मिलने और न मिलने की चाह के बीच : निर्मल वर्मा, केबीवी और अल्बेयर कामू से लेकर विनोद कुमार शुक्ल के नाबोकॉव अवॉर्ड तक
अपने प्रिय लेखकों से मिलने का मेरा कभी इरादा नहीं रहा. मुझे भय रहा है कि कहीं मैं उन्हें बतौर मनुष्य/इंसान मिसअंडस्टैंड या जज न कर लूं. मैं उन्हें लेखक के तौर पर ही जानते रहना चाहता हूं. अपने भीतर गढ़ी उनकी लेखकीय या काल्पनिक छवि को ध्वस्त नहीं करना चाहता था. ठीक उसी तरह जब किसी नॉवेल के किरदार से लगाव हो जाए तो हम दिन-रात उसके साथ रहने लगते हैं, लेकिन कभी यह नहीं चाहते कि वो चरित्र किताब से बाहर आकर हमसे मिल भी लें.
जब निर्मल वर्मा नहीं रहे तब मैं छोटा था— लिखने-पढ़ने से मेरा कोई बहुत ज्यादा संबंध नहीं था. उस वक्त मैं किताबों को ठीक से पढ़ना सीख रहा था. पर उनसे यह रिश्ता इतना प्रगाढ़ था कि उनकी उंगली पकड़कर शिमला से लेकर दिल्ली और प्राग तक सैर की.
मेरी दोयम दर्जे की साहित्यिक समझ के दिनों में निर्मल वर्मा आए थे. किंतु निर्मल से मुक्ति आसान नहीं है/नहीं थी. किंतु कई बार आपका प्रिय लेखक ही आपको इसलिए त्याग देता ताकि हम दूसरे रास्तों को ढूंढ सके. अलग-अलग आयामों से जिंदगी में झांक सकें.
निर्मल से ये मुक्ति असफल प्रेम के बाद पैदा हुई कसक में आत्महत्या करने की तरह थी— लेकिन मैंने कभी यह कसक नहीं पाली कि मैं उनसे क्यूं नहीं मिल सका.
जब केबीवी (कृष्ण बलदेव वैद) आए तब मैं ठीक-ठाक तरह से पढ़ने लगा था. पढ़ने के लिए लंबी सीटिंग की आदत लग चुकी थी. केबीवी को मैं दो दृष्टियों से पढ़ता था. एक स्वयं की और दूसरी निर्मल जी की. क्योंकि केबीवी की डायरियों में निर्मलजी के साथ उनकी दरारें और उसकी टूटी हुई किरिचें साफ नजर आती थीं. उन्होंने कई दफे दोनों के बीच तिड़के हुए रिश्ते का जिक्र किया है. किंतु दूसरी तरफ निर्मलजी की डायरी में कभी केबीवी का इंचभर जिक्र भी दिखाई नहीं पड़ा.
संभवत: दोनों के मानवीय या मनुष्यगत अवगुणों या भूल की वजह से मेरी उनसे मिलने की रुचि न रही हो. (संभव है दुनिया के कई महान कलाकार अपनी मनुष्यता में कहीं न कहीं कमतर हों). जब केबीवी गए तब वे अमेरिका में थे. भारत में होते तो उनसे मिला जा सकता था. किंतु तब तक उनसे मिलने की भी कोई खास अभिरुचि शेष नहीं रही थी. मैं बस, उनके बारे में सोचता रहा कि वे अमेरिका में अकेले अपने कमरे में अपनी सनकों को याद कर रहे होंगे— और एक आखिरी नॉवेल लिखने की अधूरी इच्छा के साथ उनकी उंगलियों कांप कर सांस के रास्ते उखड़ गई होंगी.
ठीक उसी तरह जैसे 25 अक्टूबर 2005 को निर्मल वर्मा मनुष्य के जीवन को राख का अंतिम ढेर कहते हुए उस अज्ञात दुनिया में चले गए जिसे वे न स्वर्ग और न ही नर्क कहते थे।
अल्बेयर कामू ने तो 60 के दशक में ही किसी दरिया किनारे धूप सेंकते हुए अपनी उस जिंदगी से एक्जिट ले लिया था, जिसे वो एब्सर्ड कहता था.
बेहतर है मैं इन सभी को इंसान के तौर पर नहीं जान सका. जिसकी बदौलत उन्हें बतौर लेखक अपने भीतर बहुत ज्यादा प्रिवर्ज कर के रख सका. हालांकि मैं इस फैसले पर नहीं हूं कि किसी लेखक को एक लेखक के तौर पर ज्यादा या एक मनुष्य के तौर पर ज्यादा जाना जाना चाहिए.
अब इन दिनों कुछ कुछ बनती बिगड़ती मिलने की चाह के बीच कुछऐक बार चाहा कि विनोद कुमार शुक्ल से तो मिल ही लूं. भला 87 बरस के एक लेखक को बतौर इंसान आंककर मैं क्या ही हासिल कर लूंगा. किंतु लंबे वक्त तक नागपुर में रहते हुए रायपुर नहीं गया. अब जब उन्हें पेन अमेरिका की तरफ से नाबोकॉव अवॉर्ड दिया जा रहा है तो मिलने की वो बची-खुची चाह भी बुझती नजर आ रही है. अब तो उन्हें जानने के लिए उनके आसपास वैसे ही अच्छी खासी भीड़ जमा हो चुकी होगी.