गलवान घाटी में शहीद हुए जवानों के सामने पूरा देश सिर झुका रहा है। देश में एक साथ गम, गर्व और गुस्से का माहौल है। गम अपने जवानों के खोने का। गर्व इस पर कि उन्होंने अपनी बलि देकर भी चीनी सैनिकों के दांत खट्टे किए और समाचारों के अनुसार काफी संख्या में उनको भी हताहत कर भारतीय जमीन पर कब्जे की उनकी कोशिश को विफल कर दिया। और गुस्सा इस पर कि चीन लगातार अपनी विस्तारवादी नीति के तहत धोखेबाजी कर रहा है और हम बातचीत के उसके राग पर विश्वास कर लेते हैं।
यह बात साफ हो गई है कि चीन ने फिर अपने चरित्र के अनुरूप धोखे से भारतीय जवानों पर हमला किया। वार्ता में चीनी फौज पीछे हटने पर सहमत दिख रही थी लेकिन अंदर ही अंदर उन्होंने गलवान और श्योक नदी के संगम के पास प्वाइंट-14 चोटी पर कब्जे की साजिश रच रखी थी। अभी तक की सूचना के अनुसार दिन में चीनी सेना वार्ता के दौरान पीछे हटने पर सहमत हो गई थी लेकिन रात में उन्होंने चोटी पर कब्जे के लिए क्षेत्र की तारबंदी आरंभ कर दी। इसकी जानकारी मिलते ही 16 बिहार रेजिमेंट के कमांडिंग अफसर कर्नल संतोष बाबू अपने जवानों के साथ चीनी सेना को रोकने गए। इसमें हथियार लेकर जाने का उन्हें कोई कारण नजर नहीं आया। किंतु चीनी सैनिक पहले से पत्थरों, हथौड़ियों, लोहे के रॉड, कंटीले तारों आदि के साथ तैयार थे और उन्होंने हमला कर दिया।
भारतीय जवानों ने पहाड़ी पर चढ़ते हुए चीनी सैनिकों का निहत्थे मुकाबला किया। इस दौरान कुछ सीधी भिड़ंत में हताहत हुए तो दोनों ओर के कई जवान नीचे बर्फीले पानी से लबालब दरिया में गिरे। ध्यान रखिए, इन जवानों ने बिना हथियार के जूझते हुए जानें दी लेकिन प्वाइंट-14 पर कब्जे की चीन की साजिश को नाकाम कर दिया। चीन के अंदर की खबरें मिलना मुश्किल है लेकिन एजेंसियों की खबरे बता रहीं हैं कि 20 भारतीय जवानों के मुकाबले उनके 43 सैनिकों को जान गंवानी पड़ी और कुछ घायल भी हुए। अब तो अमेरिका ने भी पुष्टि कर दी है कि उनके सैनिक भारी संख्या में हताहत हुए हैं। चीनी सैन्य हेलिकॉप्टरों को वहां से घायल जवानों को एअरलिफ्ट करते देखा गया है।
आगे क्या होगा इसका निश्चयात्मक पूर्वानुमान हम अभी नहीं लगा सकते और लगाना भी नहीं चाहिए। किंतु जो देश अपने को महाशक्ति बनाने का सपना पाले हुए है उसके सैनिक इस तरह का कायरतापूर्ण और शर्मनाक आचरण कर सकते हैं इस पर सहसा दुनिया के लिए विश्वास करना कठिन है। हमने कब सुना है कि किसी महाशक्ति के जवान कंटिले तारों, कील लगे डंडो, पत्थरों आदि से और वह भी धोखा देकर हमला करे? यह किसी देश के लिए शर्म का विषय है। चीन चाहे जितना प्रोपोगांडा फैला ले कि भारत ने एकपक्षीय कार्रवाई की, उसने उत्तेजनापूर्ण तरीके से चीनी जवानों पर हमला किया, भारत एकतरफा माहौल न बिगाड़े आदि आदि विश्व के प्रमुख देश इसे स्वीकार नहीं करने वाले। विश्व में भारत की और भारतीय सेना की साख और विश्वसनीयता इतनी है कि चीन गलत आरोपों से उसे कमजोर नहीं कर सकता। इसके विपरीत चीनी सेना की साख दुनिया में बिल्कुल नहीं है।
