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सावरकर और गांधी के संबंधों पर प्रश्न उठाने वाले सच्चाई देखें

सावरकर और गांधी के संबंधों पर प्रश्न उठाने वाले सच्चाई देखें - Veer sawarkar, nathuram godse, mahatma Gandhi
वीर सावरकर या उनके जैसे दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों ने कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके देश के लोग ही कभी उनके शौर्य, वीरता और इरादे पर प्रश्न उठाएंगे।

वीर सावरकर के साथ त्रासदी यही है कि वैचारिक मतभेदों के कारण एक महान स्वतंत्रता सेनानी, योद्धा, समाज सुधारक, लेखक, कवि, इतिहासकार को कायर और अंग्रेजों का भक्त साबित करने की ह्रदय विदारक कोशिश हो रही है।

यह समझ से परे है कि अगर सावरकर के बारे में सच्चाई देश के सामने आ जाए तो उससे क्या समस्या आ जाएगी? क्या सावरकर का कद बढ़ेगा, उससे महात्मा गांधी या अन्य मनीषियों का कद छोटा हो जाएगा? कतई नहीं। जिन लोगों ने शोध नहीं किया, इतिहास ठीक से नहीं पड़ा वे भी सावरकर का नाम आते ही कूद जाते हैं, जिसमें असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग हैं।

अजीब- अजीब प्रश्न उठाए जा रहे हैं। कोई कहता है कि गांधीजी तो 1915 में भारत आए और सावरकर ने 1913 में माफीनामा लिखा फिर गांधी जी ने उनको कब सलाह दे दी? ये लोग एक बार गांधी वांग्मय के उन अंशों को पढ़ लेते तो समस्या नहीं होती।

सच यही है कि महात्मा गांधी स्वयं सावरकर के प्रति सम्मान और स्नेह का भाव रखते थे तथा उन्होंने अपनी ओर से दोनों सावरकर बंधुओं को अंडमान सेल्यूलर जेल से रिहा कराने की भरपूर कोशिश की।

जो लोग एक माफीनामा, दो माफीनामा की बात कर रहे हैं उनको यह ध्यान दिलाना आवश्यक है कि वीर सावरकर ने 6 बार रिहाई के लिए अर्जी दायर की। इसमें 1911 से 1919 तक पांच बार तथा महात्मा गांधी के सुझाव पर 1920 में एक बार। 30 अगस्त, 1911 को सावरकर ने पहला माफीनामा भरा, जिसे अंग्रेज सरकार ने तीन दिनों बाद ही खारिज कर दिया।

दूसरी याचिका उन्होंने 14 नवंबर, 1913 को लगाई वह भी खारिज हो गई। इस तरह उनकी चार याचिकाएं खारिज हुई। 1919 में अंग्रेजों ने जॉर्ज पंचम के आदेश पर भारतीय कैदियों की सजा माफ करने की घोषणा की।

अंग्रेजों ने कहा कि चूंकि प्रथम विश्व युद्ध में भारत के लोगों ने उनका पूरा साथ दिया है इसलिए वे राजनीतिक कैदियों की रिहाई कर रहे हैं। यह अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को दिया गया तोहफा था। कालापानी यानी अंडमान जेल से भी काफी कैदी रिहा हुए, लेकिन इसमें विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर का नाम नहीं था।  इस पर उनके छोटे भाई नारायणराव सावरकर ने महात्मा गांधी को लिखे पत्रों में से 18 जनवरी, 1920 के अपने पहले पत्र में सरकारी माफी के तहत अपने भाइयों की रिहाई सुनिश्चित कराने के संबंध में सलाह और मदद मांगी थी।

इसमें लिखा था, ‘कल (17 जनवरी) को मुझे सरकार की ओर से सूचना मिली कि रिहा किए गए लोगों में सावरकर बंधुओं का नाम नहीं है। स्पष्ट है कि सरकार उन्हें रिहा नहीं कर रही है। कृपया, आप मुझे बताएं कि ऐसे मामले में क्या करना चाहिए? वे पहले ही अंडमान में 10 साल की कठोर सजा काट चुके हैं। उनका स्वास्थ्य भी गिर रहा है। आप इस मामले में क्या कर सकते हैं, उम्मीद है अवगत कराएंगे…।’

