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कवि ही नहीं, बेहतरीन इंजीनियर भी थे रहीम

कवि ही नहीं, बेहतरीन इंजीनियर भी थे रहीम - Hindi Blog On Raheem And Water Saving
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून।।
 
रहीम सिर्फ कवि ही नहीं एक बेहतरीन इंजीनियर भी थे, बुरहानपुर के कुंडी भंडारा के जरिए वो किया जिसे देखकर आधुनिक विज्ञान भी दांतों तले उंगली दबा ले। अब्दुर्रहीम खानखाना या रहीम को आप उनके दोहों के लिए जानते हैं। ऐसा ही एक मशहूर दोहा यहां लिखा गया है। रहीम सिर्फ कवि ही नहीं थे, वे एक कुशल शासक और योद्धा के तौर पर भी जाने जाते थे। यही वजह है कि अकबर ने उन्हें अपने नौ रत्नों में जगह दी थी। रहीम पानी के महत्व को समझते थे, उन्होंने फलसफे के लिहाज से तो उपरोक्त दोहे में पानी के महत्व को बताते हुए कहा कि पानी के बिना सब शून्य है लेकिन वे इसके महत्व को अपनी यान्विक समझ के जरिए मूर्त रूप देने में भी कामयाब हुए।
 
मुझे बुरहानपुर यात्रा के दौरान उनकी इस समझ को देखने और समझने का एक जबरदस्त मौका मिला। यह मौका अहम इसलिए था क्यूंकि इस यात्रा के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर के जल वैज्ञानिक डॉ. शैलेष खर्कवाल भी मेरे साथ थे। नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के वैज्ञानिक शैलेष के लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था, क्योंकि जिस तरह के प्रयोग अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे हैं उन्हें 400 साल पहले 1615 में करवाना निश्चित तौर पर आश्चर्य का विषय ही है। 
 
बुरहानपुर प्रशासन और खास तौर पर यहां के कलेक्टर दीपक सिंह इस विरासत को सहेजने और इसके पुनर्रुद्धार में जुटे हुए हैं। उन्होंने ने ही वैज्ञानिकों की टीम को इस कुंडी धारा को देखने और इसे फिर से बुरहानपुर में पानी की सप्लाय का मजबूत आधार बनाने के लिए बुलवाया था। बुरहानपुर पानी की किल्लत से जूझने वाला शहर है, इसके बावजूद यहां पानी की सप्लाय का सबसे बढ़िया माध्यम अब भी यही कुंडी धारा बना हुआ है। डॉ. शैलेष ने बताया की आस पास मौजूद सतपुड़ा रेंज की पहाड़ियों पर किसी जमाने में जबरदस्त जंगल हुआ करते होंगे। वर्षा का पानी इन पर्वतों की जड़ों में जाता था और फिर यहीं से रिस कर ये पानी इस अंडर ग्राउंड पानी के स्त्रोत तक पहुंचता था। पूरे शहर में बनाई गई सुरंग के जरिए फिर इसका वितरण किया जाता था। 
 
डॉ. शैलेष के लिए यह आश्चर्य का विषय था और इसलिए उन्होंने इस पर विस्तृत शोध का मन बनाया है। उनका मानना है कि एक जल वैज्ञानिक के तौर पर वे मानते हैं कि यदि हम इस तरह के परंपरागत प्रयासों और यान्विकी की तरफ दोबारा लौटते हैं तो पानी के भरपूर स्त्रोतों को पैदा किया जा सकता है। इसे खूनी भंडारा क्यों कहा जाता है यह तो स्पष्ट नहीं, लेकिन कहा यह भी जाता है कि पहाड़ों से शुरूआत में आने वाला पानी बिलकुल लाल हुआ करता था और यहीं से इसके इस नाम की शुरूआत हुई। शहर भर में सुरंग के ऊपर छोटी-छोटी कुंडियों का निर्माण किया गया है जो पानी को सूर्य का प्रकाश और हवा देती है, जिससे पानी शुद्ध रहता है। इसके अलावा संभवतः इन्हीं कुंडियों या छोटे-छोटे कुओं के माध्यम से शहर के नागरिक पानी भी लिया करते थे। 
 
यह हिंदुस्तान में अपने किस्म का पहला प्रयोग था। हालांकि इस तरह की तकनीक ईरान-इराक जैसे देशों में प्रचलित थी। रहीम यहीं से इस तकनीक को बुरहानपुर लाए थे। शहर के लोगों को शुद्ध पेयजल देने के मकसद से उन्होंने ऐसे 8 जल संग्रहण केंद्रों का निर्माण किया था। इनमें से 2 भंडारे तो बहुत पहले खत्म हो गए थे लेकिन 6 बहुत समय तक काम करते रहे। इस प्रणाली के अंतर्गत उस वक्त के इंजीनियर्स ने भूमिगत जल स्त्रोतों का पता लगाकर तीन जलाशयों या भंडारों का निर्माण करवाया था - 
 
1. मूल भंडारा
2. सूखा भंडारा
3. चिंताहरण भंडारा
 
इनकी ऊंचाई शहर से करीब 100 फीट ऊंची रखी गई थी ताकि नीचे की तरफ प्रवाह से पूरे शहर को पानी वितरित किया जा सके। कुंडी भंडारा के भीतर जाने के लिए आज भी आपको करीब 90 फीट की गहराई में उतरना पड़ता है। एक पतली सुरंग से जाते हुए आपको कुछ डर का अनुभव भी हो सकता है लेकिन जो इसके अभ्यस्त है उनके लिए यह बहुत आम बात है। इसके भीतर उतरने की तकनीकों का भी समय-समय पर विकास हुआ। आजकल आप एक संकरी लिफ्ट के जरिए इसके भीतर उतर सकते हैं।
 
डॉ. शैलेष के मुताबिक यह उनके जीवन का एक रोमांचक अनुभव रहा और इसे वे कभी नहीं भूल पाएंगे। वे कहते हैं कि अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब 400 साल पहले लोग पानी के संरक्षण को लेकर इतने जागरुक थे तो आज क्यों नहीं हैं? हम जितनी तेजी से पानी बर्बाद कर रहे हैं उतनी तेजी से ही यह दुनिया भी खत्म हो रही है। यदि हम जल संरक्षण को लेकर रहीम जैसे ही जागरूक हो जाएं तो एक बड़ी चुनौती से निपटने के लिए तैयार हो सकते हैं। पानी बिना सचमुच सबकुछ शून्य है, लेकिन यदि प्राकृतिक संपदाओं को तकनीक का साथ मिले तो पानी को पर्याप्त मात्रा में संरक्षित किया जा सकता है। डॉ. शैलेष पिछले 11 सालों से सिंगापुर युनिवर्सिटी के साथ जुड़े हुए हैं। वे बताते हैं कि सिंगापुर पानी की किल्लत से बुरी तरह जूझने वाला देश था। उसके पास कोई प्राकृतिक स्त्रोत भी नहीं हैं। चारों तरफ संमदर से घिरे इस देश ने जिस तरह खुद को पानी के मामले में स्वावलंबी बनाया है वह एक आदर्श है। उन्हें इस बात का भी आश्चर्य है कि यह जागरूकता और तकनीक 400 साल पहले बुरहानपुर जैसे शहर में भी थी। इससे यदि प्रेरणा ली जाए तो देश में पानी की किल्लत को पूरी तरह खत्म किया जा सकता है।