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Written By WD

गोपाचल दुर्ग

गोपाचल दुर्ग -
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ग्वालियर में एक किला है, जो विंध्याचल पर्वत श्रेणी की एक पर्वतीय पहाड़ी पर स्थित है। डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम के मतानुसार विंध्याचल का पौराणिक एवं पुरातात्विक विवरणों के आधार पर जैन ग्रंथों में उल्लिखित विजयार्ध पर्वत से किया जा सकता है। इसी में आगे लिखा है- ऐसा प्रतीत होता है कि जैन साहित्य में इसी (विंध्याचल) पर्वत को विजयार्ध के नाम से संबोधित किया गया है।

जिस पहाड़ी पर ग्वालियर दुर्ग खड़ा है, भू-गर्भ शास्त्रियों के अनुसार वह पहाड़ी हिमालय से भी प्राचीन है। यह किला 300 फुट ऊँची पहाड़ी पर बना है। उत्तर से दक्षिण की ओर इसकी लंबाई पौने दो मील है तथा पूर्व से पश्चिम तक इसकी चौड़ाई 600 से 2800 फुट तक है। इस दुर्ग की गणना भारत के प्राचीन दुर्गों में की जाती है। कुछ पुरातत्वज्ञ इसे ईसा की तीसरी शताब्दी में निर्मित मानते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि यह दुर्ग ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का है।

कोई नहीं जानता कि ग्वालियर का गोपाचल दुर्ग कब बना। इसके निर्माण काल का कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है। कामताप्रसाद जैन के शब्दों में ग्वालियर का दुर्ग आज का नहीं, कल का नहीं, यह तो मानव की अतीत कृति का क्षेत्र होने के नाते उतना ही पुराना है, जितना की आकाश और काल। हाँ, कालचक्र की फिरन से, इतिहास ने इसके नाना रूप देखे हैं।

इतिहास जैनागम विषै, इस दुर्ग को सम्मान से ।
देखा गया अति प्रेम से, प्राचीनतम युगकाल से

(ग्वालियर का अतीत)
गोपाचल दुर्ग की प्राचीनता के संबंध में आख्यान मिलते हैं-

'पुण्य नक्षत्र जोगशुभ लियो । तेरस सकल ठाठ विधि कियो ॥
तिहि विधि सकल वेद विधि ठई । तवै नींव गोपाचल दई ॥
द्वापर अंत जु कलियुग आदि । संवत्‌ धर्‌यो महूरत साधि ॥
धर्म जुधिष्ठिर संवत्‌ लह्यो । आदि ग्रंथ में ते मैं कहयौ ॥'

(गोपाचल आख्यान- खड़्‌गराय)
द्वापर के द्वय मास रहे, सुनि प्रवेश कलिकाल ।
सो संवत्‌ मिति जानियो, गढ़ की नींव भुवाल ॥

(गोपाचल आख्यान- नानाकवि)
इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि गोपाचल दुर्ग की प्राचीनता के बारे में इतिहास मौन है। प्राप्त जानकारी से केवल यह ज्ञात होता है कि ईसा की छठी शताब्दी में इस दुर्ग का अस्तित्व था। सन्‌ 520 ई. में अर्थात मिहिर कूल हूण के राज्य के पंद्रहवें वर्ष में मातृचेट ने गोपगिर का सूर्य मंदिर बनवाया था। मातृचेट के शिलालेख में गोपाद्र का वर्णन संक्षिप्त रूप में इस प्रकार है-

गोप नाम का भूधर जिस पर विभिन्न धातुएँ प्राप्त होती हैं। इससे अनुमान लगा सकते हैं कि इन धातुओं को प्राप्त करने के लिए मानव श्रम आवश्यक रहा होगा और आसपास मानव निवास हो गया होगा। कुछ साधु संत भी वहाँ रहने लगे होंगे, परन्तु वे सिद्ध योगी थे।

इसी प्रकार चतुर्भुज मंदिर के विक्रम संवत्‌ 932-33 के शिलालेख में भी इस दुर्ग का उल्लेख मिलता है। यह शिलालेख कन्नौज के राजा भोजदेव के समय का है, जो इस दुर्ग का शासक रहा था।

दुर्ग के बारे में प्रचलित किंवदंती यह है कि इस पहाड़ी पर ग्वालिय नामक साधु रहते थे। एक दिन नगर के नरेश सूर्य (सूरज) सैन, जिन्हें कुष्ठ रोग हो गया था, घूमते हुए इस पहाड़ी पर आ निकले और उनकी साधु से भेंट हो गई। नरेश ने प्रणाम करके अपने कुष्ठ रोग का उपचार पूछा। साधु ने राजा से वहाँ बने हुए तालाब में स्नान करने का परामर्श दिया। राजा ने वैसा ही किया और स्नान करते ही कुष्ठ रोग जाता रहा। राजा ने उस साधु की इच्छानुसार उस पहाड़ी पर एक दुर्ग बनवाया और उसका नाम ग्वालिगढ़ रखा और बाद में नगर का नाम भी ग्वालियर रख दिया।

भारतवर्ष के दि. जैन तीर्थ क्षेत्र (भाग 3 मध्यप्रदेश) में जहाँ सिंहोनिया क्षेत्र का वर्णन आया है, वहाँ बताया गया है कि इसकी स्थापना राजा सूर्य सैन के पूर्वजों ने दो हजार वर्ष पूर्व की थी। राजा सूर्य सैन को कुष्ठ रोग हो गया था, जो ग्वालियर किले में स्थित कुंड के जल में स्नान करने से दूर हो गया। इससे ज्ञात होता है कि सूर्य सैन सिंहोनिया के राजा थे।

इसी में आगे लिखा है कि राजा सूर्य सैन की जैन धर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा थी। उसकी रानी कोकनवती भी जैन धर्म की अनुयायी थी। उसने सन्‌ 275 में कोकनपुर मठ का जैन मंदिर बनवाया था। यह मंदिर ग्वालियर के किले में विद्यमान है।

यह कथानक इतिहासकारों, आख्यानों एवं कवियों का आधार है, जिन्होंने अपनी-अपनी शैली में इस दुर्ग के निर्माण एवं प्राचीनता के बारे में लिखा है। श्रीमंत बलवंत राय भैया साहब सिंधिया ने हिस्ट्री ऑफ फोर्टेस ऑफ ग्वालियर (अँगरेजी), जो फारसी के ग्वालियर नाम का अनुवाद है, उसमें लिखा है कि ग्वालियर किले के पूर्व में सिंहोनिया नामक एक गाँव है, जो दुर्ग से 12 मील के फासले पर है। वहाँ का जागीरदार कछवाहा ठाकुर सूर्य सैन ईसा के बाद 275 ई. में था।

उपरोक्त समस्त लेखकों का आधार ग्वालिय साधु ही है, जिसके कारण यह ग्वालियर गालव ऋषि की पुण्यभूमि कहा जाता है। परन्तु इतिहासविज्ञ डॉ. हरहरनिवास द्विवेदी ने साप्ताहिक गोपाचल हैरल्ड 15 जून 1985 के लेख में यह बताया है कि ग्वालियर का रंच मात्र भी संबंध गालव से नहीं है। इस प्रकार ग्वालियर दुर्ग के निर्माण एवं उसकी प्राचीनता इतिहास के गर्भ में छिपी हुई है।