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Written By Author अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

परशुराम का सच, नहीं किया क्षत्रियों का समूल विनाश

परशुराम का सच, नहीं किया क्षत्रियों का समूल विनाश - Lord Parshuram
विष्णु के छठे 'आवेश अवतार' परशुराम का जन्म 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर में भृगु ऋषि के कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका था। उनके पूर्वज भृगु ऋषि ईरान के राजा थे, लेकिन विष्णु से दुश्मनी होने के चलते इनको भारत के धर्मारण्य में शरण लेना पड़ी। ऐसा कुछ शोधकर्ता मानते हैं। हालांकि इस सचाई की तह तक जाना होगा।

ऋचीक-सत्यवती के पुत्र जमदग्नि, जमदग्नि-रेणुका के पुत्र परशुराम थे। ऋचीक की पत्नी सत्यवती राजा गाधि (प्रसेनजित) की पुत्री और विश्वमित्र (ऋषि विश्वामित्र) की बहिन थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वमित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया।

महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ॠषि ॠचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र, महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरु, शस्त्र एवं शास्त्र के धनी ॠषि परशुराम का जीवन संघर्ष और विवादों से भरा रहा है। भृगुक्षेत्र के शोधकर्ता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय के अनुसार जिन राजाओं से इनका युद्ध हुआ उनमें से हैहयवंशी राजा सहस्त्रार्जुन इनके सगे मौसा थे। जिनके साथ इनके पिता जमदग्नि ॠषि का इनकी माता रेणुका को लेकर विवाद हो गया था। कथानक के अनुसार के साथ इनकी माता के सम्बंधों के लेकर हुए इस विवाद में इन्होंने अपने पिता के आदेश पर माता रेणुका का सिर काट दिया था। जिससे नाराज इनके मौसा सहस्त्रार्जुन ने जमदग्नि ॠषि का आश्रम उजाड़ दिया।

समाज में आम धारणा यह है कि परशुराम ने 21 बार धरती को क्षत्रियविहीन कर दिया था। सोचिए एक ही बार क्षत्रियों से विहीन करने के बाद दूसरी बार कैसे क्षत्रियों का जन्म हुआ, इस सवाल को खोजना होगा तभी दूसरी बार की बात करेंगे। एक समय ऐसा भी आया था जबकि परशुराम को क्षत्रिय कुल में जन्मे भगवान श्रीराम के आगे झुकना पड़ा था। तब...?

परशुराम ने कर दिया था अपनी माता का वध...


पुराणों में उल्लेख मिलता है कि परशुराम की माता रेणुका से अनजाने में कोई अपराध हो गया था। पिता जमदग्नि उक्त अपराध से अत्यंत क्रोधित हुए तथा उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि रेणुका का सिर काट डालो। स्नेहवश कोई पुत्र ऐसा न कर सका, लेकिन परशुराम ने माता का सिर पिताश्री की आज्ञानुसार काट डाला। परशुराम सहित जमदग्नि के 5 पुत्र थे।

परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की। कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

क्यों सिर काट दिया माता का? जानिए अगले पन्ने पर...


परशुराम के 4 बड़े भाई थे। एक दिन जब सभी पुत्र फल लेने के लिए वन चले गए, तब परशुराम की माता रेणुका स्नान करने गईं। जिस समय वे स्नान करके आश्रम को लौट रही थीं, उन्होंने गन्धर्वराज चित्रकेतु (चित्ररथ) को जलविहार करते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार उत्पन्न हो गया और वे खुद को रोक नहीं पाईं।

महर्षि जमदग्नि ने यह बात जान ली। इतने में ही वहां परशुराम के बड़े भाई रुक्मवान, सुषेणु, वसु और विश्वावसु भी आ गए। महर्षि जमदग्नि ने उन सभी से बारी-बारी अपनी मां का वध करने को कहा, लेकिन मोहवश किसी ने ऐसा नहीं किया। तब मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया और उनकी विचार शक्ति नष्ट हो गई।

फिर वहां परशुराम आए और तब जमनग्नि ने उनसे यह कार्य करने के लिए कहा। उन्होंने पिता के आदेश पाकर तुरंत अपनी मां का वध कर दिया। यह देखकर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और परशुराम को वर मांगने के लिए कहा।

तब परशुराम ने अपने पिता से माता रेणुका को पुनर्जीवित करने और चारों भाइयों को ठीक करने का वरदान मांगा। साथ ही उन्होंने कहा कि इस घटना की किसी को स्मृति न रहे और अजेय होने का वरदान भी मांगा। महर्षि जमदग्नि ने उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी कर दीं।

परशुराम का क्षत्रियों से झगड़ा, अगले पन्ने पर...


