मोहन भागवत के सुझावों का क्या करेंगे?
भाजपा एवं मोदी सरकार के अंदर इस समय नीतियों एवं व्यवहार को लेकर बहस चल रही है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने जो लेख लिखा उसकी भाषा ऐसी नकारात्मक थी कि उसका कोई सकारात्मक संदेश मोदी सरकार या भाजपा के अंदर नहीं गया। कुछ बातें सच होते हुए भी यशवंत सिन्हा अपने लेख में एक अर्थशास्त्री से ज्यादा राजनीतिज्ञ नजर आते हैं। उसमें वित्त मंत्री अरुण जेटली पर निशाना था। अरुण जेटली ने उसका जो जवाब दिया वह भी विषय की बजाय व्यक्तिकेन्द्रित हो गया एवं उससे एक तू-तू-मैं-मैं की स्थिति बनी। उसके बात यशवंत सिन्हा को भी प्रतिक्रिया देनी पड़ी। दोनों के बीच के वाकयुद्ध ने बड़ा ही अप्रिय दृश्य उत्पन्न किया है।
मोदी सरकार के गठन के इन तीन वर्ष पांच महीनों में पार्टी के अंदर से ऐसा विवाद कभी नहीं उठा था। आम धारणा यही है कि अरुण जेटली को या तो जवाब नहीं देना चाहिए था या देना भी था तो जो वित्त से जुड़े पहलू हैं उन पर फोकस करना चाहिए था। सच कहा जाए तो मीडिया एवं भाजपा विरोधियों के लिए यशवंत सिन्हा की बातों का जितना महत्व हो, सरकार एवं भाजपा के लिए यह आई-गई जैसा मामला बनकर रह गया है।
किंतु इसी बीच संघ स्थापना के अवसर यानी विजयादशमी के वार्षिक संबोधन में सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी अर्थनीति को लेकर कुछ बातें कहीं हैं, सरकार या भाजपा उसे इस तरह नजरअंदाज नहीं कर सकती जिस तरह यशवंत सिन्हा की बातों का किया है। भागवत ने देश के समक्ष उपस्थित सारे ज्वलंत मुद्दों पर अपनी बातें रखीं जैसा आम तौर पर वार्षिक संबोधनों में होता है। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि गोरक्षा को धर्म से न जोड़ें। उन्होंने गोरक्षा के नाम पर हिंसा का विरोध किया तथा हिंसा करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का भी पक्ष लिया। डोकलाम विवाद को सम्मानजनक तरीके से निपटाने की भी उन्होंने प्रशंसा की और कहा कि इससे दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। भागवत ने कश्मीर में सुरक्षा बलों को पूरी आजादी देने से आतंकवाद की कमर टूटने की बात भी कही। रोहिंग्या मुद्दे पर भी उन्होंने संघ का रुख स्पष्ट किया कि उनको यहां रहने की अनुमति देने के बाद देशवासियों को रोजगार के अवसर कम होंगे एवं सुरक्षा जोखिम बढ़ेगा। यह सरकार की नीतियों का ही समर्थन था। कुल मिलाकर इन बातों से ऐसा लगता है कि मोहन भागवत ने सरकार की पीठ जरा ठीक से थपथपाई है।
किंतु इन सबसे परे उन्होंने आर्थिक मोर्चे पर ज्यादा बातें कहीं। वो ऐसी बातें हैं जिन्हें आप पूरे संगठन परिवार और देश के बहुमत की आवाज मान सकते हैं। यशवंत सिन्हा ने जो मामले उठाए वे एक व्यक्ति पर तीखे हमले जैसे थे इसलिए उनको ज्यादा समर्थन नहीं मिला। लेकिन भागवत ने जो कुछ कहा वह सुझाव के रुप में है। उनका साफ कहना था कि आर्थिक नीतियां बनाते समय जनता से फीडबैक अवश्य लिया जाए। यह बहुत बड़ी बात है। जनता से फीडबैक लेकर आज तक किसी सरकार ने आर्थिक नीतियां नहीं बनाईं। जब 1991 में भारत की अर्थनीति बदली गई तब भी जनता या उनके प्रतिनिधि संगठनों से विचार-विमर्श नहीं किया गया। उसके बाद से सारी सरकारें मनमाने तरीके से आर्थिक नीतियां बनातीं रहीं हैं। सरकार भागवत के इस सुझाव या दिशा निर्देश को किस तरह क्रियान्वित करेगी यह देखने वाली बात होगी। यह सुनने में जितना आसान है उसे पूरा करना उतना ही कठिन है। संघ परिवार के कई घटक भी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर समय-समय पर सुझाव दे रहे हैं। अभी हाल ही में भाजपा ने राजधानी दिल्ली में एक बड़ी बैठक का आयोजन किया। नाम तो उसे