बरसात ने दस्तक दे दी है। हम किसानों को अब जमीन की तैयारी में लग जाना है। खेतों को हलना है, बखरना है, बीज, खाद, पौध संरक्षण दवा, उनके छिड़कने के यंत्र सब तैयार रखना है। पिछले दो-तीन साल के असामान्य मौसम के कारण बीज की भारी समस्या है। सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि सोयाबीन ही बोना है, इसकी भी जे.एस. 335 या 'सम्राट' किस्म ही लगाना है।
इसका बीज हममें से कुछ ही किसानों के पास है। बीज निगम, शासकीय कृषि विभाग, कृषि विश्वविद्यालय, गैर सरकारी संस्थाओं के पास भी आवश्यकता व माँग के अनुरूप बीज नहीं है।
निजी एजेंसियाँ व निजी विक्रेता भी ऊँचे भावों पर बीज (या दाने) बेच रहे हैं। ऊँचे भाव पर बीज खरीदने के लिए पर्याप्त पूँजी नहीं है। किसी तरह इसका इंतजाम कर भी लें तो खाद, नींदानाशक रोग व कीटनाशक दवाइयों का इंतजाम अलग से करना पड़ेगा। इतना सब करने केबाद पता नहीं मौसम साथ देगा या नहीं। साथ दिया तो ठीक। उत्पादन अगर अधिक हो गया तो कर्ज चुकाने के लिए फसल आते ही बेचना पड़ेगी।
बाजार में एक साथ माल आने पर क्या भाव मिलेगा, पता नहीं। उस भाव पर पड़त (लागत खर्च) भी निकल पाएगा या नहीं और अगर मौसम ने साथनहीं दिया तो उत्पादन इतना कम होगा कि उससे कर्ज व खर्च की पूर्ति हो पाती है या नहीं, कह नहीं सकते। खैर, भारी असमंजस, तनाव और दबाव के बीच भी खेत तो बोना ही है। खाली तो रख नहीं सकते।
अब सवाल यह है कि सोयाबीन नहीं बोएँ तो दूसरी कौन सी फसल लें? आइए देखें :
जुवार : जुवार है तो अच्छी फसल। पानी थोड़ा कम पड़े तो भी उपज सोयाबीन से तीन-चार गुना अधिक मिलेगी ही। पशुओं के लिए उत्तम किस्म की कड़वी (चारा) मिलेगी सो अलग। पर इसके साथ एक सबसे बड़ी अड़चन यह है कि जब तक आसपास के किसान मिलकर इसे नहीं बोएँ,तब तक अकेले खेत में तो ले नहीं सकते। अगर उगा भी ली तो सब दूर के चिड़िया, तोते इस खेत पर टूट पड़ेंगे और इसे उनसे बचाना मुश्किल एवं महँगा पड़ेगा।
सूरजमुखी : यह भी एक अच्छी फसल है। इसे अच्छा पानी पड़ने के बाद जुलाई के आखिर तक भी लगाया जा सकता है। इसके लिए अच्छे सुनिथार खेत, जिनमें बरसाती पानी नहीं रुकता हो, जरूरी हैं। सूरजमुखी पिछले चार-पाँच साल में हरियाणा, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश व राजस्थान के कुछ भागों में बहुत बड़े क्षेत्र में उगाया जाने लगा है।
वहाँ के किसानों ने एक साथ व्यापक क्षेत्र में इसे उगाना शुरू कर दिया। यह फसल लगभग सोयाबीन के बराबर समय यानी 95 से 105 दिन में आ जाती है। इसके भाव भी अच्छे मिल जाते हैं। मालवा, निमाड़, ग्वालियर क्षेत्रों में यह फसल अच्छी आ सकती है, अगर कई किसान मिलकर इसे बड़े क्षेत्र में उगाएँ।
अरहर : फसल तो बहुत अच्छी है। इसकी कम अवधि (130-150 दिन) में पकने वाली किस्में तैयार कर ली गई हैं। इस फसल की विशेषता यह है कि प्रारंभिक दौर में इसके पौधों की बढ़वार धीमी होती है। 45-50 दिन बाद इसकी बढ़वार में तेजी आती है। इस समय तक पर्याप्त वर्षा हो चुकी होती है। इसके पौधों की जड़ें जमीन में सोयाबीन के पौधों की जड़ों की अपेक्षा अधिक गहरी जाती हैं। इसलिए वर्षाकाल के दौरान दो वर्षाओं के बीच अवर्षा के अंतराल की स्थिति में भी यह नमी की कमी को सहन कर सकती है।
