हिंदी पत्रकारिता दिवस: अगर ये बातें सही हैं तो फिर पत्रकारों के बारे में आपको अपना नजरिया बदलना होगा
पत्रकारों पर अक्सर दरबारी और सरकारी बनने का आरोप लगता रहा है। कभी उन्हें भ्रष्ट कहा गया तो कभी लोगों, मुद्दों और घटना को लेकर संवेदनहीन और क्रूर।
पिछले कुछ सालों में पत्रकार और पत्रकारिता का स्वरुप बदल गया है। इसकी परिभाषा और उदाहरण भी।
जिन लोगों ने ताउम्र सिध्दांतों पर पत्रकारिता की प्रैक्टिस की वे अब ‘आउटडेटेड’ हो गए। नई पत्रकारिता या न्यू मीडिया में वे अब ‘मिसफिट’ हो गए हैं। अब संपादकों की जगह मैनेजर ने ली है जो अखबार या न्यूज चैनल भी चला सके, टीआरपी ग्राफ या रीडरशिप भी बनाए रखे और कमर्शियल ग्रोथ को भी मैंटेन कर ले। इन सभी बातों पर अलग से बहस या विमर्श किया जा सकता है। लेकिन इन सब के बावजूद एक पत्रकार लगातार शोषित वर्ग और सबसे अंतिम पंक्ति के आदमी की आवाज बनता रहा है। व्यावसायिक और सामाजिक स्तर पर हर बार एक पत्रकार की जरूरत पड़ती रही है।
इसके कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। जब कोई बाहुबल किसी गरीब को सताता है तो वह पत्रकार ही होता है जो सबसे पहले उसकी आवाज बनता है। जब सरकारी बाबू आपके काम में अड़ंगा डालता है तो पत्रकार ही वो शख्स है जो उस गरीब की फाइल को आगे बढवाता है। जिस जर्जर और गड्डों से भरी सड़क पर आप रोज चलते हुए उसके ठेकेदार को कोसते हैं उसकी गुणवत्ता में खामियां आपके शहर का लोकल पत्रकार ही सबके सामने लेकर आता है।
डोमेस्टिक वॉयलेंस हो या आपके बच्चे के साथ स्कूल में मानसिक प्रताड़ना हो। आपको सबसे पहले पत्रकार ही याद आता है।
ओलावृष्टि में मारी गई किसान की फसल का मुआवजा हो या अस्पताल में डॉक्टरों की लापरवाही। सरकारी योजना की जानकारी हो या थानों में पुलिस की मनमानी। इन सभी में आपकी आवाज के लिए एक पत्रकार की ही याद आती है। इस कोरोना काल में पल-पल की अपडेट ब्रैकिंग और सूचनाओं के लिए भी इसी पत्रकार ने आपके लिए अपनी जान को दांव पर लगा रखा है।
अगर आपको लगता है पत्रकारों के बारे में कही गई ये यह सारी बातें गलत हैं तो फिर आप पत्रकारों के बारे में जैसा सोचते रहे हैं वैसा सोचना जारी रखें लेकिन यह बातें अगर सही लगती हैं तो पत्रकारों के बारे में हमें अपने नजरिये को निश्चित तौर पर बदलने की जरूरत है।
नोट: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।