चीनी नेतृत्व की विस्तारवादी सोच और उसे अंजाम देने के लिए चीन की सेना यानी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की उदण्डता को विश्व समुदाय लंबे समय से देख रहा है। अकेला भारत के साथ उसके सीमा विवाद नहीं हैं।
ये बातें यहां रखने की आवश्यकता इसलिए है कि हमारे देश में ही कुछ लोग इससे चिंतित हो जाते हैं कि चीनी दुष्प्रचार का जवाब नहीं देने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शायद हम कमजोर पड़ जाएं। ऐसा नहीं है। आज चीन के साथ खड़ा होने वाला विश्व में कोई प्रमुख देश नहीं है।
चीन की सैनिकों की संख्या और उनके अस्त्र-शस्त्र पर मत जाइए। पूर्वी लद्दाख के इलाके में वह कमजोर है और इसीलिए वहां उसकी हरकतें हमारे सामने आतीं रहतीं हैं। जिस प्वाइंट-14 पर वर्तमान संघर्ष हुआ वह गलवान नदी और श्योक दरिया के संगम के पास एक चोटी है। आप कल्पना कर सकते हैं कि 14 हजार फीट ऊंची घाटी पर शून्य से भी कम तापमान में आमने-सामने की भीड़ंत में क्या हुआ होगा! अपने जवानों की वीरता देखिए। इनको पता भी नहीं था कि हमला होने वाला है जबकि दूसरी ओर से पूरी तैयारी थी। उसमें इन्होंने ऐसी वीरता दिखाई जिसकी पुष्टि अमेरिका ने भी कर दिया है।
चीनियों को यह कल्पना भी नहीं रही होगी कि भारत के निहत्थे सैनिकों को इतना प्रशिक्षण रहता है कि अगर विकट परिस्थिति में आमने-सामने की भिड़ंत हो जाए या धोखे से भारी संख्या में दुश्मन घेर लें तो उनसे कैसे निपटा जाए। इसलिए भारत में राजनीतिक बयानबाजी पर मत जाइए। हमारे जवानों ने इतिहास रच दिया है। चीन को दुस्साहस करने से पहले सौ बार सोचना होगा। चीन को भी समझ आ गया होगा कि 2020 के भारत से सैन्य रुप से टकराना उनके लिए कितना महंगा हो सकता है। हो सकता है भारत के साथ टकराव से ही उनके महाशक्ति बनने का सपना चूर हो जाए। हमने 1962 के युद्ध में 38 हजार वर्गमील जमीन अवश्य खो दी लेकिन उसके बाद से कभी चीन के सामने कमजोर नहीं पड़े। इस समय वो हमारा 45 किलोमीटर हिस्सा हड़पना चाहते थे, हमने उनका मंसूबा ध्वस्त कर दिया।
यह विवाद ही चीन की विस्तारवादी नीति की परिणति है, अन्यथा दोनों देशों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा एवं सीमा पर व्यवहार के लिए बाजाब्ता समझौते हैं। जैसा हमको पता है पहली बार पांच मई को लद्दाख स्थित पैंगोंग झील के पास दोनों देशों की सेनाओं के बीच तनाव की खबरें आईं थीं। चीनी सैनिकों ने गलवन घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा पार कर भारतीय क्षेत्र में प्वाइंट-14, प्वाइंट-15 और प्वाइंट-17 के पास तंबू गाड़ लिए थे। भारत ने उसका करारा प्रतिरोध किया। करीब डेढ़ महीने में बार-बार बात हुई। जून में भी 4 बार बातचीत हो चुकी है। बावजूद यदि चीनी सैनिक इस सीमा तक आ गए हैं तो साफ है कि वो पूरी तैयारी से हमारे क्षेत्र के सामरिक रुप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर कब्जा कर लेने की नीति से आए थे। यह खबर भी आ रही थी कि बातचीत में दोनों देशों की सेनाओं के बीच तनाव कम करने यानी डी-एस्केलेशन पर सहमति हो गई थी। तो फिर ऐसा क्यों हुआ? यही चीन का चरित्र है।