एक सप्ताह बाद यानी 25 जनवरी, 1920 को गांधी जी ने उत्तर में  लिखा था, ‘प्रिय डॉ. सावरकर, मुझे आपका पत्र मिला। आपको सलाह देना कठिन लग रहा है, फिर भी मेरी राय है कि आप एक विस्तृत याचिका तैयार कराएं, जिसमें मामले से जुड़े तथ्यों का जिक्र हो कि आपके भाइयों द्वारा किया गया अपराध पूरी तरह राजनीतिक था। जैसा कि मैंने आपसे पिछले एक पत्र में कहा था मैं इस मामले को अपने स्तर पर भी उठा रहा हूं।

गांधी जी ने 26 मई, 1920 को यंग इंडिया (महात्‍मा गांधी: कलेक्‍टेड वर्क्‍स, वॉल्‍यूम 20, पृष्ठ 368) में लिखा, 'भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के चलते, कई कैदियों को शाही माफी का लाभ मिला है। लेकिन कई प्रमुख राजनीतिक अपराधी हैं, जिन्‍हें अब तक रिहा नहीं किया गया है।

मैं इनमें सावरकर बंधुओं को गिनता हूं। वे उसी तरह के राजनीतिक अपराधी हैं, जैसे पंजाब में रिहा किए गए हैं और घोषणा के प्रकाशन के पांच महीने बाद भी इन दो भाइयों को अपनी आजादी नहीं मिली है।' एक और पत्र (कलेक्‍टेड वर्क्‍स ऑफ गांधी, वॉल्‍यूम 38, पृष्ठ 138) में गांधी जी ने लिखा, 'मैं राजनीतिक बंदियों के लिए जो कर सकता हूं, वो करूंगा। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं डर की वजह से चुप रह गया हूं। राजनीतिक बंदियों के संबंध में, जो हत्‍या के अपराध में जेल में हैं, उनके लिए कुछ भी करना मैं उचित नहीं समझूंगा।

मैं इस बिंदु पर बहस नहीं करूंगा। हां, मैं भाई विनायक सावरकर के लिए जो बन पड़ेगा, वो करूंगा।' गांधी जी और सावरकर के बीच भी पत्र व्यवहार के प्रमाण हैं। ये बताते हैं कि दोनों के बीच संपर्क और संबंध थे। सावरकर के बड़े भाई के निधन के बाद 22 मार्च, 1945 को सेवाग्राम से लिखे एक पत्र (कलेक्टेड वर्क्‍स ऑफ गांधी, वॉल्‍यूम 86, पृष्‍ठ 86) में गांधी जी ने लिखा, 'भाई सावरकर, मैं आपके भाई के निधन का समाचार सुनकर यह पत्र लिख रहा हूं।

मैंने उसकी रिहाई के लिए थोड़ी कोशिश की थी और तबसे मुझे उसमें दिलचस्‍पी थी। आपको सांत्‍वना देने की जरूरत कहां हैं? हम खुद ही मौत के पंजों में हैं। मैं आशा करता हूं कि उनका परिवार ठीक होगा।'

जो लोग यह मानने को तैयार नहीं कि गांधीजी ने सावरकर के लिए कोशिश की होगी, उन्हें यंग इंडिया का लेख पूरा पढ़ना चाहिए। इसमें सावरकर जी के बारे में गांधी जी लिखते हैं, 'दूसरे भाई को लंदन में कैरियर के लिए जाना जाता है। पुलिस हिरासत से भागने की सनसनीखेज कोशिश और फ्रांसीसी समुद्री सीमा में पोर्टहोल से कूदने की बात अभी तक लोगों के जेहन में ताजा है।

उसने फर्ग्‍युसन कॉलेज से पढ़ाई की, फिर लंदन में बैरिस्‍टर बन गया। वह 1857 की सिपाही क्रांति के इतिहास का लेखक है। 1910 में उस पर मुकदमा चला था और 24 दिसंबर, 1910 को भाई के बराबर ही सजा मिली। 1911 में उस पर हत्‍या के लिए उकसाने का आरोप लगा। उसके खिलाफ हिंसा का कोई आरोप साबित नहीं हुआ। वह भी शादीशुदा है, 1909 में एक बेटा हुआ। उसकी पत्‍नी अब भी जिंदा है।' गांधी जी ने लिखा कि वायसराय को दोनों भाइयों को उनकी आजादी देनी ही चाहिए अगर इस बात के पक्‍के सबूत न हों कि वे राज्‍य के लिए खतरा बन सकते हैं। गांधीजी का कहना था कि जनता को यह जानने का हक है कि किस आधार पर दोनों भाइयों को कैद में रखा जा रहा है।

