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बच्चों की लाशों पर सियासत करने की हवस

बच्चों की लाशों पर सियासत करने की हवस - Death of children, Yogi Adityanath, Gorakhpur Medical College
मुझे आश्चर्य हो रहा है कि गोरखपुर में हुई त्रासदी के लिए एक स्वर से योगी आदित्यनाथ को दोषी ठहराया जा रहा है!
 
किसी भी राज्य का सत्ताप्रमुख प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वहां होने वाली हर घटना के लिए उत्तरदायी होता है, यह जितना सच है, उतना ही अवधारणात्मक भी है। ये एक "हाइपोथेटिकल" चीज़ है। किसी भी राज्य का एक-एक पत्ता वहां के मुख्यमंत्री से पूछकर नहीं खड़कता है, चाहे उसे कितना ही बड़ा बहुमत मिला हो!
 
पुराने वक़्तों में संबंधित विभागों के उत्तरदायी त्रासदियों की घटनाओं पर "नैतिकता" के आधार पर त्यागपत्र दे दिया करते थे, उसके मूल में त्रास की भावना हुआ करती थी, लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि त्रासदियों के लिए वे सीधे तौर पर दोषी हुआ करते थे।
 
गोरखपुर की घटना के लिए योगी आदित्यनाथ को तीन ही स्थितियों में दोषी ठहराया जा सकता है :
 
1) योगी आदित्यनाथ ने स्वयं ही बच्चों की हत्या का आदेश जारी किया हो। जैसा कि कम्युनिस्ट सत्ताओं में वर्गशत्रुओं के संहार के बाक़ायदा लिखित आदेश जारी किए जाते थे!
 
2) योगी सरकार की किसी सुचिंतित नीति के परिणामस्वरूप यह त्रासदी हुई हो।
 
3) मुख्यमंत्री को व्यक्त‍िगत रूप से निकट भविष्य में हो सकने वाली अनहोनी की सूचना दी गई हो, और उन्होंने उस पर ध्यान देने से इनकार कर दिया हो, जैसा कि "भोपाल गैस त्रासदी" के मामले में हुआ था।
 
किस अस्पताल में एक्सरे ख़राब है, सोनोग्राफ़ी यूनिट काम नहीं कर रही है, लिफ़्ट आउट ऑफ़ सर्विस है, ऑक्सीजन सप्लाई नहीं हो रही है, आदि इत्यादि की जानकारी मुख्यमंत्री तो क्या, स्वास्थ्य मंत्री तो क्या, ज़िला दंडाधिकारी तक को नहीं होती है। यह मुख्य चिकित्सा अधिकारी या "सीएमओ" के स्तर का मामला होता है। उसके बाद नोडल अधिकारी और संबंधित विभागाध्यक्ष को इसकी सूचना होती है। 
 
भारत में लोकतंत्र अवश्य आ गया है, लेकिन सामंतशाही वाली आदत अभी गई नहीं है, जिसमें झट से उठकर राजा को दोष दे दिया जाता है, क्योंकि प्रजा की तो कोई भूमिका है ही नहीं!
 
भारत में राजशाही नहीं है, जो आप हर बात के लिए राजा को कोसें। भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र का मतलब केवल वोट देना नहीं होता, सामूहिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करना भी होता है।
 
घटना गोरखपुर में हुई, जो कि मुख्यमंत्री का गृहनगर है, और स्वयं मुख्यमंत्री उस अस्पताल का दौरा करने दो दिन पहले पहुंचे थे, लेकिन संबंधित अधिकारी किस अवसर पर क्या निर्णय ले रहे हैं, इसकी सूचना मुख्यमंत्री को नहीं हो सकती। ना ही इस तरह के दौरों में मुख्यमंत्री निजी तौर पर ऑक्सीजन की सप्लाई जैसी व्यवस्था की जांच करते हैं। वे फ़ौरी तौर पर मौक़ा मुआयना करते हैं, संबंधित अफ़सरों से बात करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। अगर उन्हें कोई समस्या रिपोर्ट की जाए तो वे अवश्य मौक़े पर ही उसके निराकरण के आदेश देते हैं। बशर्ते उन्हें वैसी कोई सूचना दी जाए।
 
गोरखपुर में हुई त्रासदी की ख़बर मिलते ही लार टपकने लगे कि योगी को घेरने का अवसर मिला, वह एक राजनीतिक हवस हो सकती है, लेकिन उससे वस्तुस्थितियां नहीं बदल जातीं।
 
"इमिजिएट अथॉरिटी" करके कोई चीज़ होती है, जिसकी कि तात्कालिक ज़िम्मेदारी होती है!
 
