शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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प्रवासी कविता : मुसाफिर

प्रवासी कविता : मुसाफिर - pravasi kavita
- हरनारायण शुक्ला


 
कहां खो गया हूं, पता नहीं कुछ मुझको,
भटका हुआ मुसाफिर, पूछूं राह मैं किसको।
 
मेला लगा हुआ है, पर मैं हूं खड़ा अकेला,
अनजाने सब लगते, यह कैसा रेलम-पेला। 
 
कैसे चले जा रहे हैं, तेजी से सब लोग,
भागम-भाग लगी है, लगी हुई है होड़।
 
कोलाहल है जितना, सन्नाटा भी उतना,
भीड़-भाड़ है भीषण, वीरानापन कितना।
 
अनजान नगर, अनजान डगर, अनजाने हैं लोग, 
सीधा ही मैं चलते जाऊं, ना पूछूं जाऊं किस ओर।