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सेंटअप कैंडिडेट का उपन्यास प्रेम

सेंटअप कैंडिडेट का उपन्यास प्रेम - tribute to Ved Prakash Sharma
सुबह-सुबह पता चला वेद प्रकाश शर्मा नहीं रहे। नब्बे का दशक याद आ गया। इधर तो उनका लिखा कुछ पढ़ा नहीं। पर जब पढ़ता था तो शिद्दत से। लेकिन बाद में पता चला कि साहित्य और साहित्यिक उपन्यास दोनों दृष्टि से वो दोयम माने जाते हैं।  हालांकि आज तक समझ नहीं सका। क्यों...? 
 
किसी ने मुझसे कहा था कि हिन्दी ठीक ठाक लिखते हो पर हिन्दी उपन्यास पढ़ा करो। जब मैंने बताया कि खून भरी मांग, वर्दी वाला गुंडा, कांटो का गजरा जैसे कई उपन्यास पढ़ चुका हूं। तो हंसने लगा। यह 1997-98 की बात है। मुजफ्फरपुर के गांव से नॉर्थ कैम्पस में लैंड होने के बाद। दरअसल ये सारे उपन्यास तो हम सेंटअप कैंडिडेट और मैट्रिक के रिजल्ट का इंतजार करते-करते निपटाए थे। 
 
दसवीं में अभ्यास परीक्षा के बाद स्कूल बंद हो जाता था। अब भी ऐसे स्टूडेंट को सेंटअप कैंडिडेट कहते हैं। हमने जानने की कोशिश भी नहीं की ऐसा क्यों कहते हैं। या इसका कोई सही शब्द है जिसका अप्रभंश हम चलाते हैं। तो पहली बार 1993 में बतौर सेंटअप कैंडिडेट शुरुआत वेद प्रकाश शर्मा से हुई थी। 
 
रत्तन चाचा ने इसमें काफी मदद की। वो भाड़ा पर लाते थे। हफ्ते का दो रूपया। हमने उन्हीं से लिया था। लेकिन शुरुआती कुछ पन्नों के बाद बाबा ने सिरहाने में उपन्यास देख लिया। उस दिन जिल्द हट गया था। बहुत डांट खाए। तब पता चला कि गांव में सारे उपन्यास पढ़ने वाले निठल्ले माने जाते हैं। ताश और उपन्यास निठल्लों का काम है। ऊपर से मैट्रिक की तैयारी के इसे पढ़ने के कारण हम और फंस गए थे। हालांकि निपटाना तो था ही। नशा जैसा मामला था। तो रात को डिबिया के सहारे पढ़ते थे। कई बार उपन्यास पैंट में खोंस कर गाछी चले जाते। ताकि डिस्टर्बेंस न हो। 
 
सरला रानू और वेद प्रकाश फेवरिट हो गए थे। मैट्रिक की परीक्षा के बाद मई-जून 1993 में रोजाना एक निपटाते थे। ये सिलसिला इंटर तक भी कमोबेश चलता रहा। 
 
तो जब नॉर्थ कैंपस में वो दोस्त हंसने लगा तो उसमें भी मुझे बाबा की छवि दिखाई दी। मानो मेरा इतिहास साहित्यिक दृष्टि से अपराध भरा हो। फिर एक दिन मैंने अपने दोस्त संजय सिंह से पूछा कि हिन्दी उपन्यास पढ़ना है... किससे शुरुआत करूं, तो ' शेखर एक जीवनी' पढ़िए, है मेरे पास, मैंने लिया। शुरुआत की। पर वो बात कहां.... लग रहा था जैसे छवि बदलने के लिए जबरन पढ़ रहा हूं.. .. मजबूरी है... बताना है कि हम ये भी पढ़ते हैं। निपटाने में दस दिन लग गए। 
 
खैर, मेरा मतलब ये नहीं कि कथित गैर दोयम सारे साहित्य बोझिल होते हैं। बाद के दिनों में ऐसा महसूस भी हुआ। लेकिन हिन्दी के प्रसार और लोकप्रियता के पैमाने पर मेरठ स्कूल के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। 
 
वेद प्रकाश जी को मेरी श्रद्धांजलि.....