परशुराम राम के समय से हैं। उस काल में हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार था। भार्गव और हैहयवंशियों की पुरानी दुश्मनी चली आ रही थी। हैहयवंशियों का राजा सहस्रबाहु अर्जुन भार्गव आश्रमों के ऋषियों को सताया करता था।

एक समय सहस्रबाहु के पुत्रों ने जमदग्नि के आश्रम की कामधेनु गाय को लेने तथा परशुराम से बदला लेने की भावना से परशुराम के पिता का वध कर दिया। जब इस बात का परशुराम को पता चला तो क्रोधवश उन्होंने हैहयवंशीय क्षत्रियों की वंश-बेल का विनाश करने की कसम खाई।

कौन था सहस्त्रार्जुन, जानिए अगले पन्ने पर...


सहस्त्रार्जुन एक चंद्रवंशी राजा था। इन्ही के पूर्वज थे महिष्मन्त, जिन्होंने नर्मदा के किनारे महिष्मति (आधुनिक महेश्वर) नामक नगर बसाया। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरांत कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को संभाला। भार्गववंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर संबंध थे। कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन थे। कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा गया।

कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।

अगले पन्ने पर युद्ध का मूल कारण...


युद्ध का कारण : ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया।

जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की भुजाएं कट गई और वह मारा गया।

तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि का वध कर डाला। परशुराम की मां रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया- मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश कर दूंगा।

कार्त्तवीर्यार्जुन के दिवंगत होने के बाद उनके पांच पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।

जयध्वज के सौ पुत्र थे जिन्हें तालजंघ कहा जाता था, क्योंकि ये काफी समय तक ताल ठोंक कर अवंति क्षेत्र में जमे रहें। लेकिन परशुराम के क्रोध के कारण स्थिति अधिक विषम होती देखकर इन तालजंघों ने वितीहोत्र, भोज, अवंति, तुण्डीकेरे तथा शर्यात नामक मूल स्थान को छोड़ना शुरू कर दिया। इनमें से अनेक संघर्ष करते हुए मारे गए तो बहुत से डर के मारे विभिन्न जातियों एवं वर्गों में विभक्त होकर अपने आपको सुरक्षित करते गए। अंत में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर युद्ध करने से रोक दिया।

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हैहयवंशियों के राज्य की राजधानी महिष्मती नगरी थी जिसे आज महेश्वर कहते हैं जबकि परशुराम और उनके वंशज गुजरात के भड़ौच आदि क्षे‍त्र में रहते थे। परशुराम ने अपने पिता के वध के बाद भार्गवों को संगठित किया और सरस्वती नदी के तट पर भूतेश्‍वर शिव तथा महर्षि अगस्त्य मुनि की तपस्या कर अजेय 41 आयुध दिव्य रथ प्राप्त किए और शिव द्वारा प्राप्त परशु को अभिमंत्रित किया।

इस जबरदस्त तैयारी के बाद परशुराम ने भड़ौच से भार्गव सैन्य लेकर हैहयों की नर्मदा तट की बसी महिष्मती नगरी को घेर लिया तथा उसे जीतकर व जलाकर ध्वस्त कर उन्होंने नगर के सभी हैहयवंशियों का भी वध कर दिया। अपने इस प्रथम आक्रमण में उन्होंने राजा सहस्रबाहु का महिष्मती में ही वध कर ऋषियों को भयमुक्त किया।

इसके बाद उन्होंने देशभर में घूमकर अपने 21 अभियानों में हैहयवंशी 64 राजवंशों का नाश किया। इनमें 14 राजवंश तो पूर्ण अवैदिक नास्तिक थे। इस तरह उन्होंने क्षत्रियों के हैहयवंशी राजाओं का समूल नाश कर दिया जिसे समाज ने क्षत्रियों का नाश माना जबकि ऐसा नहीं है। अपने इस 21 अभियानों के बाद भी बहुत से हैहयवंशी छुपकर बच गए होंगे।

ईरान से आए थे भृगु?, अगले पन्ने पर...


माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के इतिहास-लेखक, श्रीबाल मुकुंद चतुर्वेदी के अनुसार भृगु परम तेजस्वी क्रोधी आचार्य थे। महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ, उस समय इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा सुषानगर, जिसे बाद में पर्शिया (ईरान) कहा जाने लगा, भू-भाग के राजा थे। ब्रह्मा पद पर आसीन प्रचेता की दो 2 पत्नियां थी। पहली भृगु की माता वीरणी व दूसरी उरपुर की उर्वषी जिनके पुत्र वशिष्ठजी हुए। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी की 3 संतानें हुई। 2 पुत्र च्यवन और ऋचीक तथा 1 पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था।

च्यवन ऋषि का विवाह गुजरात के खम्भात की खाड़ी के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ऋचीक का विवाह महर्षि भृगु ने गाधिपुरी (गाजीपुर) के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि ने उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया। वैवस्वत मनु के पिता थे विवस्ववान।

महर्षि भृगु के सुषानगर से भारत के धर्मारण्य में आने की पौराणिक ग्रंथों में दो कथाएं मिलती हैं। भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्यादेवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड़ गई। इस लड़ाई में महर्षि भृगु ने पत्नी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया। क्रोधित विष्णुजी ने सौतेली सास दिव्यादेवी को मार डाला। इस पारिवारिक झगड़े को आगे नहीं बढ़ने देने से रोकने के लिए भृगु मुनि को सुषानगर से बाहर चले जाने की सलाह दी गई और वे धर्मारण्य में आ गए। धर्मारण्य संभवत आज के उत्तर प्रदेश के बलिया क्षेत्र को कहते हैं। बाद में इनके वंशज गुजरात में जाकर बस गए। दो बड़ी नदियों गंगा और सरयू (घाघरा) के दोआब में बसे बलिया जिले की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक पृष्ठ्भूमि काफी समृद्ध रही है।

तो यह थी भृगु के ईरान से भारत आने की कथा। लेकिन इस पर अभी और शोध किए जाने की आवश्यकता है।

दूसरी कथा : महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया था। यहां स्नान की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है। यहां स्नान एवं मेले को महर्षि भृगु ने प्रारम्भ किया था।

प्रचेता ब्रह्मा वीरणी के पुत्र महर्षि भृगु का मंदराचल पर हो रहे यज्ञ में ऋषिगणों ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की परीक्षा का काम सौंप दिया। इसी परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु ने क्षीर सागर में विहार कर रहे भगवान विष्णु पर पद प्रहार कर दिया। दण्ड स्वरूप महर्षि भृगु को एक दण्ड और मृगछाल देकर विमुक्त तीर्थ में विष्णु सहस्त्र नाम जप करके शाप मुक्त होने के लिए महर्षि भृगु के दादा मरीचि ऋषि ने भेजा। तब महर्षि ने यहीं तपस्या प्रारम्भ की।

अगले पन्ने पर परशुराम का जन्म स्थान कौन-सा जानिए...


भृगुक्षेत्र के शोधकर्ता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय के अनुसार परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में हुआ था। उन्होंने अपने शोध और खोज में अभिलेखिय और पुरातात्विक साक्ष्यों प्रस्तुत किए हैं। श्रीकौशिकेय अनुसार उत्तर प्रदेश के शासकीय बलिया गजेटियर में इसका चित्र सहित संपूर्ण विवरण मिल जाएगा।

1981 ई. में बीएचयू के प्रोफेसर डॉ. केके सिन्हा की देखरेख में हुई पुरातात्विक खुदाई में यहां 900 पूर्वेसा में समृद्ध नगर होने के प्रमाण मिले थे।

ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर पाण्डुलिपि संरक्षण के जिला समन्वयक श्रीकौशिकेय द्वारा की गई इस ऐतिहासिक खोज से वैदिक ॠषि परशुराम की प्रामाणिकता सिद्ध होने के साथ-साथ इस कालखण्ड के ॠषि-मुनियों वशिष्ठ, विश्वामित्र, पराशर, वेदव्यास के आदि के इतिहास की कड़ियां भी सुगमता से जुड़ जाती है।
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