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प्रवासी वेदना : राखी के दिन

प्रवासी वेदना : राखी के दिन - videshi kavita : rakhi
- शशि पाधा
 

 
 
उड़ती-उड़ती-सी इक बदली
मोरे अंगना आई
मैंने पूछा मेरे घर से
क्या संदेशा लाई?
 
राखी के दिन भैया ने क्या
मुझको याद किया था
पंख तेरे संग बांध किसी ने
थोड़ा प्यार दिया था
 
दिवाली की थाली में जब
सबने दीप जलाए होंगे
मेरे हिस्से के दीपों को
किसने थाम लिया था?
 
सच बताना प्यारी बहना
क्या तू देख के आई
उड़ते-उड़ते मेरे घर से
क्या संदेशा लाई
 
मेरी बगिया के फूलों का
रंग बताना कैसा था
उन मुस्काती कलियों में
क्या कोई मेरे जैसा था
 
‍मेरे बिन आंगन की ‍तुलसी
थोड़ी तो मुरझाई होगी
हार-श्रृंगार की कोमल बेला
कुछ पल तो कुम्हलाई होगी
 
बचपन की उन सखियों को
क्या मेरी याद सताई
मैंने पूछा मेरे घर में
क्या-क्या देख के आई
 
आते-आते क्या तू बदली
गंगा मैया से मिल आई
देव नदी का पावन जल क्या
अपने आंचल में भर लाई
 
मंदिर की घंटी की गूंजें
कानों में रस भरती होंगी
चरणामृत की शीतल बूंदें
तन-मन शीतल करती होंगी
 
तू तो भागों वाली बदली
सारा पुण्य कमाकर आई
उड़ते-उड़ते प्यारी बहना
किससे मिल के आई
 
अबकी बार उड़ो तो बदली
मुझको भी संग लेना
अपने पंखों की गोदी में
मुझको भी भर लेना
 
ममता मूर‍‍त मैया को जब
मेरी याद सताएगी
देख मुझे तब तेरे संग वो
कितनी खुश हो जाएगी
 
याद करूं वो सुख के पल तो
अंखियां भर-भर आईं
उड़ते-उड़ते प्यारी बदली
क्या तू देख के आई
 
और न कुछ भी मांगूं तुमसे
बस इतना ही करना
मेरी मां का आंगन बहना
खुशियों से तू भरना
 
सरस स्नेह की मीठी बूंदें
आंगन में बरसाना
मेरी बगिया के फूलों में
प्रेम का रंग बिखराना
 
जब-जब भी ‍तू लौट के आए
मुझको भूल न जाना
मेरे घर से खुशियों के
संदेश लेते आना।
 
घड़ी-घड़ी में अम्बर देखूं
कब तू लौट के आई
मेरे घर से प्यारी बदली
क्या संदेश लाई?
 
साभार : गर्भनाल