गणेश विसर्जन के दूसरे दिन यानी पूर्णिमा के दिन से मालवा की किशोरियों की सखी-सहेली संजा मायके आती है। योग्य वर की कामना से किशोरियां सृजन और विसर्जन के इस पर्व को श्राद्घ पक्ष के सोलह दिन तक मनाती हैं। कहा जाता है कि पार्वती ने शिव को पाने के लिए यह व्रत किया था।
गोबर से उकेरी और फूलों से सजी आकृतियों को देखकर लड़कियों के मन की प्रसन्नता देखते ही बनती है। इन दिनों उनके सुमधुर कंठों से सहज ही फूट पड़ेंगे संजा गीत -
छोटी-सी गाड़ी रुड़कती जाए रुड़कती जाए,
उनमें बैठ्या संजाबई संजाबई।
घाघरों घमकाता जाए चूड़लो छमकाता जाए,
बईजी की नथनी झोला खाए....।
इन 16 दिनों में बालिकाएं घर-आंगन की दीवारों पर गोबर से आकृतियां बनाएंगी। आकृतियों को फूल-पत्तियों तथा चमकीली पन्नियों व रंग-बिरंगे कागज आदि से सजाया जाता है। गुलतेवड़ी, गेंदा, गुलबास के फूलों से सजती है संजा। संजा में चांद-सूरज हर दिन बनते हैं तो अन्य आकृतियां हर दिन क्रमानुसार बदलती हैं।
इस अवसर पर पहले दिन पूनम का पाटला बनता है तो बीज अर्थात दूज का बिजौरा बनता है।
तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़, पांचवे दिन पांचे या पांच कुंवारे बनाए जाते हैं।
छठे दिन छबड़ी, सातवें दिन सातिया यानी स्वस्तिक, आठवें दिन आठ पंखड़ी का फूल, नौवें दिन डोकरा-डोकरी उसके बाद वंदनवार, केल, जलेबी की जोड़ आदि बनने के बाद तेरहवें दिन शुरू होता है किलाकोट बनना, जिसमें 12 दिन बनाई गई आकृतियां भी होती हैं।
श्राद्घ पक्ष के सोलह दिनों में सांझ होते ही दीपक प्रज्ज्वलित कर लड़कियां संजा का स्वागत गीत-पूजा-आरती इत्यादि से कर प्रसाद बांटती हैं। संजा की आरती में किशोरियां आलाप लेंगी - पेली आरती राई रमझोर....
प्रसाद वितरण के पूर्व सखियों को उसे ताड़ना या पहचानना आवश्यक है, तभी प्रसाद वितरण होता है। संजा बनाने वाली लड़कियों के भाई शरारतपूर्वक प्रसाद को उजागर करने की कोशिश भी करते हैं, जिससे मस्ती का माहौल भी होता है। कभी-कभी प्रसाद नहीं पहचाने जाने पर हिंट भी दिया जाता है कि प्रसाद नमकीन है या मीठा।
श्राद्घ पक्ष की समाप्ति पर ढोल-ताशे के साथ खुशियां समेटकर नई नवेली बन्नी की तरह बिदा होती है संजा।