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Written By ओशो
Last Updated : गुरुवार, 4 सितम्बर 2014 (11:11 IST)

मूर्ति-पूजा शब्द बिलकुल ही गलत है: ओशो

osho-rajanish
मूर्ति-पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़ने वाला बीच में एक सेतु चाहिए।

संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्चित ही वह सेतु मूर्त ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे।

आपको अमूर्त का तो कोई पता ही नहीं है। चाहे कोई कितनी ही बात करता हो निराकार परमात्मा की, अमूर्त परमात्मा की, वह बात ही रह जाती है, आपको कुछ ख्याल में नहीं आता। असल में आपके मस्तिष्क के पास जितने अनुभव हैं वे सभी मूर्त के अनुभव हैं, आकार के अनुभव हैं।

निराकार का आपको एक भी अनुभव नहीं है। जिसका कोई भी अनुभव नहीं है उस संबंध में कोई भी शब्द आपको कोई स्मरण नही दिला पाएगा। और निराकार की बात आप करते रहेंगे और आकार में जीते रहेंगे।

अगर उस निराकार से भी कोई संबंध स्थापित करना हो, तो कोई ऐसी चीज बनानी पड़ेगी जो एक तरफ से आकार वाली हो और दूसरी तरफ से निराकार वाली हो।

यही मूर्ति का रहस्य है। इसे मैं फिर से समझा दूं आपको। कोई ऐसा सेतु बनाना पड़ेगा जो हमारी तरफ आकार वाला हो और परमात्मा की तरफ निराकार हो जाए। हम जहां खड़े हैं वहां उसका एक छोर तो मूर्त हो, और जहां परमात्मा है, दूसरा छोर उसका अमूर्त हो जाए, तो ही सेतु बन सकता है।

अगर वह मूर्ति है तो फिर सेतु नहीं बनेगा, अगर वह मूर्ति बिलकुल अमूर्त है तो भी सेतु नहीं बनेगा। मूर्ति को दोहरा काम करना पड़ेगा। हम जहां खड़े हैं वहां उसका छोर दिखाई पड़े, और जहां परमात्मा है वहां निराकार में खो जाए।

इसलिए यह ‘मूर्ति-पूजा’ शब्द बहुत अदभुत है। और जो अर्थ मैं आपसे कहूंगा, वह आपके ख्याल में कभी भी नहीं आया होगा। अगर मैं ऐसा कहूं कि मूर्ति-पूजा शब्द बड़ा गलत है, तो आपको बड़ी कठिनाई होगी।

असल में मूर्ति-पूजा शब्द बिलकुल ही गलत है। गलत इसलिए है कि जो व्यक्ति पूजा करना जानता है उसके लिए मूर्ति मिट जाती है और जिसके लिए मूर्ति दिखाई पड़ती है उसने कभी पूजा की नहीं है, उसे पूजा का कोई पता नहीं है।

और मूर्ति-पूजा शब्द में हम दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं-एक पूजा का और एक मूर्ति का-ये दोनों एक ही व्यक्ति के अनुभव में कभी नहीं आते।

इनमें मूर्ति शब्द तो उन लोगों का है जिन्होंने कभी पूजा नहीं की; और पूजा उनका है जिन्होंने कभी मूर्ति नहीं देखी। अगर इसे और दूसरी तरह से कहा जाए तो ऐसा कहा जा सकता है कि पूजा जो है वह मूर्ति को मिटाने की कला है। वह जो मूर्ति है आकार वाली उसको मिटने की कला का नाम पूजा है।

उसके मूर्त हिस्से को गिराते जाना है, गिराते जाना है! थोड़ी ही देर में वह अमूर्त हो जाती है। थोड़ी ही देर में, इस तरफ जो मूर्त हिस्सा था वहां से शुरुआत होती है पूजा की, और जब पूजा पकड़ लेती है साधक को तो थोड़ी ही देर में वह छोर खो जाता है और अमूर्त प्रकट हो जाता है।

सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन
साभार : गहरे पानी पैठ