यह तो अस्पताल प्रबंधन की सीधी ज़िम्मेदारी बनती है ना कि ऑक्सीजन जैसे अत्यावश्यक तत्व का भुगतान फ़ौरन से पेशतर करवाए और इसके लिए फंड की किल्लत की कोई स्थिति हो तो संबंधित अधिकारियों, स्वास्थ्य मंत्री या मुख्यमंत्री को इससे अवगत कराए?
 
इससे भी बढ़कर यह उस "सप्लायर" की ज़िम्मेदारी बनती है, जिसने यह कहकर सप्लाई बंद करने का निर्णय ले लिया कि सौ बार चिट्ठी लिखने के बावजूद पेमेंट नहीं हुआ है।
 
अगर कोई रेलगाड़ी चालक अपनी वेतनवृद्ध‍ि से ख़ुश नहीं होगा तो क्या वह रेलगाड़ी को दुर्घटनाग्रस्त कर देगा?
 
अपने सैलेरी पैकेज से असंतुष्ट पायलट क्या किसी यात्री विमान को कहीं "क्रैश" कर देगा?
 
कोई तो अफ़सर बैठा होगा "पुष्पा सेल्स" नामक उस सप्लायर कंपनी में, कोई जीएम, कोई सीईओ, या फिर स्वयं चेयरमैन, जिसने यह ई-मेल संबंधित को लिखा होगा कि गोरखपुर के "बीआरडी मेडिकल कॉलेज" में ऑक्सीजन की सप्लाई तत्काल प्रभाव से बाधित की जाए, यह भलीभांति जानते हुए कि इसका मतलब है रोगियों की हत्या करना!
 
क्या वह ई-मेल भेजते समय उस अफ़सर के हाथ कांपे होंगे? या अब जब बच्चों की मौत की ख़बरें सामने आई हैं तो क्या वह अपने बच्चों के सिर पर हाथ फेरकर चैन की नींद सो पा रहा होगा?
 
मेरा मानना है कि इस कंपनी का लाइसेंस तत्काल निरस्त कर देना चाहिए और सप्लाई बंद करने का मेल लिखने वाले संबंधित अधिकारी को जेल में डाल देना चाहिए, क्योंकि अगर उसका 69 लाख रुपए का पेमेंट छह माह से पेंडिंग था, तो वह उससे दिवालिया नहीं होने जा रहा था और उसका परिवार भूखों नहीं मर रहा था।
 
जो भी कंपनी व्यवसाय करती है, वह निजी आर्थ‍िक हित को पहले देखती है, यह सच है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह दूरगामी मानवीय हित की पूरी तरह अनदेखी कर दे। और अगर वह ऐसा करती है तो उसे दंडित किया जाना अनिवार्य है। ताकि एक नज़ीर क़ायम हो।
 
किंतु इतना "नीर-क्षीर-विवेचन" कौन करे, जब गोरखपुर का नाम सुनते ही उत्तरप्रदेश के भगवाधारी मुख्यमंत्री को घेरने का सुख प्राप्त किया जा सकता है?
 
मैं जानता हूं कि आपको योगी आदित्यनाथ से घृणा है, लेकिन उसकी आलोचना के लिए हर बिंदु पर गिद्धों की तरह झपट्टा मत मारिए!
 
मैं जानता हूं कि आपको आज़म ख़ान की याद आ रही है, लेकिन अगले पांच साल तक आपको उसकी सेवाएं नहीं मिलने वालीं!
 
गोरखपुर त्रासदी सबसे पहले मानवीय लोभ की एक बदनुमा मिसाल है। 
 
उसके बाद वह प्रशासनिक लापरवाही का भयावह नमूना है। 
 
फिर वह राज्यसत्ता की संरचनाओं में आपसी तालमेल और संवाद का आपराधि‍क अभाव है। 
 
और सबसे अंत में वह मुख्यमंत्री की नैतिक ज़िम्मेदारी है। 
 
सबसे पहले नहीं!
 
बच्चों की लाशों पर अवसरवाद की राजनीति करने से पहले आलोचकों को लज्जा आनी चाहिए!
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