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Last Modified: शुक्रवार, 23 जुलाई 2021 (23:56 IST)

लोकतंत्र के सलीब पर साइबर जासूसी की कील!

लोकतंत्र के सलीब पर साइबर जासूसी की कील! - Cyber espionage case in democracy
टेक्‍नालॉजी ने आदमी और प्रजातंत्र दोनों को ही ख़त्म कर देने की कोशिशों को आसान कर दिया है। दुनिया के कुछ मुल्कों, जिनमें अमेरिका आदि के साथ भारत भी शामिल हो रहा है, ने स्थापित कर दिया है कि सत्ता में बने रहने के लिए करोड़ों नागरिकों का विश्वास जीतने में ताक़त झोंकने के बजाय कुछ अत्याधुनिक तकनीकी उपकरणों, आई टी सेल्स जैसी व्यवस्थाओं और साइबर विशेषज्ञों में निवेश करना ज़्यादा आसान और फायदेमंद रास्ता है। परंपरागत देसी तरीक़े और अति विश्वसनीय समर्थक भी ऐन मौके पर धोखा दे सकते हैं पर ख़रीदे हुए विशेषज्ञ और विदेशी तकनीकें नहीं। सत्ता की राजनीति में आवश्यकता अब नागरिकों का विश्वास जीतने की नहीं बल्कि उन्हें प्रभावित करके उनके विचारों को बदलने तक सीमित कर दी गई है।

दुनियाभर के मुल्कों में जैसे-जैसे सत्तासीन शासकों के द्वारा प्रजातंत्र की रक्षा के नाम पर अपनाए जा रहे ग़ैर-प्रजातांत्रिक कारनामों का खुलासा हो रहा है, नागरिकों ने उनसे पहले के मुक़ाबले ज़्यादा ख़ौफ़ खाना शुरू कर दिया है। इसरायल में निर्मित जासूसी करने के उच्च-तकनीकी और महंगी क़ीमत वाले पेगासस सॉफ़्टवेयर या स्पाईवेयर की मदद से आतंकवाद और आपराधिक गतिविधियों पर नियंत्रण के नाम पर नागरिक समाज के कुछ चिन्हित किए गए सदस्यों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है।

पूर्व सूचना प्रौद्योगिकी (आई टी) मंत्री और सात जुलाई को हुए मंत्रिमंडलीय फेरबदल में हटाए जाने के पहले तक देश में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के विकास और उसके इस्तेमाल करने की पताका फहराने वाले रविशंकर प्रसाद ने जो कुछ कहा है उसने चल रहे विवाद की गम्भीरता को और बढ़ा दिया है।रविशंकर प्रसाद ने बजाय इन आरोपों का खंडन करने के कि सरकार विरोधियों की जासूसी कर रही है, पलटकर यह पूछ लिया कि जब दुनिया के पैंतालीस देश पेगासस सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं तो भारत में इस बात पर इतना बवाल क्यों मचा हुआ है?

रविशंकर प्रसाद के कहे जाने के बाद एक नया डर उत्पन्न हो गया है। वह यह कि किसी दिन कोई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति खड़े होकर यह बयान ना दे दे कि अगर दुनिया के 167 देशों के बीच ‘पूर्ण’ प्रजातंत्र सिर्फ़ तेईस देशों में ही है और सत्तावन में अधिनायकवादी व्यवस्थाएं क़ायम हैं तो भारत को लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है? ब्रिटेन के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी अख़बार ‘द गार्डियन’ का कहना है कि जो दस देश कथित तौर पर जासूसी के कृत्य में शामिल हैं वहां अधिनायकवादी सत्ताएं क़ाबिज़ हैं।

अपने राजनीतिक विरोधियों अथवा अलग विचारधारा रखने वाले लोगों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों आदि की जासूसी पूर्व की सरकारों में शरीरधारी मानवों के द्वारा करवाई जाती रही है। आपातकाल में जिन लगभग डेढ़ लाख लोगों को गिरफ़्तार किया गया था उनमें भी सभी वर्गों के नागरिक शामिल थे। तब मोबाइल फ़ोन भी नहीं थे। मार्च 1991 में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार को कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस लेकर केवल इस एक कारण से गिरा दिया था कि हरियाणा सीआईडी के दो सादी वर्दीधारी जवान दस जनपथ के बाहर चाय पीते हुए पकड़ लिए गए थे। कांग्रेस ने तब आरोप लगाया था कि इन लोगों को राजीव गांधी की जासूसी करने के लिए तैनात किया गया था।