इसके साथ दो बड़ी समस्याएँ रहती हैं। पहली विलट या सूखा रोग की। किसी खेत में यदि लगातार सोयाबीन, अरहर, बैंगन, टमाटर, मिर्च आदि फसलें ली गई हों तो उन खेतों की जमीन में सूखा रोग के बीजाणु (स्पोर्स) घर बना लेते हैं। एक बार ये बीजाणु मिट्टी में मिलने पर लगभग पाँच से सात वर्ष तक नष्ट नहीं होते।
इस दौरान इनकी कोई भी 'होस्ट' फसल उगाई जाने पर ये उसे नुकसान पहुँचाते हैं। इनकी पहचान यह है कि सूखे व नमी रहित वातावरण में इनका प्रकोप कम रहता है। परंतु वातावरण और मिट्टी में नमी की मात्रा बढ़ते ही सूखा रोग तीव्र हो जाता है।
यह फसल की किसी भी अवस्था में आ सकता है। दूसरी समस्या सामाजिक है। वह यह कि सोयाबीन की फसल कटने के बाद खेत खाली होते ही, गाँव के पशुओं को इन खेतों में चरने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है। इस समय अरहर के खेत हरे रहते हैं। ये फूल या फली बनने की अवस्था में होते हैं। हरियाली से आकर्षित होकर पशु इन्हें नुकसान पहुँचाते हैं। छोटे व बिखरे-बिखरे खेतों में उगी हुई अरहर को इनसे बचाना मुश्किल हो जाता है। अरहर, सोयाबीन का एक अच्छा विकल्प बन सकती है।
यह उपज एवं भाव दोनों ही दृष्टि से सोयाबीन से बेहतर है। ऐसे क्षेत्रों में, जहाँ जमीन मध्यम से गहरी है, इसे उगाया जा सकता है। इसकी जल्दी पकने वाली किस्मों को काटने के बाद सिचिंत क्षेत्रों में, दिसंबर में, गेहूँ की फसल ली जा सकती है। यदि बाजार उपलब्ध हो तो हरे चने भी लगाए जा सकते हैं।
मक्का : यह भी हमारे क्षेत्र की पारंपरिक फसल है। उपज में यह सबसे आगे है। इसकी संकर किस्मों को पोषक तत्व देकर सोयाबीन से चार-पाँच गुना तक उपज मिल सकती है। अगर आसपास बाजार उपलब्ध हो तो हरे भुट्टों को बेचना मक्का की फसल से अधिक लाभदायक है।
इससे खेत भी जल्दी खाली हो जाता है। वैसे भी इसके कुछ दाने सोयाबीन के साथ मिलाकर बोए ही जाते हैं। मक्का के भुट्टे के साथ ही शहरी क्षेत्रों में इसके हरे चारे से भी कुछ आमदनी हो जाती है।
अगर मक्का व जुवार को सोयाबीन के साथ अंतरवर्ती फसल के रूप में 4:2 या 6:2 के कतार-अनुपात में बोया जाए तो दोनों फसलों की कुल उपज किसी भी एक फसल की उपज से निश्चित ही अधिक मिलेगी और मौसम, कीड़े, रोग आदि के प्रकोप का जोखिम भी कम होगा। इसके लिए सोयाबीन को मुख्य व जुवार या मक्का को सहायक फसल के रूप में उगाया जाता है।
मुख्य फसल की चार या छः कतारों के बाद दो कतारें जुवार या मक्का की सहायक फसल की ली जाती हैं। मक्का या जुवार के बीज की मात्रा उसके लिए रखे गए क्षेत्र के अनुसार रखी जाती है। मुख्य फसल सोयाबीन का बीज अकेली फसल के समान ही रखना चाहिए। पोषक तत्व हर फसल के लिए समर्थित मात्रा के अनुसार, उसे बोए गए क्षेत्र के आधार पर दिए जाते हैं।