना है। इसलिए कमल का प्रतीक भी स्वस्तिक हो गया और इसे भी मंगल व पुण्यकर्म में प्रयुक्त किया जाने लगा। कुछ विद्वान कमलापति भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर विद्यमान कौस्तुभ मणि को स्वस्तिक के आकार रूप में मानते हैं।
 
'सिंबोलिज्म ऑफ दि ईस्ट एंड वेस्ट' नामक ग्रंथ में प्रतिपादित किया गया है कि वैदिक प्रतीकों में गहन-गंभीर एवं गूढ़ अर्थ निहित है। यही प्रतीक संसार के विभिन्ना धर्मों में भिन्न-भिन्न ढंग से परिलक्षित प्रकट होते हैं तथा देश-काल, परिस्थिति के अनुरूप इनके स्वरूपों में रूपांतर एवं परिवर्तन होता रहता है। अतः स्वस्तिक प्रतीक की गति-प्रगति की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा है।
 
जैन धर्म में स्वस्तिक उनके सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के प्रतीक चिन्ह के रूप में लोकप्रिय हैं। जैन अनुयायी स्वस्तिक की चार भुजाओं को संभावित पुनर्जन्मों के स्थल-स्थानों के रूप में मानते हैं। ये स्थल हैं- वनस्पति या प्राणिजगत, पृथ्वी, जीवात्मा एवं नरक। बौद्ध मठों में भी स्वस्तिक का अंकन मिलता है। जॉर्ज वडंउड ने बौद्धों के धर्मचक्र को यूनानी क्रॉस को तथा स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना है। उनके अनुसार यह अत्यंत प्राचीनतम प्रतीक है, जिसमें गहन अर्थ  निहित है। तिब्बत के लामाओं के निवास स्थान तथा मंदिरों में स्वस्तिक की आकृति बनी हुई मिलती है। क्रॉस की उत्पत्ति का आधार ही स्वस्तिक है। 
 
बेल्जियम के एक लेखक श्री कॉनराड एल्स्टने 'दी सेफरान स्वस्तिक' नामक पुस्तक में स्वस्तिक का विस्तृत वर्णन किया है। जर्मनी और जापान में स्वस्तिक का प्रचलन है। आर्थोडाक्स ईसाई चर्चो में स्वस्तिक का प्रचलन था। वहाँ पर स्वस्तिक का उलटा रूप मिलता है, जो भारतीय स्वस्तिक दाएँ से बाएँ के ठीक विपरीत बाएँ से दाएँ चलता है। हिटलर ने इसी उलटे प्रतीक को मान्यता दे रखी थी। स्वीडन में स्वस्तिक क्रॉस के रूप में मिलता है, जिसके चारों ओर गोलाई बनी हुई है। ऑस्ट्रिया के अजायबघर में प्रदर्शित 'अपोलो देवता' की मूर्ति पर स्वस्तिक अंकित है। टर्की, बेल्जियम, आयरलैंड, स्काटलैंड, इटली, कोरिया, चीन, नेपाल आदि देशों के संग्रहालयों में संग्रहीत अनेक मूर्तियों, वस्तुओं, शिला-स्तंभों, औजारों, ध्वज-दण्डों आदि में यह प्रतीक सुशोभित हो रहा है।
 
यह प्रतीक चिन्ह विभिन्न रूपों में विभिन्न अर्थों में प्रयोग होता है। इसे प्रजनन प्रतीक, उर्वरता प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न, अलंकरण-अभिप्राय, अग्नि, विद्युत, वज्र, जल आदि का सांकेतिक स्वरूप, ज्योतिष प्रतीक, उड़ते हुए पक्षी आदि अन्यान्य रूपों में माना गया है। एक अन्य प्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी ने बड़ी ही उदारतापूर्वक स्वीकार किया है कि ऋषियों एवं विद्वानों के आर्यस्थल वैदिक भारत में जिस मंगलदायक एवं शुभसूचक स्वस्तिक की कल्पना की गई थी, वही अन्यान्य रूपों में विश्व की अन्य सभ्यताओं द्वारा अपना ली गई हैं, उसे मान्यता प्रदान कर दी गई है। स्वस्तिक में सद्भावना  ही नहीं है, वरन्‌ सद्ज्ञान व सद्विचार का संपुट भी लगा हुआ है। इसमें वैयक्तिक विकास व विस्तार के साथ ही समाज की प्रगति एवं विश्वकल्याण की अनंत संभावनाएँ सन्निाहित है। आवश्यकता है एक ऐसी दृष्टि की, जो इसे साक्षात्कार कर सके और इस प्रतीक की शुभकामना को अभिव्यक्त कर सके। जिससे हमारे विचार व मंगलमय एवं कल्याणकारी बन सके।