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Written By सुरेश एस डुग्गर
Last Modified: मंगलवार, 19 सितम्बर 2017 (20:04 IST)

सुनिए सीमावासियों की दु:खभरी दास्तान

सुनिए सीमावासियों की दु:खभरी दास्तान - Jammu Kashmir  Jammu Frontier
भारत-पाक सीमा से (जम्मू फ्रंटियर)। जम्मू फ्रंटियर पर जीरो लाइन से सटे भारतीय सीमावर्ती गांवों में रहने वाले लोगों में से प्रत्येक की अपनी-अपनी दुखभरी दास्तान है। किसी की समस्या कुछ है तो किसी की कुछ लेकिन सभी की समस्याओं का निचोड़ यही निकलता है कि उसके लिए पाकिस्तान तथा उसके सैनिक दोषी हैं जिनके कारण इन लोगों को अनेक संकटों के दौर से गुजरना पड़ रहा है। जो तब तक जारी रह सकते हैं जब तक सीमा का प्रश्न बरकरार है।
 
जम्मू फ्रंटियर की अंतरराष्ट्रीय सीमा के गांवों में समय के साथ-साथ समस्याओं का रूप भी बदलता जा रहा है। कुछेक अरसे में जहां पाकिस्तानी रेंजरों द्वारा इस ओर घुसपैठ करके आम नागरिकों की पिटाई के मामलों में वृद्धि हुई है, वहीं अपने पूर्वजों के के मकान और खेत छोड़ शहरों की ओर स्थायी तौर पर पलायन करने की प्रवृत्ति ने भी जोर पकड़ा है। यही कारण है कि अधिकारिक आंकड़े कहते हैं कि सीमा के साथ सटे शहरों की आबादी में वृद्धि होने लगी है जबकि सीमावर्ती गांवों में कई खेत और मकान अक्सर अब खाली नजर आने लगे हैं।
 
हीरानगर के लोंडी गांव के रहने वाले सुनील सिंह सीमा पर बने वातावरण से परेशान है, क्योंकि पिछले कई दिनों से इस माहौल ने उसे घर पर ही बांध रखा है और वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए 60 किमी दूर कॉलेज में नहीं जा पाया है। रीगाल के रहने वाले जीत लाल की परेशानी यह है कि उसे अभी भी अपने खेतों में जाने की अनुमति नहीं है क्योंकि सीमा रेखा से सटे खेतों में जाना उसके लिए खतरे से खाली नहीं है जबकि सामने पाक सैनिक मोर्चा जमाए बैठे हों। और सादे चक के रहने वाला बलजीत गत तीन महीनों से बिस्तर से ही बंधा है क्योंकि वह पाक रेंजरों की पीटाई का शिकार हुआ है।
 
पढ़ाई का हर्जा, खेतों में कई दिनों तक न जा पाना, पलायन के लिए हमेशा ही तैयार रहना यह तो उन सभी गांवों में आम समस्या है या यूं कहा जाए कि उन लोगों की जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं जो सीमा के साथ सटे गांवों में रहते हैं जो आजकल गर्माहट लिए हुए है। हजारों की तादाद में लोग इन गांवों में रहते हैं लेकिन पाकिस्तान की ओर से बढ़ते दबाव के कारण अब वे भी भयभीत होने लगे हैं जिसने अधिकारियों को भी चिंता में डाला है।
 
यह बात अलग है कि इन गांवों में सुविधाओं का हमेशा ही अभाव रहा है, लेकिन सीमा पर बढ़ने वाले तनाव ने इसमें भी अपना भरपूर योगदान दिया है जिसके कारण उनमें और कमी आई है। अध्यापक, चिकित्सा सुविधाएं तो वैसे भी इन क्षेत्रों में नाममात्र की ही हैं लेकिन बावजूद इसके लोग किसी प्रकार दु:ख-दर्द सहन कर अपना गुजारा कर ही रहे थे कि दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव ने उन्हें एक कारण दिया है पलायन के लिए अपना बोरिया बिस्तर उठाने को। लेकिन इस संदर्भ में इसे याद रखना आवश्यक होता है कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों द्वारा हमेशा ही उस समय पलायन का रास्ता अख्तियार किया जाता रहा है जब पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता रहा है।
 
ऐसा भी नहीं है कि सीमावर्ती गांवों में लोग अच्छी स्थिति में न रहते हों बल्कि शहरों से अच्छे मकान और बंगलों का निर्माण किया जा चुका है। यही नहीं, कई गांव जो जीरो लाइन से मात्र सात-आठ सौ मीटर की दूरी पर स्थित हैं और जब भी सीमा पर तनावपूर्ण माहौल होता है तो इन गावों के उन लोगों को अपने घरों की चिंता सताने लगती है जिन्होंने कई-कई मंजिला कोठियों का निर्माण किया हुआ है। लेकिन इन सब परिस्थितियों के बावजूद भी आज सीमावासी किसी प्रकार अपने दिनों को काट रहे हैं। हालांकि सरकार की ओर से उनको नजरअंदाज ही किया जाता रहा है और उनके विकास के नाम पर सिर्फ फाइलों को ही भरा जा रहा है।
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