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वेदों में विवाह के कुछ खास नियम

वेदों में विवाह के कुछ खास नियम -
- पं. रविशंकर शर्म
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विवाह के पश्चात ही पुरुष पुरुषत्व को प्राप्त होता है। विवाह होने पर पूर्ण पुरुष होता है और सदाचारी संतान उत्पन्न करके देश, धर्म, जाति सेवा के साथ देव, ऋषि, पितृऋण से भी उन्मुक्त हो सकता है। विवाह संस्कार सर्वश्रेष्ठ संस्कार है। इससे मनुष्य धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष की सिद्धि कर सकता है।

इस संस्कार को मुनियों ने श्रेष्ठ बताया है। यह संस्कार योग्य समय में होने पर ही दाम्पत्य सुख, ऐश्वर्य भोग और उत्तम प्रजोत्पादन करके मनुष्य अपने पितृ ऋण से मुक्त होता है। सर्वकाल विवाह के लिए शुभ मानकर चाहे जब रजिस्टर पद्धति से कोर्ट में जाकर तथा कपोल-कल्पित नियमानुसार विवाह करवा लेते हैं। यह सर्वथा अनुचित है। विवाह के लिए वेदों में भी पर्याप्त निर्णय है।

* क्या वर-कन्या का जन्म टाइम ठीक-ठीक है?

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* कई वर्षों से प्राचीन गणित में अंतर आता है अतः ऐसे गणित से बनाया जन्म-पत्र ठीक-ठीक फलदायक नहीं हो सकता, इसलिए वर-कन्या के जन्म पत्र शुद्ध-सूक्ष्म एवं दृक्तुल्य केतकी गणित से ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बने हैं या नहीं? इसकी जाँच उत्तम गणितज्ञ से कराएँ।

* क्या ज्योतिषी ने बालक का जहाँ जन्म है वहीं का सूर्योदय लेकर जन्मपत्र बनाया है?

* क्या लग्न सारिणी एवं सूर्योदय जन्म स्थान को लेकर लग्न साधन किया है? इन बातों का निर्णय कर जन्मपत्र विद्वान गणितज्ञ से बनवाकर मिलाने पर ही वह मिलान योग्य होकर फलदायक होता है।

यदि कन्या और वर की जन्म कुंडली न हो और दोनों के नाम परस्पर मिलान में शुभ न हो तो आवश्यकता में कन्या का नाम बदला जा सकता है, वर का नहीं। वर का प्रसिद्ध नाम तथा कन्या का जन्म नाम, कन्या का प्रसिद्ध नाम और वर का जन्म- नाम ऐसा विपरीत कदापि न लें, यह वर-कन्या के लिए हानिप्रद है या दोनों का जन्म नाम ही लें और जन्म नाम न हो तो दोनों के प्रसिद्ध नाम लें।
विशेषतः दोनों के जन्म-नाम ही लेना शास्त्रोक्त और आवश्यक है। जन्म नाम प्राप्त न हो तो प्रसिद्ध नाम लेकर गुण मिलाएँ। वधू वर की सगोत्र और वर की माता की सातपीढ़ी में से न हो। दो सगी बहनों का विवाह दो सगे भाइयों से न करें। दो सगी बहनों का, दो सगे भाइयों का या भाई-बहनों का एक संस्कार 6 मास में साथ ही न करें। लड़की के विवाह के पीछे लड़के का विवाह हो सकता है।

पृथक माता (सौतेली) से हुए भाई-बहनों का एक संस्कार द्वार भेद, मंडप भेद और आचार्य भेद से हो सकता है। यमल (जोड़े) भाई-बहनों का एक ही मंडप में विवाह करने में हानि नहीं। इसी प्रकार विवाह से पीछे मुंडन, यज्ञोपवीत 6 मास तक न करें। विवाह, उपनयन, चूड़ा, सीमंत, केशांत से 6 मास तक लघु मंगलकार्य न करें। संवत्सर भेद से जैसे माघ, फाल्गुन में एक मंगल कार्य हो तो आगे चैत्र के बाद दूसरा मंगल कार्य कर सकते हैं, उसमें कोई दोष नहीं।

ऊपर कहा हुआ 6 मास का व्यवधान तीन पीढ़ी तक के ही पुरुषों को कहा है, अन्य पीढ़ी के पुरुषों को यह बंधन नहीं है। मंगल कार्य के मध्य पितृकर्म (श्राद्धादि) अमंगल कार्य न करें। वाग्दान के अनंतर वर कन्या के तीन पीढ़ी में किसी की मृत्यु हो जाए तो एक मास के बाद अथवा सूतक निवृत्ति होने पर शांति करके विवाह करने में हानि नहीं।

विवाह के पूर्व नांदीमुख श्राद्ध के बाद तथा विनायक स्थापन (बड़ा विनायक) हुए बाद तीन पीढ़ी तक की मृत्यु हो जाए तो वह कन्या तथा वर के माता-पिता को अशौच नहीं लगता है। निश्चित समय पर विवाह कर देना चाहिए।