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आज भी कुलांचें भरती है चांदनी

आज भी कुलांचें भरती है चांदनी - Chandni
‘अब्बू खां की बकरी ‘ डॉ. जाकिर हुसैन दवारा लिखी अदभुत कहानी मैंने अपनी उम्र के उस दौर में पढ़ी थी, जब बाल मन पर खिंची हुई हर रेखा गहरे तक असर करती थी। अल्मोड़ा की पहाड़ियों के बाशिंदे अब्बू खां को बकरियां पालने का बड़ा शौक था। पर पहाड़ियों पर घूमते भेड़िये अक्सर उन्हें अपना शि‍कार बना लेते थे और बेचारे  अब्बू खां उदास हो जाते।
 
चांदनी एक नन्हीं सी बकरी थी, जिसे अब्बू खां बहुत प्यार करते थे। अपनी जान से ज्यादा चाहते थे उसे। पहाड़ी पर बने बाड़े में उसे सदा अपनी आंखों के सामने रखते। अपने हाथों से हरी नर्म घास खिलाते। घंटों तक दुलारते। कहीं जाना होता तो उसे बाड़े में बंद कर ताला लगा देते।

चांदनी को उस छोटे से बाड़े में बंधकर रहना पसंद नहीं था। वह खिड़की से दूर तक फैले घास के मैदान को देखती। छोटी-छोटी, हरी भरी पहाड़ियां उसे बुलाती सी लगती। वह उन पहाड़ियों पर जाकर उछलना चाहती थी। जी भर कर हरी-हरी घास खाना चाहती थी। वह बाड़े में बंधकर नहीं खुले आसमान तले जीना चाहती थी। भेड़ियों के आतंक से अनजान नहीं थी चांदनी। पर खुलकर जीना ज्यादा पसंद था उसे। वह रोज पहाड़ी के हरे-भरे मैदान में कुलांचे भरने के सपने देखती। पर अब्बू खां के रहते तो कभी संभव नहीं था।
 
आखिर एक दिन चांदनी के मन की हो गई। बाहर जाते समय अब्बू खां खिड़की की सांकल लगाना भूल गए। उनके जाते ही चांदनी खिड़की से कूदकर बाहर आ गई। उछलती-कूदती मैदान तक पहुंची। खूब कुलांचे भरीं। हरी-हरी दूब जी भरकर खाई। कभी आसमान की ओर देखती कभी मैदान में सरपट दौड़ लगाती। रोम-रोम से खुशी फूट पड़ रही थी। उसके थकने से पहले ही दुष्ट भेड़िये की निगाह उस पर पड़ गई। चांदनी घबराई नहीं। उसने हिम्मत से भेड़िये का सामना किया। कमजोर थी, आखिर जान गंवानी पड़ी। भेड़िया हंसा, मैं जीत गया, पेड़ पर बैठी चिड़िया बोली, चांदनी जीती।
 
मेरे भीतर भी है चांदनी। हर औरत के भीतर होती है चांदनी। जो जिंदगी को जीना चाहती है अपनी तरह से। सुख-सुविधाओं की स्वर्णिम सलाखों के पीछे नहीं , स्वछंद वातावरण में, जहां उसकी सांसों पर कोई पहरा न हो। रोक-टोक और पाबंदियों से घिरी नहीं, उसे मुट्ठी भर सुकून दे ऐसी जिंदगी। घुट-घुटकर लंबी जिंदगी नहीं, छोटी जिंदगी जीना चाहती है खुले आकाश तले। अपनी शर्तों पर कोई उसे प्यार भले ना करे, पर जीने की आजादी तो दे। उसके सुख तो कुलांचे भरने में है, दोनों हाथों से खुशि‍यां लुटाने में है। बंधनों में बंधकर वह खुश कैसे रह सकती है ? 
 
लड़की है तो क्या, ताउम्र निर्देषों का पालन करती रहे ? उसे भी अधिकार है अपने अस्तित्व के साथ जीने का। हां, चांदनी की तरह हर औरत को भी खौफ रहता है भेड़ियों का। पर क्या उनके डर से जीना छोड़ दें ? हर औरत चाहती है चांदनी की तरह एक दिन की जिंदगी जीना। भेड़ियों का सामना करने का हौंसला भी है उसके पास। वह भी जीतना चाहती है चांदनी की तरह अमर होकर।
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