जो लोग आज प्रश्न उठा रहे हैं वे एक बार सोचे कि गांधीजी ने क्यों इतनी कोशिश की और यह सब लिखा? सावरकर और महात्मा गांधी लंबे समय से एक-दूसरे को जानते थे। गांधीजी की लंदन में 1906  तथा 1909 में सावरकर से मुलाकात हुई थी। तब सावरकर वहां इंडिया हाउस हॉस्टल में रहकर बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी कर रहे थे। गांधी जी से उनकी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्र आंदोलन तथा बाद की व्यवस्था पर गंभीर चर्चा हुई थी। सावरकर मांसाहारी थे और उन्होंने गांधीजी के लिए वही भोजन बनाया था।

गांधीजी वैष्णव थे इसलिए मांस देखकर परेशान हो गए। सावरकर ने उन्हें कहा था कि इस समय तो ऐसे भारतीय चाहिए जो अंग्रेजों को कच्चा खा जाएं और आप तो मांस से ही घबराते हैं। हिंसा और अहिंसा को लेकर दोनों की बहस हुई थी। गांधीजी ने वहीं से गुजरात वापसी के दौरान समुद्री जहाज पर हिंद स्वराज की रचना की जिसमें वे स्वयं संपादक और पाठक के रूप में प्रश्न करते हैं और उत्तर भी देते हैं।

इसमें अन्य लोगों से भी उनकी मुलाकात का योगदान होगा लेकिन सावरकर से बहस का भी इसमें बड़ा योगदान था। बाबा साहब अंबेडकर भी वीर सावरकर का नाम सम्मान से लेते थे। वास्तव में यह बताता है कि वर्तमान राजनीति और वैचारिक खेमेबंदी के विपरीत उस समय व्यापक वैचारिक मतभेद होते हुए भी नेताओं के बीच एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव था।

सावरकर गांधी जी की अहिंसक नीति के आलोचक थे, उनके कई निर्णयों पर उन्होंने प्रश्न उठाया लेकिन कभी उनके विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी नहीं की। एक उन्मादी और सिरफिरे द्वारा गांधी जी की हत्या में उनका नाम घसीटा गया। उस समय भीड़ ने उनके छोटे भाई पर हमला किया, पत्थर मारे। इससे उनको इतनी चोट आई कि आगे उनकी मृत्यु हो गई। 

जरा सोचिए, कितनी बड़ी त्रासदी थी। न सुप्रीम कोर्ट ने उनको दोषी माना, न कपूर आयोग ने। अगर वे दोषी थे तो फिर रिहा कैसे हो गए? नाथूराम गोडसे हिंदू महासभा का सदस्य रह चुका था, लेकिन वह सावरकर को लानत भरे पत्र भेजता था। ये पत्र इस बात के प्रमाण थे कि सावरकर का गांधीजी की हत्या से दूर-दूर तक लेना नहीं था। जिस व्यक्ति से उनके ऐसे पत्र व्यवहार हो रहे हो उसकी वे हत्या कराने की कोशिश करेंगे ऐसी सोच ही शर्मनाक है।

सावरकर को एक 11 जुलाई 1911 को अंडमान जेल लाया गया और उनकी रिहाई 6 जनवरी 1924 को हुई। जिस व्यक्ति ने 12 वर्ष से ज्यादा काला पानी में बिताया तथा 23 वर्ष तक अंग्रेजों की निगरानी झेली उसका सम्मान होना ही चाहिए। जिसे माफीनामा कहा जा रहा है वह एक फार्म था जिसका उपयोग स्वतंत्रता सेनानी रिहाई के आवेदन के रूप में करते थे। सावरकर का मानना था कि अंग्रेजों की जेल में रहकर सड़ने से किसी का भला नहीं है। इसलिए हर हाल में बाहर आकर जितना संभव हो राष्ट्र, धर्म और समाज के लिए काम किया जाए। आखिर उन्हें दो काला पानी की सजा मिली थी जो इतिहास में दुर्लभ है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)
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