कार्यकारिणी का दिया गया लेकिन उसमें भाजपा के सारे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों तथा प्रमुख कार्यकर्ताओं को बुलाया गया था। इस तरह की बैठक पहले भाजपा ने कभी नहीं की थी। जाहिर है, इसका भी कुछ निश्चित उद्देश्य था। इसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषणों में कुछ बातें साफ थी। मसलन, शाह ने अगले लोकसभा चुनाव के 350 सीटों के लक्ष्य को पूरा करने के लिए बूथ स्तर तक जाने की योजना दी तो मोदी ने कार्यकर्ताओं से सरकारी कार्यकम को जनता से जोड़ने का कार्यक्रम दिया। मोदी ने कार्यक्रमों में जनभागीदारी की बात कही।
इन दोनों बातों में जनता से सीधे संपर्क की बातें शामिल थीं। जाहिर है, आप पार्टी के प्रचार या सरकार के कार्यक्रमों को लेकर जनता के बीच जाएंगे तो वहां आपको फीडबैक भी मिलेगा। किंतु यह फीडबैक सरकार तक पहुंचे और इसका संज्ञान लिया जाए इसकी प्रणाली क्या होगी? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। भाजपा के करीब चार लाख कार्यकर्ता इस समय बूथों तक पहुंच रहे हैं। कहा गया है कि कुछ ही दिनों में वे करीब सात लाख बूथों तक पहुंच जाएंगे। क्या वहां से सरकार की नीतियों से संबंधित भी कुछ फीडबैक आ रहे हैं? क्योंकि जनता की प्रतिक्रियाएं तो मिलती ही होंगी। प्रधानमंत्री का यह कहना सही है कि सरकारी योजनाएं केवल सरकारी मशीनरी तक न रहे, तथा केवल चुनाव के समय हम जनता तक न जाएं बल्कि लगातार उनको जोड़े रखें। इसी से जनता का फीडबैक मिलेगा एवं सरकार अपनी नीतियों में सुधार कर सकती है। साफ है कि प्रधानमंत्री को इसके लिए बाजाब्ता ढांचा बनाने की पहल करनी चाहिए जहां फीडबैक पहुंचे। जनता क्या सोचती है यदि सरकार के नीतिकारों को इसका पता नहीं है तो फिर वे वैसी नीतियां बनाते हैं जो जनता के मनोनुकूल नहीं हों और उनका विपरीत असर भी हो सकता है। इस समय देश में मोदी सरकार की अर्थनीति एवं देश की आर्थिक स्थिति को लेकर जो बहस चल रही है उसमें यह पहलू महत्वपूर्ण हो जाता है।
भागवत ने कुछ बातें साफ कहीं हैं जिन्हें सरकार जनता का फीडबैक मान सकती है। जैसे उन्होंने कहा है कि आर्थिक मोर्चे पर ज्यादा सतर्कता की आवश्यकता है। तो क्या वे मानते हैं कि आर्थिक नीतियां बनाते समय जितनी सतर्कता बरती जानी चाहिए थी उसमें कमी रह गई है? भागवत कह रहे हैं कि आर्थिक नीतियां बनाते समय जमीनी हकीकत का ध्यान रखें, व्यवहारिक सोच अपनाएं। इसका अर्थ हम अपने अनुसार निकाल सकते हैं। उन्होंने सीधे-सीधे सरकार की आलोचना नहीं की है लेकिन अगर वे अर्थनीति में बदलाव का सुझाव दे रहे हैं तो साफ है कि उनके पास जो फीडबैक है उसमें जनता की ओर से ऐसी मांग है। जैसे उन्होंने ऐसी अर्थनीति की बात की है जिसमें सिर्फ बड़े उद्योगपतियों के फायदे न हों बल्कि मझोले और छोटे कारोबारियों तथा किसानों के हितों का भी पूरा ख्याल रखा जाए। इसके साथ उन्होंने अर्थनीति में रोजगार सृजन एवं उचित पारिश्रमिक को भी प्राथमिकता देने की बात कही है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि मोदी सरकार की अर्थनीति को लेकर चल रही बहस के केन्द्र में ये विषय ही हैं - किसान, कृषि, मंझोले एवं छोटे उद्योग तथा रोजगार। कह सकते हैं कि भागवत ने उसका संज्ञान लिया तथा इसे सार्वजनिक वक्तव्य के माध्यम से सरकार तक पहुंचाया है। उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इसे जनता का फीडबैक मानकर इसके अनुरुप बदलाव लाने की कोशिश करेगी। ऐसा तो नहीं हो सकता कि सरसंघचालक की बातों को सरकार या पार्टी पूरी तरह नजरअंदाज कर दे, किंतु यदि उन्हें लगता है कि इस दिशा में काम नहीं हो रहा है तो फिर उन्हें इसके लिए दबाव बनाने की कोशिश करनी होगी।