गुरुवार, 28 मार्च 2024
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Written By शराफत खान

क्या है तीन तलाक, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सही इस्लाम सामने आया

क्या है तीन तलाक, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सही इस्लाम सामने आया - Triple Talaq
मुस्लिम महिलाओं से जुड़े अहम मुद्दे ट्रिपल तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया, जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार अगले छह माह में ट्रिपल तलाक पर कानून बनाए तब तक उच्चतम न्यायालय ने तिहरे तलाक पर रोक लगा दी। उच्चतम न्यायालय ने उम्मीद जताई कि केंद्र जो कानून बनाएगा उसमें मुस्लिम संगठनों और शरिया कानून संबंधी चिंताओं का भी खयाल रखा जाएगा। 
 
तीन तलाक का जिक्र न तो कुरान में कहीं आया है और न ही हदीस में। यानी ट्रिपल तलाक इस्लाम का मूल भाग है ही नहीं और सुप्रीम कोर्ट के आज के इस फैसले से पहले भी अगर ट्रिपल तलाक से पीड़ित कोई महिला उच्च अदालत पहुंची है तो अदालत ने कुरान और हदीस की रौशनी में ट्रिपल तलाक को गैर इस्लामिक कहा है। ट्रिपल तलाक पहले भी गैर इस्लामिक ही था और अदालत के आज के फैसले के बाद भी गैर इस्लामिक है। 
 
क्या है तलाक ए बिदअत : तीन बार तलाक को तलाक ए बिदअत कहा जाता है। बिदअत यानी वह कार्य या प्रक्रिया जिसे इस्लाम का मूल अंग समझकर सदियों से अपनाया जा रहा है, हालांकि कुरआन और हदीस की रौशनी में यह कार्य या प्रक्रिया साबित नहीं होते। जब कुरआन और हदीस से कोई बात साबित नहीं होती, फिर भी उसे इस्लाम समझकर अपनाना, मानना बिदअत है। ट्रिपल तलाक को भी तलाक ए बिदअत कहा गया है, क्योंकि तलाक लेने और देने के अन्य इस्लामिक तरीके भी मौजूद हैं, जो वास्तव में महिलाओं के उत्थान के लिए लाए गए थे। 
 
तलाक का इतिहास : इस्लाम से पहले अरब में औरतों की दशा बहुत खराब थी। वे गुलामों की तरह खरीदी बेची जाती थीं। तलाक भी कई तरह के हुआ करते थे, जिसमें महिलाओं के अधिकार न के बराबर थे। इस दयनीय स्थिति में पैगम्बर हजरत मोहम्मद सब खत्म कराकर तलाक-ए-अहसन लाए।
 
तलाक-ए-अहसन तलाक का सबसे अच्‍छा तरीका माना गया है। यह तीन महीने के अंतराल में दिया जाता है। इसमें तीन बार तलाक बोला जाना जरूरी नहीं है। एक बार तलाक कह कर तीन महीने का इंतज़ार किया जाता है। तीन महीने के अंदर अगर-मियां बीवी एक साथ नहीं आते हैं तो तलाक हो जाएगा। इस तरीके में महिला की गरिमा बनी रहती है और वह न निभ पाने वाले शादी के बंधन से आज़ाद हो जाती है। 
 
तीन तलाक इस्लामिक नहीं : हजरत इब्न अब्बास फरमाते हैं कि पेगंबर साहब के दौर में तीन तलाक एक माने जाते थे, अबू बकर सिद्दीक के दौर में भी तीन तलाक एक माने जाते थे। यानी किसी ने तीन तलाक दे भी दिया है तो उसकी प्रक्रिया अधूरी है, तलाक नहीं हुआ। हज़रत उमर के दौर के पहले दो साल तक तीन तलाक एक माने जाते थे, लेकिन उसके बाद हज़रत उमर उस समय के हालात को देखकर के कहते थे कि अगर किसी ने तीन तलाक दिए तो तीन हो जाते हैं। यह एक फौरी व्यवस्था थी और यह निर्णय कुछ विशेष प्रकरणों को देखकर लिया गया था। हज़रत उमर खुद इसे स्थायी नहीं चाहते थे। तीन बार तलाक कहना तो कुरान में है ही नहीं।
 
क्या कहते हैं आकंड़े : भारत में कुल तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का प्रतिशत 23.3 है। 2011 के सेंसस पर एनजीओ 'इंडियास्पेंड' के एनालिसिस के मुताबिक, भारत में तलाकशुदा महिलाओं में 68% हिंदू और 23.3% मुस्लिम हैं। मुसलमानों में तलाक का तरीका सिर्फ ट्रिपल तलाक को ही समझ लिया गया है, हालांकि ट्रिपल तलाक से होने वाले तलाक का प्रतिशत बहुत कम है। मुसलमानों में तलाक, तलाक-ए-अहसन, तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-मुबारत के प्रचलित तरीके हैं और इनके माध्यम से ही अधिकतर तलाक होते हैं, लेकिन ट्रिपल तलाक की चर्चा सबसे अधिक होती है, जो गैर इस्लामकि होने के साथ साथ असंवैधानिक भी है। 
 
मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड की ओर से ट्रिपल तलाक के समर्थन के बयान आते रहे हैं। पसर्नल बोर्ड मुसलमानों के सभी फिरकों में संतुलन बनाने की कोशिश करता है और ट्रिपल तलाक का समर्थन करना मुसलमानों की किसी एक कम्युनिटी को खुश करने की कोशिश लगती है। हालांकि कुरान और हदीस से स्पष्ट हो गया है कि तीन तलाक इस्लाम का मूल भाग है ही नहीं और इसलिए ट्रिपल तलाक को गलत कहना इस्लाम की मान्यताओं ठेस नहीं पहुंचाता।
 
तीन तलाक 1934 के कानून का हिस्सा है और इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी जा सकती है। चीफ जस्टिस जेएस खेहर ने भी अपने फैसले में कहा कि तलाक-ए-बिदअत सुन्नी कम्युनिटी का हिस्सा है। यह 1000 साल से कायम है। तलाक-ए-बिदअत संविधान के आर्टिकल 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन नहीं करता।
 
वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद आम लोगों में इस्लाम की सही समझ बढ़ेगी और भ्रांतियां दूर होंगी, क्योंकि जिस मुद्दे को इस्लाम का विरोध बताकर प्रचारित किया जा रहा था वह तो वास्तव में इस्लाम है ही नहीं। इस्लाम मानव कल्याण की बात करता है तो वह औरतों के खिलाफ इतने क्रूर तरीके की हिमायत कैसे कर सकता है। आम मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत कर रहे हैं और करना भी चाहिए, क्योंकि जिस तरह सुप्रीम कोर्ट का एक काम संविधान की सही व्याख्या करना है, उसी तर्ज पर आज के फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल तलाक पर इस्लाम की व्याख्या की है, जिससे गलतफमियां दूर होंगी।