यह याद दिलाया जा रहा है कि चीन ने 45 साल पहले भी ऐसे ही धोखा दिया था। 20 अक्टूबर 1975 को अरुणाचल प्रदेश के तुलुंग ला में चीन ने असम राइफल की पैट्रोलिंग पार्टी पर धोखे से एम्बुश लगाकर हमला किया था। इसमें भारत के 4 जवान शहीद हुए थे। इसके बाद पहली बार हमारे सैनिकों की शहादत हुई है। वह छोटी झड़प थी। इसलिए उससे इसकी तुलना नहीं होनी चाहिए भारत के लोगों को यह भी याद दिलाना जरुरी है कि 1962 की जंग में पराजय के पांच वर्ष बाद ही सितंबर 1967 में सिक्किम के नाथू-ला में दोनों सेनाओ के बीच टकराव हुआ था और हमारे जवानों ने तब भी उनके दांत खट्टे किए थे। उनको वापस जाना पड़ा एवं रक्षा विशेषज्ञों ने तथ्यों के साथ साबित किया है कि उस पूरे टकराव में कम से 400 चीनी सैनिकों की मौत हुई थी। अगर चीन फिर टकराएगा तो यह मानकर चलिए कि जितनी क्षति हमारी होगी उससे बहुत ज्यादा क्षति चीन की होगी। चीन की मानसिकता एशिया का नेता बनने की है और भारत इस मामले में उससे आगे निकल गया है।
उसकी अर्थव्यवस्था का 40 प्रतिशत आधार निर्यात है। अब अमेरिका और यूरोप पहले की तरह उससे सामान लेने को तैयार नहीं हैं। कंपनियां चीन छोड़ने का ऐलान कर रहीं हैं और उन सबका फोकस भारत पर है। चीन की एक कोशिश हमें इस तरह उलझा देने की है ताकि हमारे यहां अशांति रहे, कोई निवेश न आए एवं हमारी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ न हो। साथ ही सीमा पर वह सामरिक रुप से अपने को सशक्त बनाए रखने की रणनीति पर काम कर ही रहा है।
किंतु यही सोच और इस पर आधारित व्यवहार उसके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। युद्ध तो हमें ही लड़ना होगा लेकिन 1962 की तरह हम अकेले नहीं होंगे। इस समय पाकिस्तान और नेपाल को छोड़कर चीन का कोई पड़ोसी उसे खुश नहीं है। विश्व में उसके खिलाफ व्यापक नाराजगी है। हमारे रक्षा समझौते ज्यादातर देशों के साथ है। चीनी सेना ने 1962 के बाद कोई युद्ध नहीं लड़ा। 1967 को हम युद्ध नहीं कह सकते। हमारी सेना ने उसके बाद 1965, 1971 और 1999 का युद्ध लड़ा है। पाकिस्तान के साथ अघोषित युद्ध चलता ही रहता है। इसलिए अपने देश पर, राजनीतिक नेतृत्व पर, सेना पर और कूटनीति पर पूरा भरोसा रखिए। अच्छा हो कि चीन इसे केवल स्थानीय टकराव मानकर तनाव खत्म करने की पहल करे। यानी इसे विस्तार न दे लेकिन अगर उसने विस्तार दिया तो फिर हम जवाब देने और उनको सबक सिखाने के लिए तैयार हैं। वैसे भी चीन के साथ सीमा विवाद को खत्म करने या इसका समाधान करने के लिए भारत को आज या कल अपनी सोच और नीति बदलनी ही है।
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