ताज़ा मामले में तो आरोप यह भी हैं कि जिन लोगों की जासूसी हो रही थी उनमें अन्य लोगों के अलावा सरकार के ही मंत्री, उनके परिवारजन, घरेलू कर्मचारी और अफ़सर आदि भी शामिल रहे हैं। चंद्रशेखर के जमाने तक अगर नहीं जाना हो और वर्तमान सरकार के जमाने की ही बात करना हो तो सिर्फ़ अक्टूबर 2018 तक ही पीछे लौटना पड़ेगा।तब सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा के सरकारी बंगले के सामने की सड़क पर इधर-उधर ताकझांक करते देखे गए चार व्यक्तियों को पकड़ लिया गया था।बाद में पता चला था कि चारों इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) के लोग थे। तब आरोप लगाया गया था कि आलोक वर्मा की जासूसी करवाई जा रही है। गृह मंत्रालय की ओर से उसे रुटीन ड्यूटी बताया गया था।

कोई शरीरधारी आदमी जब अपने ही जैसे दूसरे आदमियों की जासूसी करता है तो नागरिकों को ज़्यादा डर नहीं लगता। ऐसा इसलिए कि यह आदमी सिर्फ़ निशाने पर लिए गए शिकार के आवागमन और उसके अन्य लोगों से मिलने-जुलने की ही जानकारी ही जमा करता है। बातचीत को सुनने के लिए फ़ोन टेपिंग के अलावा घरों में सेंध लगाकर गुप्त उपकरण स्थापित करना पड़ते हैं। हाल ही में जब राजस्थान की कांग्रेस सरकार में विद्रोह जैसी स्थिति बन गई थी तब जासूसी के परम्परागत तरीक़े ही विद्रोहियों के ख़िलाफ़ आज़माए गए थे। पर कर्नाटक में जनता दल (एस) और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार को गिराने में पेगासस स्पाईवेयर के इस्तेमाल के आरोप अब उजागर हो रहे हैं। अंततः पूरा मामला संसाधनों की उपलब्धता और सत्ताओं की नीयत पर टिककर रह जाता है।

नागरिक के ज़्यादा डरने के कारण तब उत्पन्न हो जाते हैं जब उसे पता चलता है कि कोई हुकूमत या अज्ञात सत्ता चाहे तो अदृश्य तकनीक की मदद से हज़ारों मील दूर बैठकर भी उसके शयन कक्ष में पहुंचकर उसके अंतरंग क्षणों को उसी के मोबाइल कैमरों के ज़रिए प्राप्त कर सकती है, बातें सुन सकती है, उनकी रिकॉर्डिंग कर सकती है, संदेशों को पढ़ सकती है और अंततः उसकी ज़िंदगी को क़ैद कर सकती है।नागरिक को तब लगने लगता है कि उसे अब अपने बेडरूम में अंदर से कुंडी लगाना भी बंद कर देना चाहिए। पेगासस जासूसी का मामला अभी दुनिया के पचास हज़ार लोगों तक ही सीमित बताया जा रहा है पर यह संख्या किसी दिन पांच लाख या पांच और पचास करोड़ तक भी पहुंच सकती है।

नागरिक जब सरकारों में बैठे हुए व्यक्तियों और उनके चेहरों की बदलती हुई मुद्राओं के बजाय उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले गुप्त और अदृश्य तकनीकी उपकरणों से ख़ौफ़ खाने लगे तो भय व्यक्त किया जाना चाहिए कि कहीं एक और देश तो उन मुल्कों की जमात में शामिल होने की तैयारी नहीं कर रहा है जहां या तो लोकतंत्र पूरी तरह से समाप्त हो चुका है या फिर आगे-पीछे हो सकता है। ऐसी स्थितियां तभी बनती हैं जब शासकों को लगने लगता है कि उनकी लोकप्रियता घट रही है या काफ़ी लोग उनके ख़िलाफ़ गुप्त षड्यंत्र कर रहे हैं।

हुकूमतें तकनीकी रूप से चाहे जितनी भी सक्षम क्यों न हो जाएं, नागरिकों के मन के अंदर क्या चल रहा है उसका तो पता नहीं कर सकतीं। हां, वे इतना ज़रूर कर सकती हैं कि अगर लोगों ने बोलना पहले से ही कम कर रखा है तो उसे अब पूरा बंद कर दें।इशारों में भी बातें नहीं करें,क्योंकि आधुनिक तकनीक ने इतनी क्षमता प्राप्त कर ली है कि वह इशारों की भाषा को भी डीकोड कर सकती है। नागरिक तब केवल अपने ही मन की बात सुन पाएंगे और लोकतंत्र को बचाने की सारी चिंताओं से भी अपने को आज़ाद कर लेंगे। पता किया जाना चाहिए कि पेगासस खुलासे के बाद से कितने लोगों ने अपने मोबाइल बंद कर दिए हैं, शयनकक्षों से दूर रख दिए हैं या उनसे पूरी तरह दूरी बनाकर रहने लगे हैं।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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