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Written By Author गिरीश उपाध्‍याय
Last Updated : गुरुवार, 18 मई 2017 (14:16 IST)

अंतिम इच्‍छा बताती है, कौन और क्‍या थे अनिल माधव दवे

अंतिम इच्‍छा बताती है, कौन और क्‍या थे अनिल माधव दवे - Anil Madhav Dave last wish
अनिल दवे को जानने से पहले जरा उनकी अंतिम इच्‍छाओं के बारे में जान लीजिए... ये इच्‍छाएं उन्‍होंने 23 जुलाई 2012 को यानी करीब पांच साल पहले व्‍यक्‍त कर दी थीं। 
 
उनकी पहली इच्‍छा थी कि उनका दाह संस्‍कार बांद्राभान (नर्मदा का एक तट) में नदी महोत्‍सव वाले स्‍थान पर किया जाए। दूसरी थी कि उत्‍तर क्रिया में सिर्फ वैदिक कर्म ही हों, कोई दिखावा या आडंबर नहीं, तीसरी थी कि मेरी स्‍मृति में कोई स्‍मारक, प्रतियोगिता, पुरस्‍कार, प्रतिमा आदि स्‍थापित न की जाए और अंतिम थी- जो मेरी स्‍मृति में कुछ करना चाहते हैं वे कृपया पौधे रोपने व उन्‍हें संरक्षित कर बड़ा करने का काम करेंगे तो मुझे आनंद होगा। ऐसे ही प्रयत्‍न अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार नदी, जलाशयों के संरक्षण की दिशा में किए जा सकते हैं।
 
कहने को ये सामान्‍य या दिखावटी इच्‍छाएं लग सकती हैं, लेकिन जो लोग अनिल माधव दवे को जानते हैं, वे आपको बताएंगे कि इन शब्‍दों के पीछे खड़ा इंसान अपने कहे या लिखे गए शब्‍दों के प्रति कितना ईमानदार था।
 
आज की चीखती, चिल्‍लाती और आत्‍मप्रचार से बजबजाती राजनीति की दुनिया में अनिल माधव दवे ठीक उस शांत नदी की तरह थे जिसके लिए उन्‍होंने अपना पूरा जीवन खपा दिया। आजीवन अविवाहित रहने वाले दवे ने सांसारिक अर्थों में अपना घर तो नहीं बसाया लेकिन घर के नाम पर जो बसाया भी, उसे नाम दिया- नदी का घर...
 
सचमुच जैसे दवे के भीतर कोई नदी बहा करती थी। फर्क सिर्फ इतना था कि उनके भीतर बहने वाली इस नदी में अदृश्‍य ‘सरस्‍वती’ का हिस्‍सा ज्‍यादा था और उनकी प्रेरणा ‘नर्मदा’ के अल्‍हड़ स्‍वरूप का हिस्‍सा कम। स्‍वयं को प्रगट करने के मामले में वे शायद ‘सरस्‍वती’ के उपासक थे और कर्म के मामले में ‘नर्मदा’ के।
 
एक राजनेता के रूप में बहुत सारे लोग उनके बारे में बहुत सी बातें लिखेंगे, समाज सेवक के रूप में भी उनके बारे में कई बातें कही जाएंगी, लेकिन व्‍यक्ति अनिल माधव दवे के बारे में आपको बहुत कम पढ़ने को मिलेगा। ऐसा इसलिए कि व्‍यक्ति अनिल दवे ने स्‍वयं को कर्म में रूपांतरित कर दिया था। उनका व्‍यष्टि भाव समष्टि भाव में तिरोहित हो गया था। 
 
कहने को दवे राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ के स्‍वयंसेवक थे। लेकिन जब आप उनसे बात करने बैठें तो उनके विचार और उनके तर्क आपको किसी विचारधारा से आतंकित या आक्रांत करते नहीं, बल्कि सहमत होने को विवश करते महसूस होते थे। चाहे अपना राजनीतिक जीवन हो या सामाजिक, दवे के व्‍यक्तित्‍व में दैन्‍य नहीं दृढ़ता परिलक्षित होती थी। आज के आगबबूला माहौल के विपरीत बातचीत के दौरान उनका विश्‍वास तार्किक विमर्श पर होता था झगड़ा, विवाद या बहस पर नहीं। 
 
मुझे नहीं मालूम की उन्‍होंने प्रबंधन की कोई विधिवत शिक्षा ली थी या नहीं, लेकिन जीवन से लेकर कर्मक्षेत्र में उनका प्रबंधन कौशल बेमिसाल था। वे दिखावा करने के आदी नहीं थे, लेकिन चीकट रहना भी उनकी शैली में शुमार नहीं था। जितना सौम्‍य व्‍यकित्‍व प्रकृति ने उन्‍हें दिया था वही सौम्‍यता और अभिजात्‍य शैली उनके पहनावे से लेकर रहन सहन तक में शुमार थी। भोपाल में उनके द्वारा स्‍थापित ‘नदी का घर’ कभी आप जाकर देखें। वहां का साफ सुथरा और शांत माहौल खुद आपको बयां करेगा कि इसे किसने बनाया था और यहां कौन रहा करता था।
 
पत्रकारिता के अपने लंबे कार्यकाल के दौरान मुझे कई नेताओं से मिलने का अवसर मिला। लेकिन अनिल माधव दवे के बारे में मैं कह सकता हूं कि सचमुच उनका व्‍यक्तित्‍व दूसरों से अलग था। सबसे बड़ी बात कि आप उनसे बात कर सकते थे। उनसे बात करने के बाद आप कुछ लेकर ही लौटते थे। ये लेना उन विचारों, तर्कों और विमर्श के निष्‍कर्षों का था जिससे आज की पीढ़ी के नेताओं का बहुत ज्‍यादा लेना-देना नहीं है।
 
अनिल माधव दवे के अवसान ने भाजपा को विपन्‍न किया है। यह विपन्‍नता एक ऐसे व्‍यक्तित्‍व के अवसान से पैदा हुई है जो भीड़ में अलग पहचान रखता था। भाजपा जैसे संगठनों के पास कहने को सैकड़ों नेता या चेहरे होंगे, लेकिन अनिल माधव दवे जैसे चेहरे शायद गिने चुने ही होंगे, जिनकी मौजूदगी ही यह भरोसा दिलाने के लिए पर्याप्‍त थी कि राजनीति में अभी सबकुछ मटियामेट नहीं हुआ है। 
 
ऐसे लोगों का असमय चले जाना, पता नहीं क्‍यों सबकुछ मटियामेट होने का अहसास पैदा कर डराने लगता है...
 
‘नदी का घर’ और हम सब आपको बहुत याद करेंगे अनिलजी...