शनिवार, 27 अप्रैल 2024
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नास्तिकता कौन-सी नई है...

नास्तिकता कौन-सी नई है... - Swami Balendu
वृन्दावन में 14-15 अक्टूबर को नास्तिक सम्मेलन में स्वामी बालेन्दु ऐसे कौन-से तर्क-तथ्य दे-देते जो दयानन्द सरस्वती नहीं दे सके थे। यह तो पता लगाना ही था, लेकिन अवसर खो दिया गया। कुछ लोग हीरो बनने या किसी की आंखों का तारा बनने के चक्कर में जोश में होश खो-बैठते हैं।

साफ  जाहिर है कि बालेन्दु स्वामी चतुर निकले और खुद ही आयोजन रद्द करके कहीं अधिक अपने प्रायोजन को सफल बना गए। उनका विरोध नहीं होता और आयोजन हो जाता तो शायद ही किसी को पता चलता लेकिन विरोध से उन्हें अकल्पित प्रचार प्राप्त हो गया।
 
इस देश के हर गली-नुक्कड़ और घर-घर में आए दिन धर्म संबंधी बातों की जिरह होती रहती है। प्रश्न होते हैं, कौतुहल होता है, तर्क होते हैं और उनमें यही सब होता है जिसे नास्तिकता कहा जाता है। जैसे पत्थर तैरते हैं क्या? नाभि में अमृत कैसे? ईश्वर सर्वत्र है तो पूजा-प्रार्थना के घर क्यों? इत्यादि आम भारतीयों के कॉमन प्रश्न हैं जो सदियों से चले आ रहे हैं। इनसे न कोई नाराज होता है और न ही नास्तिकता फैलती है। यदि ऐसा होता तो देश अभी तक फूल-फाल नास्तिकों से भरा होता। मूल बात यह है कि खाते-पीते व्यक्ति को प्रश्न सूझते हैं, जिसके सामने हर घड़ी रोजी-रोटी की चिंता खड़ी हो उससे पूछिए की असल में ईश्वर क्या है, उस गरीब को तो हर सांस में प्रभु याद आते हैं।
 
पीके फिल्म में भी वहीं बाते थी जो बरसों से जनसामान्य, मीडिया, अखबार में चर्चा में रहती आई है। उसमें न कुछ नया था न ही जड़ता पर बहुत सशक्त प्रहार था। फिल्म का प्लाट पढ़े-लिखे लोगों के लिए लिखा गया था जो आमजन को आसानी से समझ भी नहीं आता। ये बात हिरानी एंड कम्पनी समझ गई थी तो बडी़ चतुराई से प्लाट को मीडिया/नेटवर्क पर फैला कर हाइप बनाया गया फिर रही-सही कसर लठ्ठ लेकर पैदल चलने वालों ने पूरी कर दी और हिरानी के प्रचार का पैसा बचाया सो अलग। फिल्म का विरोध या दु:ख करने लायक बात तो फिल्म के अंत में कहीं गई थी कि 'वो झूठ सीख कर गया है'.... !
 
फिल्म 'गदर' के समय भी यही हुआ था। एक सामान्य और अतिश्योक्ति से भरी फिल्म। लेकिन भोपाल के लिली टाकीज पर चढ़ कर पोस्टर फाड़ने की घटना से फिल्म राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण नजर आने लगी थी, जो फिल्म की सफलता को ऐतिहासिक बनाकर ही उतरी।
 
एक निवेदन है भाई लोग! थोडा ठहरा करो यार!  क्यों आंख मून्द कर दौड़ लगा देते हो! हम अति व्यावसायिक युग में सांस ले रहे हैं, आपके लठ्ठ लेकर दौड़ लगाने की सहज प्रक्रिया से लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे है और जेब भी भर रहे है...।